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नया धमाका

11/23/2010

भारतीय संविधान में गांव की कहानी

हमारे संविधान की एक पृष्ठभूमि है और उससे इसका चरित्र झलकता है। यह बहुत ही हड़बड़ी में तैयार किया गया एक दस्तावेज है जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवादी सोच की निरंतरता बनी हुयी है। कैबिनेट मिशन की योजना में नवंबर-1946 में संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव हुआ। स्वतंत्रता अधिनियम के बाद 1947 में यही संविधान सभा संप्रभु हो गई। इस संविधान सभा में ज्यादातर कांग्रेस के सदस्य थे और यह सिर्फ 12 फीसदी भारतवासियों का प्रतिनिध्त्चि कर रही थी, जिसमें अध्सिंख्यक शहरी लोग थे। यह कहीं लिखा हुआ नहीं मिलता, लेकिन मौखिक जानकारी में है कि संविधान का प्रारूप लेकर जवाहर लाल  नेहरू, सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद जब महात्मा गांधी के पास गए तो उन्होंने उसे पलट कर देखने के बाद कहा कि इसमें गांव और पंचायत का कहीं कोई जिक्र नहीं है, जिसका कांग्रेस वादा करती रही है। उसके बाद ही उन्होंने 21 दिसंबर-1947 को हरिजन में लिखा, श्मुझे यह मान्य करना होगा कि मैं संविधान सभा की कार्यवाही समझ नहीं पाया हूंज् (वृत्तांत बताता है) कि सूचित संविधान में पंचायत और विकेंद्रीकरण का उल्लेख नहीं है। हमारी स्वतंत्रता में साधारण आदमी की आवाज को पूरा महत्व मिलना चाहिए। इस कसौटी पर यह कमी हो गई है। इसके प्रति अविलंब ध्यान देना आवश्यक है। पंचायतों के पास जितनी अध्कि सत्ता होगी, उतना ही लोगों की आवाज में बल होगा।्य संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने गांव और पंचायत को संशोधित प्रारूप में शामिल करने के लिए विचारार्थ पहले ही रख दिया था। संविधान के संशोध्ति प्रारूप में भी गांव का जिक्र नहीं था। वह प्रारूप 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में रखा गया। संविधान के प्रारूप पर 4 नवंबर से बहस प्रारंभ हुई। उस समय विवाद का मुद्दा यह था कि आजाद भारत की राजनीतिक संरचना में गांव की उपेक्षा कर दी गई है। उस बहस से यह उजागर हुआ कि सात सदस्यों में सिर्फ डा. भीमराव अंबेडकर ने ही अकेले संविधान का प्रारूप बनाया है। डा. अंबेडकर ने अपना मत साफ-साफ रखा कि श्मुझे इस बात की खुशी है कि संविधान के प्रारूप में गांव शब्द को छोड़ दिया गया है और व्यक्ति को इकाई बनाया गया है।्य संविधान सभा के ज्यादातर सदस्यों ने इस पर अपने-अपने एतराज जताए। उसके बाद एक संशोध्न पेश हुआ। संविधान सभा के सदस्यों को आशंका थी कि डा. अंबेडकर उसे स्वीकार नहीं करेंगे। लोगों को बहुत अचंभा हुआ जब उन्होंने सदन की भावना देख कर कहा कि मैं यह संशोधन स्वीकार कर रहा हूं। डा. भीमराव अंबेडकर ने एक लोकतांत्रिक उदाहरण प्रस्तुत किया। तब कहीं जाकर संविधान में अनुच्छेद 40 का समावेश किया जा सका। फिर भी यह सवाल उठता ही है कि क्या उससे गांव आधारित राजनीतिक प्रणाली पैदा हो सकी? इस संबंध् में 22 नवंबर-1948 को दिया गया टी. प्रकाशम के भाषण का यह अंश महत्वपूर्ण है जो मौजूदा राजनीति के मूल दोष की ओर संकेत करता है। श्डा. राजेंद्र प्रसाद ने पंचायती राज्य को समग्र संविधान का आधार बनाने के पक्ष में मत प्रकट किया है और कुछ दिनों से हम उस कार्य को पूरा करने के लिए प्रयासरत हैंज् संविधान के परामर्शदाता श्री बी. एन. राव ने इस संदर्भ में सहानुभूति प्रदर्शित की, परंतु उन्होंने ध्यान आकर्षित किया कि संविधान का आधार परिवर्तित करने के प्रयास में अध्कि विलंब हो गया है, क्योंकि हम बहुत आगे निकल गए हैं। मैं भी इस बात से सहमत हूं कि यदि कोई भूल हुई है तो वह हमसे हुई है, हम पूरे सतर्क नहीं रहे और इस विषय को समय पर सदन के सामने प्रस्तुत नहीं कर पाए। इतने विलंब से यह विषय सदन के सामने आने से संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में डा. अंबेडकर उसको स्वीकार करेंगे, ऐसी आशा मुझे नहीं थीज्.. ग्रामीण इकाई को संविधान का वास्तविक आधार नहीं बना पाने के परिणामस्वरूप गंभीर स्थिति पैदा हुई। पूर्ण अवलोकन के बाद मानना पड़ेगा कि यह एक ऐसी संरचना है जो शिखर से आरंभ होकर नींव तक जाती है। डा. राजेंद्र प्रसाद ने सूचित किया था कि (संविधान का) ढांचा नींव से आरंभ होकर ऊपर की ओर जाना चाहिए।श् संविधान की तरह मौजूदा राजनीति का पिरामिड भी उल्टा ही है। जिस संविधान से यह राजनीतिक संरचना निकली है उसमें यही संभव है।
(यह आलेख वृंदावन में बांटे गए एक पर्चे पर आधारित है।)

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