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नया धमाका

5/20/2011

'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ' की तोता-रटंत अर्थहीन , हिन्दुस्तान को हिन्दुस्तान ही बनाए रखें , रीति-रिवाज और परम्पराओं का पालन करें

मेरे पिताजी एक दृष्टांत सुनाया करते थे, जिसका वास्तविक अर्थ आज मुझे पहले से कहीं अधिक अच्छी तरह समझ में आ रहा है। कथा कुछ इस प्रकार से है- एक जंगल में एक साधु कुटिया बनाकर रहता था। वह हरि भजन करता और थके-मांदे पथिकों की सेवा-सुश्रुषा में लगा रहता। एक दिन गर्मी और थकान से परेशान एक शिकारी उस साधु की कुटिया में पंहुचा। उसके जाल में बहुत से डरे और सहमे हुए तोते फंसे थे। साधु की कुटिया में शिकारी ने जलपान किया। साधु ने उससे कहा- भले मानुस, क्यों इन पक्षियों को दु:खी कर रहे हो?' शिकारी ने कहा- तोते पकड़कर और बेचकर अपने परिवार का पेट पालता  हूं, इनकी हत्या तो नहीं करता।' लेकिन उस दिन उस साधु के आग्रह पर शिकारी ने वे सारे तोते साधु को सौंप दिए। उस साधु ने उन तोतों के भोजन एवं प्रशिक्षण का प्रबंध किया। लगभग तीन मास तक उन तोतों को प्रशिक्षण देने के बाद उस साधु ने उन्हे जंगल में स्वतंत्र छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद वही शिकारी वैसे ही जाल में कुछ तोते पकड़कर उसी रास्ते से जा रहा था। उस दृश्य को देखते ही साधु के हृदय को गहरा धक्का लगा, क्योंकि ये वही तोते थे जिन्हे उसने प्रशिक्षण दिया था। जाल में फंसे सभी तोते समूह गान गा रहे थे- शिकारी का दाना कभी नहीं खाएंगे, शिकारी के जाल में कभी नहीं जाएंगे।' व शिकारी भावपूर्ण और व्यग्यंपूर्ण ढ़ंग से मुस्कुरा रहा था।
कथनी और करनी में फर्क
आज मैं भी यह अनुभव कर रही  हूं कि वह तोते और कोई नहीं, हम स्वयं  ही  हैं। राष्ट्रीय महत्व के उत्सवों पर, स्वतंत्रता दिवस समारोह के अवसर पर हम भी गाते हैं- सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।' पर व्यवहार में बहुत से लोगों को हिन्दुस्तान ज्यादा अच्छा नहीं लगता। वस्तुत: हिन्दुस्तान कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसकी मंदिर में रखकर पूजा की जाए। देश का जन-जन, कण-कण, यहां का समाज, यहां के रीति-रिवाज, इस देश का वर्तमान और इतिहास, देश में निर्मित वस्तुएं, यहां के हरे-भरे मैदान, रेगिस्तान, वायु, थल और नौसेना- यही तो हिन्दुस्तान है। यहां की नदियां और पहाड़, महापुरुष, गुरू-पीर, देवी-देवता- सब कुछ मिलाकर ही तो हिन्दुस्तान या भारत बनता है।
दुर्भाग्य है, पर सत्य यही है कि देश के असंख्य निवासी अपने देश में निर्मित वस्तुओं के प्रति हीन भावना रखते है। अपनी मातृभाषा का प्रयोग संकोच के साथ करते है, अपने रीति-रिवाज भूलते जा रहे है। उनकी चर्चा कभी-कभार सिर्फ  इसलिए कर लेते है क्योंकि उनके प्रति अपनी जानकारी प्रकट करना भी एक 'फैशन' है।
हमारा शिक्षित वर्ग यहां-वहां चर्चा करता है कि शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में जैसे ही स्वामी विवेकानंद ने कहा- अमरीका के मेरे भाइयो और बहनो, तो वहां उपस्थित श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए, सभाकक्ष तालियों से गूंज उठा। क्योंकि मिस, मिसेज और मिस्टर की संस्कृति में पले-बढ़े समाज ने यह पहली बार सुना था कि सभी को भाई-बहन भी कहा जा सकता है। स्वामी जी के संदेश पर दुनिया तो मुग्ध हो गई, पर हम मूढ़ ही रह गए। स्वतंत्रता दिवस जैसे पवित्र अवसर पर भी हमारे राष्ट्राध्यक्ष अधिकतर 'मित्रों' शब्द का ही प्रयोग करते हैं। अपने देशवासियों को 'भाइयो और बहनो' का सम्बोधन देने में संकोच करते हैं। कभी-कभी 'लेडीज' और 'जेंटलमैन' भी कहते  हैं, पर उदारण स्वामी विवेकानंद का सुना देते है।
विदेशी कालगणना त्यागें
लगभग दो दशक पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री (स्व.) राजीव गांधी ने 21वीं शताब्दी में प्रवेश करने की बात कह दी। मुझे आश्चर्य हुआ, देश के अनेक लोग पलक बिछाए 21वीं शताब्दी की प्रतीक्षा करने लगे। पर वे य भूल गए कि भारतीय कालगणना के अनुसार तो हम लगभग आधी शताब्दी पहले से ही 21वीं शताब्दी में है। यह भी भूल गए कि जिस शताब्दी की चर्चा (स्व.) राजीव गांधी ने की थी, वह तो साम्राज्यवादी विदेशी शासकों द्वारा दी गई कालगणना के अनुसार थी। यह भी याद नहीं रहा कि भारत में सामान्यत: जन्म-मृत्यु, विवाह, पूजा, व्रत-त्योहार आदि अवसरों पर पंडित-पुरोहित के मुख से भारतीय संवत् और तिथि ही सुनते, मानते, लिखते और बोलते आए  हैं।
विक्रमी संवत् के अनुसार आने वाले नववर्ष का स्वागत हम मंदिरों और गुरुद्वारों में दर्शन, पवित्र नदियों में स्नान, दान और ध्यान के साथ करते  हैं। जबकि 1 जनवरी को अभारतीय नववर्ष मनाने के लिए 31 दिसम्बर की आधी रात तक हो-ल्ला, शोर-शराबा, नाच-गाना देखने में आता  है। नववर्ष और नई संस्कृति के नाम पर होटलों में मांस और शराब का चलन बढ़ जाता है। ऐसे में याद आता है पूर्व प्रधानमंत्री (स्व.) मोरारजी देसाई कहा वह कथन जब किसी ने उन्हे एक जनवरी को नववर्ष की बधाई दी थी। वे बोले, कौन-सा नया वर्ष? किसका नया वर्ष?'
हम लोगों के कितने रूप और व्यवहार है,  यह हम खुद ही नहीं जानते। कृष्ण जन्माष्टमी पर, रामनवमी पर, गुरु गोविंद सिंह के जन्मदिवस एवं गुरुनानक जयंती पर हम घर-घर, गली-गली में दीप जलाते हैं, भगवान बुद्ध एवं महावीर के जन्मदिवस पर मंदिरों, सड़कों एवं घरों को बिजली के बल्बों की मालाओं से सजा देते है, परंतु अपने बच्चे के जन्मदिवस पर कहते है- मोमबत्तियां जलाओ, फूंक मारो और करो अंधेरा। अंधेरे से प्रकाश की ओर जाने, ले जाने के लिए साधनारत भारत के वासी अपनी प्रकाशरथ-गामी संस्कृति को विस्मृत कर अंधेरा करके तालियां बजाना और झूमना सीख गए- हैप्पी बर्थ डे' के नाम पर। फिर भी साधु के शिष्य उन तोतों की तरह गा रहे हैं- सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।'
हमारा हिन्दुस्तान प्यारा हिन्दुस्तान
हमारा हिन्दुस्तान सारे जहां से अच्छा इसलिए है कि दुनिया के आंख खोलने के पहले से ही हम वेदों के रचयिता बन चुके थे, उपनिषद, गीता एवं पुराणों का ज्ञान संसार में बांट चुके थे। हिन्दुस्तान इसलिए अच्छा है कि यहां प्राण देकर भी वचन की रक्षा करने वाले रघुवंशी राम और श्रीकृष्ण जैसे कर्मयोगी हुए। हिन्द की चादर गुरु तेग बहादुर तथा वीर हकीकत राय एवं बलिदानी गुरु पुत्र भारत का ही गौरव हैं। मां दुर्गा, अहिल्या, कित्तूर की रानी चेनम्मा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं कनकलता जैसी असंख्य वीरांगनाओं की जन्मदाता हिन्दुस्तान की महान धरती ही है। हम इसलिए भी श्रेष्ठ हैं कि हम परलोकवासी पूर्वजों को भी जल देते हैं, उनके लिए भी दीप जलाते हैं। हम इसलिए भी महान हैं कि हमारी नदियां और सागर राष्ट्रीय एकता और सद्भावना के संगम स्थल हैं तथा हमारे पूर्वजों ने हमें 'आत्मवत सर्वभूतेषु' तथा वसुधैव कुटुम्बकम' का पाठ पढ़ाया है।
पर विदेशी प्रभाव में, मानसिक दासता में जकड़े हम अपना मूल स्वरूप विस्मृत कर बैठे। आत्मविस्मृति नामक रोग का शिकार होकर, संसार से अंतिम विदा भी दीप जलाकर लेने वाली संस्कृति के स्वामी होते हुए भी हम जन्मदिन पर दीप बुझाने लगे। प्रात: उठकर माता-पिता एवं गुरुजनों के चरण छूने वाले मयार्दा पुरुषोत्तम राम के देश के निवासी अपने वृद्ध माता-पिता को घरों से वृद्धाश्रम की ओर धकेलकर वृद्धों के कल्याण पर 'सेमिनार' करने लगे।
मैं यह निश्चित रूप से कह सकता  हूं कि हिन्दुस्तान तो सारे जहां से अच्छा है, पर पश्चिमी रंग में रंगे कुछ भारतीय लोग आत्मविस्मृति का शिकार होकर किसी मृग- मरीचिका में भटकते हुए हिन्दुस्तान को भी मैकाले की आंख से देखते हैं। पर जो सच्चे हिन्दुस्तानी हैं वे उस साधु के तोतों की तरह सिर्फ  गाते नहीं हैं बल्कि सबसे अच्छे हिन्दुस्तान के सच्चे हिन्दुस्तानी बनकर अपने रीति-रिवाजों और परम्पराओं का पालन करते हैं। (साभार पांचजन्य : लेखिका लक्ष्मीकांता चावला)

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