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नया धमाका

11/23/2010

बदल रहा है युवा भारत!

किसी भी राष्ट्र का निर्माण वहां के लोगों से होता है। लोगों के मन में जब स्वत्व का बोध होने लगता है, तो राष्ट्रवाद हिलोरें मारने लगता है। पिछले दिनों जिस प्रकार से संघ लोक सेवा आयोग तथा आई.आई.टी. संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई)-2010 के घोषित परिणामों में देश के ग्रामीण व हिन्दी भाषी क्षेत्रों के अभावग्रस्त युवाओं ने सफलता प्राप्त की है, उसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। निश्चित ही अभावग्रस्तता और क्षेत्रीय संसाधनों की अल्पता को नकारकर ऐसी विषम परिस्थितियों में हमारे युवाओं का भारतीय प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा व राष्ट्र के प्रमुख तकनीकी संस्थानों में चयन, देश के लिए विस्मयकारी न होकर उन युवाओं का अपनी मूल संस्कृति से जुड़ाव का स्पष्ट संकेत है। लार्ड मैकाले और उसके मानस पुत्रों ने जिस प्रकार भारत की भाषाओं विशेषकर संस्कृत व हिन्दी पर आक्रमण करते हुए अंग्रेजी भाषा के सम्मान का बोध कराया था, आज हमारे युवा अपने अकादमिक परिश्रम की सांस्कृतिक शैली में उस षड्यंत्र का प्रत्युत्तर देने में पूर्ण सक्षम हैं।
सफलता का आधार बनी हिन्दी
इस संदर्भ से जुडक़र हम जब आई.आई.टी. संयुक्त परीक्षा के घोषित परिणामों पर दृष्टिपात करते हैं तो स्पष्ट होता है कि देश में इस समय 15 आई.आई.टी. संस्थानों के साथ आई.टी.-बी.एच.यू. तथा आई.एस.एम., धनबाद के लिए विगत 11 अप्रैल को प्रवेश परीक्षा हुई थी। इस परीक्षा में चार लाख से भी अधिक प्रतियोगियों ने हिस्सा लिया था। सात जोन में संचालित परीक्षा में सबसे अधिक 3145 छात्र आई.आई.टी., मुम्बई में सफल रहे। मद्रास जोन में 2619, दिल्ली जोन में 2264, खडग़पुर में 1481, कानपुर में 1341, रुडक़ी से 1305 तथा गुवाहाटी से कुल 521 उम्मीदवार सफल रहे। कुल प्रतियोगियों में 12676 छात्र ही सफल रहे। यहां ध्यान देने योग्य पहलू यह है कि इन प्रतियोगी युवाओं में 554 सफल छात्र वे रहे जिन्होंने हिन्दी माध्यम से इस परीक्षा की तैयारी की थी। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों से आने वाले इन सफल प्रतियोगी युवाओं की संख्या पिछले वर्ष की तुलना में तीन गुनी हो गयी। बिहार प्रदेश में गरीब एवं प्रतिभाशाली बच्चों के भविष्य को सजाने व संवारने के लिए बनी सुपर-30 चाहे जितने विवादों में घिरी रही हो, परन्तु उस संस्था संचालन के मूल में छिपी संस्कृति का लोकमन अनुकरणीय है। इस संस्था के निदेशक आनंद कुमार का कहना है कि हमने गरीब, मजदूर, किसान व ग्रामीण परिवेश से जुड़े मेधावी बच्चों के भविष्ट्रय को संवारने का एक स्वप्न देखा था। आज इन तीस बच्चों के आई.आई.टी. के चयन के पश्चात हमारा वह स्वप्न निरन्तर ऊंचाइयों को स्पर्श कर रहा है। यहां दूसरा उदाहरण उत्तर प्रदेश के कानपुर नगर के गंगानगर इलाके के मछरिया में रहने वाले अभिषेक का है। अभिषेक के पिता चर्मकार हैं और मां कपड़े सिलकर परिवार का भरण-पोषण करती है। बेटे ने आई.आई.टी. जे.ई.ई. की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। अभिषेक ने लालटेन की रोशनी में और एक छोटे से कमरे में छह लोगों के परिवार के बीच रहकर अपनी पढ़ाई करते हुए इस परीक्षा में 154वां स्थान हासिल किया है। अभिषेक का स्वप्न है कि वह आई.आई.टी. कानपुर से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में अध्ययन करके देश की सेवा करे। तीसरा उदाहरण बिहार के गया जनपद के मोहम्मद शादाब आजम का है जिसके पिता गांव में ही श्रमिक का कार्य करते हैं। पूरे माह घर में उतना भी धन नहीं आता जिससे बड़े परिवार का भरण-पोषण हो सके। परन्तु आर्थिक रूप से कमजोर परिवार का जज्बा तथा देश के लिए कुछ करने का उत्साह काम आया। इसी कारण उन्होंने अपना पूरा श्रम तथा धन लगाकर आजम को इस लायक बनाया है।
जीवंतता की प्रेरणा
इनके अतिरिक्त भी दर्जनों ऐसे उदाहरण हैं जो यह संदेश देते हैं कि भले ही व्यक्ति सामाजिक व आर्थिक रूप से कमजोर हो, परन्तु कार्यनिष्ठा, ईमानदारी और परिश्रम करने की प्रवृत्ति सदैव उसे जीवन में सुपरिणाम लाने के लिए प्रेरित करती रहती है। बस! यह उत्साह सदैव जीवंत रहना चाहिए। भारत के सर्वाेत्कृष्ट तकनीकी, प्रशासनिक व चिकित्सा संस्थानों में जिस प्रकार देश व समाज में कमजोर, गरीब व अभावग्रस्त युवाओं का उभार हो रहा है, वास्तव में वह धरती की महक व भारतीय भाषाओं की पुनर्प्रतिष्ठा का उपक्रम है जिसे अंग्रेजी व अंग्रेजीदां लोग सदा हिकारत की नजर से देखते रहे हैं। दरअसल किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली उस देश के सर्वतोन्मुखी विकास का बहुत बड़ा साधन है। कहने की आवश्यकता नहीं कि देश की आजादी से पूर्व स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े लोग राष्ट्रकी बुनियादी शिक्षा से पूर्ण परिचित थे। उन्हें अपेक्षा थी कि स्वतन्त्र भारत में जो भी महत्वपूर्ण परिवर्तन होंगे, उनमें शैक्षिक परिवर्तन के आधार पर होने वाला सामाजिक परिवर्तन सर्वाेपरि होगा। देश में भारतीय जड़ों से जुड़ी शिक्षा प्रणाली कार्यान्वित होगी तथा औपनिवेशिक मानसिकता में वृद्धि करने वाली विदेशी शासकों द्वारा लादी गयी शिक्षा प्रणाली का अन्त हो जायेगा। इसके साथ-साथ संविधान में भी न्याय की अवधारणा को प्रतिस्थापित करते हुए एक ऐसे कल्याणकारी समाज का निर्माण करने की अपेक्षा की गयी थी जहां सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, राष्ट“्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करता है। संविधान में यह भी स्पष्ट अंकित है कि अगर हमारे नागरिकों में सबसे निर्बल व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएं यदि पूर्ण नहीं होती हैं तो संविधान द्वारा जगाई गई आशायें और आकांक्षाएं झूठी साबित होंगी। परन्तु हमारे पूर्वजों का यह स्वप्न साकार न हो सका।
गुलाम मानसिकता
देश की स्वतंत्रता के पश्चात भले ही ब्रिटिश शासक चले गये, परन्तु गुलामी के शासन में पली व बढ़ी वह पीढ़ी देश की आजादी के बाद भी गुलाम मानसिकता से उबर नहीं सकी। कड़वा सत्य यह है कि जिस अंग्रेजी को अंग्रेजीदां लोगों ने यहां उस शासन-सत्ता के संचालन का महत्वपूर्ण अंग बनाया, देश की आजादी के बाद भी वही अंग्रेजियत भारत की प्रगति और विकास का महत्वपूर्ण अंग बनी रही। परिणामतरू शासक वर्ग ने हिन्दी को पिछड़ेपन और अंग्रेजी को आधुनिकता का प्रतीक बनाकर रख दिया। वास्तविकता यह है कि भाषा केवल संप्रेषण का ही माध्यम नहीं होती, बल्कि उसके गर्भ में उस देश का लोकमन और संस्कृति की परम्परा सुरक्षित रहती है। यदि कोई भाषा अपने ही देश में दीन-हीन की स्थिति में है, तो उसका सीधा-सा अर्थ यह है कि वहां की मूल संस्कृति के साथ में वहां के राष्ट्रसे जुड़ा अहसास भी कमजोर स्थिति में रहेगा। विगत पांच-छह दशकों में अपने देश में ऐसा ही अनुभव किया जा रहा है। भारत जैसे सांस्कृतिक देश में यहां की मूल संस्कृति, संस्कार, मूल्य व आदर्शों को ध्वस्त करने का कार्य यहां अंग्रेजी ने बड़ी चतुराई से किया है। वह कालखण्ड चाहे सामंतवाद का रहा हो अथवा पूंजीवाद का, यहां आमजन के बीच राष्ट्रवाद की भावना तो प्रबल रही, परन्तु यहां का आमजन शिक्षा से दूर ही रहा। यहां का अंग्रेजीदां शासक वर्ग इस सच्चाई से भली-भांति परिचित था कि यदि समाज के इस वंचित वर्ग को इनकी मूल जड़ों से जुड़ी शिक्षा से जोड़ दिया गया तो यही वर्ग उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जायेगा। इसलिए इस वर्ग ने अंग्रेजी को केन्द्र में रखकर उसे शासन-सत्ता के संचालन का मूलमंत्र बना दिया। तत्पश्चात् समाज के आम लोगों में यह संदेश प्रसारित हुआ कि डाक्टर, इंजीनियर तथा भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए अंग्रेजी भाषा ही प्रमुख है। यही कारण रहा कि देश में अंग्रेजी भाषा से जुड़े स्कूल व शिक्षकों की बाढ़ सी आ गयी और हिन्दी भाषा से जुड़े स्कूल अपनी दरिद्रता की कहानी दोहराने के लिए मजबूर होते रहे।
अंग्रेजी के दुर्ग पर प्रहार आज हिन्दी भाषी क्षेत्र के युवाओं ने जिस प्रकार इन प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी के दुर्ग को ध्वस्त किया है उससे आज देश में अंग्रेजी को पुष्पित व पल्लवित करने वाला वर्ग आश्चर्यचकित है। इस घटना का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यहां महंगे अंग्रेजी स्कूलों के छात्रों का प्रवेश आई.आई.टी. जैसे राष्ट“्रीय तकनीकी संस्थानों में नहीं हो पा रहा है, वहीं कम सरकारी शुल्क वाले स्कूलों में पढऩे वाले युवा अपने परिश्रम तथा प्रतिबद्धता के चलते ऐसे सुप्रसिद्ध संस्थानों में दौड़ लगा रहे हैं। देश की आजादी के 63 वर्षों के पश्चात हिन्दी भाषी क्षेत्र का राष्ट्र की मुख्यधारा में यह उभार भले ही आज नगण्य प्रतीत होता है, परन्तु यह इस देश का वह युवा भारत है जो भले ही अभावों से ग्रस्त रहा हो, लेकिन सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयों के वाबजूद भी अपने राष्ट्र के लोकमन से जुड़ा रहा तथा आशावादी दृष्टिकोण से इस अंग्रेजी से जुड़ी अभिजात्य व्यवस्था में ऊपर उठने के स्वप्न संजोये रहा। सच यह है कि युवा छात्रों का यह वह वर्ग है जो उन गांवों से आया है, जहां संसाधनों का अभाव है। कई-कई किलोमीटर जहां सडक़ नहीं है। बिजली जहां इनके लिए दिवा-स्वप्न की तरह है। वैश्विक बाजार से जुड़ी भौतिकता भी इन्हें स्पर्श नहीं कर पायी। लेकिन अपने केरियर निर्माण के लिए इन युवाओं ने परिश्रम के जिस स्वदेशी प्रतिरूप का अनुकरण किया है, वह प्रशंसनीय है। निरूसन्देह इन युवाओं ने जो संदेश दिया है, उसका सीधा-सा अर्थ संसाधनों का रुदन न करते हुए देश की परिश्रमी प्रवृत्ति व ईमानदार सोच को ही जीवन की श्रेष्ठ नीति मानते हुए लक्ष्य को प्राप्त करते जाना है। यही सफलता का मूलमंत्र है। यही अपनी मूल संस्कृति की ओर वापसी के साथ-साथ राष्ट्रव राष्ट्रवाद की जड़ों को सींचना भी है। भारत के लोक संस्कार व लोक मन से जुड़े ऐसे युवा जब देश के प्रशासन की कमान संभालेंगे तो यह विश्वास किया जा सकता है कि तब भारत में सच्चे अर्थों में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होगी।

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