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नया धमाका

8/04/2014

भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी की कालिख


लोकतंत्र में यदि तंत्र की भाषा लोक से भिन्न हो जाए तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है. संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली ‘सिविल सेवा परीक्षा’ में भाषाई आधार पर भेदभाव के जो आरोप सामने आ रहे हैं उसने अंग्रेज़ी मानसिकता की वर्चस्ववादी नीति और भारतीय भाषाओँ की दुर्दशा पर एक बार पुनः विचार करने की चेतावनी दी है. लोक की सेवा किस भाषा में की जाए यदि यह बताने के लिए इस देश के युवाओं को आमरण अनशन पर बैठना पड़े तो देश के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? पिछले दिनों दिल्ली, इलाहाबाद, बनारस, गुवाहाटी, तमिलनाडू, आदि राज्यों में छात्र जब अपनी भाषा में रोज़गार के हक़ के लिए सड़कों पर प्रदर्शन करते नज़र आये तो व्यापक बहस छिड़ी कि भारतीय संविधान में उल्लिखित भाषाओँ की असल स्थिति आखिर है क्या? क्या प्रशासन की भाषा अंग्रेज़ी होना अनिवार्य है? सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओँ की अनदेखी पर जिस तरह देश भर में प्रदर्शन हुए उसने अंग्रेज़ी की अनिवार्यता से भारतीय भाषाओं पर उपजे संकट को चंद रोज़ में उजागर कर दिया.
डॉ दौलत सिंह कोठारी की अनुशंसाओं के आधार पर वर्ष 1979 में सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं में भी उत्त र देने की छूट दी गई थी। लेकिन 2011 से लागू नई परीक्षा पद्धति के बाद भारतीय भाषाएँ अंग्रेज़ी के वर्चस्व से हाशिये पर आ गई. नई प्रणाली में प्रारंभिक परीक्षा के अंतर्गत एक पेपर सामान्य अध्ययन और दूसरा सिविल सर्विसिज़ एप्टिट्यूड टेस्ट यानी सी-सैट का होता है. हिंदी माध्यम छात्रों के लिए यही दूसरा पेपर परेशानी का सबब बना हुआ है. 2011 से पहले हिंदी सहित भारतीय भाषाओँ में प्रारंभिक परीक्षा पास कर मुख्य परीक्षा लिखने वाले छात्रों की संख्या जहां लगभग पचास प्रतिशत हुआ करती थी वह सी सैट आने के बाद घटकर मात्र पन्द्रह से बीस प्रतिशत रह गई है. यदि अंतिम चयनित अभ्यर्थियों की संख्या देखें तो 2011 से पूर्व अंतिम चयनित सूची में भारतीय भाषाओँ के उम्मीदवारों की हिस्सेदारी पंद्रह से बीस फ़ीसदी हुआ करती थी जो अब केवल 2 से 3 प्रतिशत ही बची है. इस वर्ष के घोषित परिणामों में 1122 छात्रों में हिंदी माध्यम के केवल 26 और अन्य भारतीय भाषाओँ को मिला लिया जाए तो भी यह संख्या सौ का आँकड़ा नहीं छूती. यदि पिछले तीन वर्षों के परिणामों को तीनों चरणों में अलग अलग देखा जाए तो भारतीय भाषाओँ से आए उम्मीदवारों की चयन संख्या में अविश्वसनीय ह्रास देखने को मिलता है. यह आंकड़े प्रमाणित करते हैं कि नई परीक्षा पद्धति भारतीय भाषाओँ पर भारी पड़ रही है.
अब आइये ज़रा इस नई प्रणाली के दूसरे पेपर ‘सी-सैट’ पर नज़र डालते हैं जिससे यह स्थिति और साफ़ हो जाएगी. इस दूसरे पेपर में परिच्छेद यानी कॉम्प्रिहेंशन, निर्णयन क्षमता, समस्या समाधान, रीज़निंग, गणित आदि के 80 सवाल होते हैं और प्रत्येक प्रश्न ढाई अंक का होता है. छात्रों की परेशानी मूल रूप से इस प्रश्नपत्र में पूछे जाने वाले गद्यांश के प्रश्नों से है जिनकी संख्या चालीस से अधिक होती है. इन चालीस-बयालीस प्रश्नों में आठ से नौ अंग्रेज़ी के अनिवार्य प्रश्न हैं जिनका अंकभार बीस से बाईस होता है. वहीँ गद्यांश के बाक़ी बचे प्रश्न मूल रूप से अंग्रेज़ी में बनाये जाते हैं जिनका अनुवाद हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए किया जाता है. यदि यह अनुवाद सरल हिंदी में होता तो किसी को आपत्ति नहीं होती लेकिन यह अनुवाद इतना जटिल और संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरा होता है कि इसे पढ़ना और समझना किसी अन्य लोक के प्राणी होने का आभास दिलाता है. नमूने के तौर पर यह प्रश्न देखिये- ‘संगठनात्मक प्रबंधन और प्रतिकार के माध्यम से कर्मचारियों द्वारा ऊपरिमुखी प्रभाव प्रयास के माध्यम से अनुसरण किए जा रहे मनोवैज्ञानिक संविदा की क्या प्रकृति होती है?’
दावे के साथ कह सकते है कि हिंदी के विद्वान भी जब ऐसी अनूदित हिंदी पढेंगे तो कई बार पढ़ना पर भी इस अबूझ दुनिया को समझ सकेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं. फिर कैसे हिंदी माध्यम का छात्र दो घंटे के निश्चित समय में ऐसे ‘दिव्य’ अनूदित गद्यांश पढ़कर इन प्रश्नों संग अन्य प्रश्नों के भी उत्तर दे सकता है? चूंकि यह गंद्यांश मूल रूप से अंग्रेज़ी में होते हैं इसलिए किसी भी अंग्रेज़ी भाषी छात्र के लिए इन्हें समझना आसान होता है. यहाँ तक कि उत्तर भी अंग्रेज़ी प्रश्नों के अनुरूप ही जांचे जाते है. अब फर्ज़ कीजिए यदि हिंदी में अनुवाद ग़लत हो जाए और परीक्षार्थी उसी अनुवाद के अनुसार उत्तर दे तो न केवल उसका उत्तर ग़लत माना जायेगा बल्कि ऋणात्मक अंक कटौती भी होगी. इतना बड़ा खेल ग़ैर अंग्रेज़ी भाषियों के साथ ही क्यों? क्या यूपीएससी की नज़र में अंग्रेज़ी छोड़ किसी भाषा में ऐसा कुछ नहीं लिखा जाता जिसे मूलरूप से प्रश्नपत्र में शामिल किया जा सके? क्या भारतीय भाषाओँ का अस्तित्व केवल अनुवाद पर ही टिका है? और यदि अनुवाद होता भी है तो इतना तकनीकी और घोर अनुवाद ही क्यों जिसमें न्यूक्लीयर प्लांट को नाभिकीय पौधा लिखा जाए. आयोग की सुषुप्तावस्था का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि पिछले तीन वर्षों से ऐसे अबूझ अनुवादों से लैस प्रश्नपत्रों में उसे कुछ ग़लत नज़र नहीं आया.
दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है अंग्रेज़ी की अनिवार्यता. इस पेपर के पाठ्यक्रम में कहा गया कि 8 से 9 प्रश्न यानी बीस से बाईस अंकों के प्रश्न दसवीं तक की अंग्रेज़ी के होंगे. सवाल है कि यह कैसे तय होगा और क्या प्रमाण है कि दिया गया परिच्छेद दसवीं तक की अंग्रेज़ी का ही है? और यदि है तो क्या अंग्रेज़ी माध्यम के लिए यह बीस अंक मुफ़्त में बांटने जैसा नहीं? वहीँ ग्रामीण परिवेश का छात्र इन अंकों के लिए संघर्ष करता है. ग़ैर अंग्रेज़ी भाषी छात्र इसके लिए संघर्ष करने को तैयार भी हैं लेकिन यह संघर्ष एक तरफ़ा ही क्यों? क्या सिविल सेवक बनने के लिए केवल अंग्रेज़ी भाषा का परिचय देना अनिवार्य है? यदि नहीं तो अंग्रेज़ी की तरह अंग्रेज़ी भाषियों के लिए क्यों हिंदी या अन्य भारतीय भाषा की परिचयात्मक जांच अनिवार्य प्रश्नों के साथ नहीं की जाती? छात्रों का विरोध अंग्रेज़ी भाषा से कभी नहीं रहा. यदि ऐसा होता तो मुख्य परीक्षा में अंग्रेज़ी के तीन सौ नंबर के अनिवार्य पेपर को हटाने के लिए भी आन्दोलन हुए होते जिसमें अनुत्तीर्ण होने पर मुख्य परीक्षा की कॉपियां की जांच तक नहीं होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसका कारण इसका क्वालिफाइंग होना है और यह अनिवार्यता अंग्रेज़ी, ग़ैर अंग्रेज़ी सभी माध्यम के छात्रों के लिए है कि उन्हें अंग्रेज़ी संग किसी एक भारतीय भाषा में क्वालीफाई करना होगा. प्रारंभिक परीक्षा में इसके विरोध का मुख्य आधार मेरिट में इसके नम्बर जुड़ना है, जो एक बड़ा अंतर पैदा करता है. और फिर अभ्यर्थियों को जब भाषा का परिचय मुख्य परीक्षा में देना ही है तो प्रारंभिक चरण में इसकी अनिवार्यता क्यों?
यह बड़ी आश्चर्यजनक स्थिति है कि संघ लोक सेवा आयोग जैसी संवैधानिक संस्था ग्लोबल बनने के लिए अपनी भाषाओँ से समझौता करने को तैयार है. यह सही है कि वर्तमान दौर में अंग्रेज़ी का ज्ञान होना आवश्यक है लेकिन यूपीएससी की वर्तमान प्रणाली कामचलाऊ जानकारी की जगह अंग्रेज़ी में सिद्धस्त होने की मांग पर ज़ोर दे रही है जिससे भारतीय भाषाओँ में रोज़गार पाना कठिन हो चला है.
जिस देश के पिछड़े इलाकों के विद्यालयों में शिक्षक की योग्यता ही सवालों के घेरे में हो, जहाँ ग़रीब तबका अपने बच्चों को महंगी अंग्रेज़ी शिक्षा दिला सकने सक्षम नहीं है, वहां छात्रों से अंग्रेज़ी की अनिवार्य मांग कैसे की जा सकती है? 2012 में यूपीएससी की ही निगवेकर समिति ने इस बात को रेखांकित किया था कि यह नई परीक्षा प्रणाली में ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों के लिए उपयुक्त नहीं है. यह परीक्षा शहरी क्षेत्र के अंग्रेज़ी माध्यम के छात्रों को फायदा पहुंचती है. लेकिन इसके बावजूद आयोग ने इस प्रणाली की ख़ामियों पर विचार नहीं किया. क्या प्रतिष्ठित सेवाओं के लिए ऐसा प्रारूप आवश्यक नहीं जिसे अपने देश की शिक्षा प्रणाली को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए? छात्रों की स्पष्ट मांग भी यही है. लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता को यह कहकर सही ठहराया जाता है कि यदि आपकी पोस्टिंग ग़ैर हिंदी भाषी राज्य में होती है तब आप क्या करेंगे? भाषा के सन्दर्भ में कोई भी व्यक्ति यह बता सकता है कि भाषा कोई अनुवांशिकी या जैविक प्रक्रिया नहीं है बल्कि इसका अर्जन और सर्जन एक सामाजिक प्रक्रिया है. जब किसी दक्षिण भारतीय अधिकारी का तबादला हिंदी भाषी क्षेत्र में होता है तो कुछ ही समय में उसकी मित्रता हिंदी से हो जाती है और भाषा संग वह खेलने लगता है. ठीक यही बात हिंदी भाषी व्यक्ति के दक्षिण जाने पर भी लागू होती है फिर क्यों परीक्षा में अंग्रेज़ी का ख़ाका विशेष रूप से खींच दिया गया है कि उसका ज्ञान पहले से आवश्यक है.
दिल्ली के मुखर्जी नगर से उठे इस आन्दोलन ने सिविल सेवा के माध्यम से, देश को यह सोचने पर बाध्य किया है कि अधिकारी की संवाद भाषा और लिखित भाषा क्या हो? काग़ज़ पर नोटिंग किस भाषा में हो यह उतना ही महतवपूर्ण है जितना वंचित तबके से उसकी भाषा में संवाद स्थापित करना. क्या कलम कि भाषा बोलचाल की भाषा से अलग होनी चाहिए या केवल नोटिंग की भाषा ज़्यादा अहमियत रखती है? आयोग को अब इस पर विचार करना होगा. साथ ही भाषा और रोज़गार का सम्बन्ध क्या हो यह भी एक बड़ा प्रश्न सामने आया है. क्या हमारी भाषाओँ में इतना सामर्थ्य है या उन्हें इतनी ताक़त सौंपी गई है कि उनमें अपना भविष्य सुरक्षित रखा जा सके? कोई भी भाषा केवल अपने साहित्य के दम पर ज़िन्दा नहीं रह सकती, न ही चंद पुरस्कार शुरू कर युवाओं को उनकी ओर आकृष्ट किया जा सकता है, इनकी दीर्घायु के लिए इन्हें रोज़गार की भाषा बनाना आवश्यक है. सिविल सेवा अभ्यर्थी भले ही सी-सैट को लेकर विरोध कर रहे हों लेकिन सी-सैट के आलोक में भाषाई संकट की ओर जो इशारा हो रहा है उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. इस देश की सरकार को अब यह समझना होगा कि जो भाषा रोज़गार की भाषा, तकनीक की भाषा, बाज़ार की भाषा नहीं बनेगी तो उसका मरना निश्चित है. फिर चाहे उसमें कितने ही महाकाव्य लिखे हों, कितनी ही पत्रिकाएँ निकली हों, सरकारी विभाग बने हो, आप उसे भाषाई सप्ताह मनाकर और जोहानेसबर्ग या मॉरिशस में सम्मलेन कराके बचा नहीं सकते.
 

फोटोग्राफर ने बना दिया 'हिन्दू हमलावर'


फोटोग्राफर ने बना दिया 'हिन्दू हमलावर'
आशीष कुमार अंशु
तस्वीरों में वे गुजरात के हिन्दू हमलावरों के प्रतीक हैं। दोनों हाथ की बंधी हुई मुट्ठियां हवा में लहराते हुए गुस्से से चिल्लाते हुए मानों वह शख्स सीधे दुश्मनों को ललकार रहा है। उसके हाथ में लोहे की एक मोटी छड़ या राड उसके इरादे को और खतरनाक बना रहा है। जाहिर है, गुजरात दंगों के दौरान जो कुछ हुआ उसे इस एक फोटो के जरिए सबसे बेहतरीन तरीके से परिभाषित कर दिया गया। लेकिन खुद यह फोटो गुजरात दंगों से कितना जुड़ी हुई थी? क्या सचमुच वह नौजवान जो हाथों में लोहे की रॉड लिए ललकार रहा था, वह कोई 'हिन्दू दंगाई' था?
अहमदाबाद के शाहपुर रोड पर सड़क के किनारे पटरी पर लगी मोची की एक छोटी सी दुकान। तस्वीरों में नजर आनेवाला वह 'हिन्दू दंगाई' बीते बीस सालों से इसी दुकान पर बैठकर लोगों के जूते ठीक कर रहा है। उसके पास आज भी मोबाइल नहीं है और जो उनसे मिलना चाहते हैं उन्हें सीधे इनकी पटरी पर सजनेवाली दुकान पर ही आना पड़ेगा। हम भी वहां पहुंचे तो हमें जूते पालिश करते हुए जो सज्जन मिले उनका नाम अशोक परमार था। वही अशोक परमार उर्फ अशोक मोची जो देश दुनिया में हिन्दू दंगाइयों के प्रतीक चिन्ह बन गये थे। और प्रतीक चिन्ह भी ऐसे कि हिन्दू आतंकवाद को परिभाषित करने के लिए उन्हें सिर्फ फोटो तक सीमित नहीं रखा गया बल्कि कार्यक्रमों में भी निमंत्रित किया जाने लगा, ताकि उनकी आमने सामने पहचान करवाई जा सके।
इसी साल मार्च के महीने में सीपीएम के मंच पर एक किताब के लोकार्पण के दौरान भी अशोक मौजूद थे। लोकार्पण के बाद इस खबर को जिन पत्रकारों ने लिखा, लगभग सभी ने अपनी खबरों में अशोक को गुजरात 2002 का हमलावर कहकर संबोधित किया। बारह साल बाद भी अशोक की पहचान और छवि जरा भी नहीं बदली थी। ऐसा इसलिए क्योंकि अशोक की तस्वीर ने देश दुनिया के जेहन में यह बात बिठा दी थी कि यह व्यक्ति हिन्दू चरमपंथ का जीता जागता प्रतीकचिन्ह है। अब अशोक के साथ विडम्बना यह है कि उसकी तस्वीर देश की बड़ी-छोटी सभी तरह की पत्रिकाओं ने इस्तेमाल की लेकिन किसी ने गुजरात 2002 के संबंध में उससे बात करने की कोशिश नहीं की। अशोक आज तक पत्र-पत्रिकाओं में गुजरात 2002 के हमलावर के तौर पर छप रहे हैं और छपते जा रहे हैं। अशोक का इस संबंध में कहना है- मेरा कसूर सिर्फ इतना था कि मैं एक बड़े फोटो पत्रकार सब्सटीन डिसूजा के सामने तस्वीर के लिए पोज देने को तैयार हो गया था। अब अपना फोटो अखबार में आएगा, यह अच्छा लगता है ना! लेकिन इस तस्वीर से डिसूजा को ईनाम मिला और मुझे थाने के चक्कर लगाने पड़े। हजारों रुपए का नुक्सान हुआ अलग। बिना गलती के जो मुझे जानते तक नहीं थे, वे लोग भी मेरे दुश्मन हो गए। मुझसे नफरत करने लगे।
अशोक कुमार की तस्वीर उन लोगों को जरूर याद होगी, जिन्होंने 2002 में गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों खबरों पर नजर रखी होगी। सिर पर भगवा कपड़ा बांधकर और हाथों में सरिया लिए अशोक की तस्वीर गुजरात दंगों की प्रतिनिधि तस्वीर बन गई थी। इस तस्वीर के बैकग्राउन्ड में आग भी नजर आती है। जिससे लोगों का संदेह पक्का होता है कि अशोक दंगाई था। कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने उसे बिना किसी प्रमाण के बजरंग दल का सदस्य और अधिकारी भी लिख दिया। अहमदाबाद के शाहपुर रोड पर अशोक कुमार ने बीस साल पहले जब जूता पॉलिस करने का काम शुरू किया था, उसके कुछ दिनों बाद ही माता-पिता नहीं रहे। मोहब्बत हुई लेकिन शादी नहीं हो पाई। भाई से रिश्ता बिगड़ा तो घर छोड़कर सड़क पर आ गए। चाहते तो भाई से जायदाद के लिए लड़ सकते थे लेकिन उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। 2002 में भी वे होटल में खाते थे, और जहां जूता पॉलिस करते, उससे थोड़ी दूरी पर चादर बिछाकर सो जाते थे। लेकिन गुजरात दंगों के दौैरान मीडिया मेें उनकी तस्वीर इस तरह दिखाई गई मानों वे बजरंग दल के कोई बड़े नेता हों। जबकि हकीकत में अशोक बाबा साहेब अंबेडकर के अनुयायी हैं। बकौल अशोक - ‘बाबा साहब के स्वतंत्रता, समता और बंधुता की जो आदर्श नीति है, मेरा उस पर गहरा यकीन है।’ जाहिर है, अशोक से इस सवाल का जवाब जानना जरूरी था कि जब उनकी साम्प्रदायिक दंगों में कोई भूमिका नहीं थी फिर उनकी आक्रामक तस्वीर आई कैसे?
अशोक पूरी कहानी विस्तार से बताते हैं। जिस दिन की अशोक की तस्वीर ली गई थी, उसके एक दिन पहले गोधरा कांड हुआ था। अगले दिन विश्व हिन्दू परिषद ने पूरे गुजरात में बंद का आह्वान किया था। अशोक ने अखबार में पढ़ा था सो उसने अपनी दूकान बंद कर दी थी। वे अपने पड़ोस में नजीर भाई की गैरज में बैठे थे। दस-साढ़े दस बजे हो हल्ला शुरू हो गया। दुकानें तोड़ी जाने लगी। अशोक चूंकि नजीर भाई की दुकान में बैठे थे सो वे भी घेर लिए गए। उन्होंने बड़ी मिन्नते की और मुश्किल से समझा पाए कि वे एक हिंन्दू हैं और पास ही उनके जूता पॉलिस की दूकान है। अशोक को पूरे दिन सड़क पर रहना था, अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी की वहज से वे आम मुसलमानों की तरह दिख रहे थे। सिर छुपाने के लिए जब उनके पास छत नहीं थी, उस वक्त गर्दन बचाने लिए उन्हें सिर पर भगवा कपड़ा बांधना बेहतर विकल्प लगा। ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक जब अहमदाबाद की सड़कों पर भीड़ उग्र हो गई, उन्होंने सिर पर भगवा कपड़ा बांध कर चॉल की तरफ भागना बेहतर समझा।
भीड़ से निकलते हुए एएफपी के प्रसिद्ध फोटो पत्रकार सब्सटीन डिसूजा (जो आजकल मुम्बई मिरर अखबार में हैं) की नजर अशोक पर पड़ गई। बाद के दिनों में सब्सटीन ने अजमल कसाब की चर्चित तस्वीर ली। उस तस्वीर पर भी बेहद संगीन आरोप लगे हैं। उन्हीं डिसूजा ने अशोक की भी तस्वीर ली। तस्वीर लिए जाने की कहानी और भी दिलचस्प है। अशोक कहते हैं कि डिसूजा ने उनसे पूछा- गोधरा में जो हुआ, उस पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है? अशोक ने उन्हें जवाब दिया- गोधरा में जो हुआ, वह गलत है लेकिन अब जो पब्लिक कर रही है, वह भी सही नहीं है। अशोक ने डिसूजा को यह भी बताया कि 'गोधरा में जो मुसलमानों ने किया, वह इस्लाम की सीख नहीं है। और अहमदाबाद में जो हिन्दू कर रहे हैं, वह हिन्दू धर्म नहीं सिखाता।'
डिसूजा ने बातचीत में अशोक को इस बात के लिए राजी कर लिया कि जो गोधरा में हुआ, उसके लिए हिन्दुओं के मन में जो आक्रोश है, वह अशोक अपने चेहरे से प्रदर्शित करें। अशोक की तस्वीर जो गोधरा में हुआ, उसके खिलाफ आक्रोश की तस्वीर के तौर पर ली गई और पूरी दुनिया में गोधरा के प्रतिशोध की प्रतिनिधि तस्वीर बन गई। जबकि यह तस्वीर गोधरा के अगले ही दिन सुबह ग्यारह बजे की है, जबतक कोई नहीं जानता था कि यह साम्प्रदायिक दंगे, इतना भयानक रूप लेने वाले हैं। ना इस बात का अंदाजा अशोक को था और ना ही डिसूजा को रहा होगा।
अशोक कहते हैं- मैं इंसान हूुं, किसी की जान जाते हुए देखकर मेरा दिल भी रोता है। आज मुझे पूरी दुनिया में एक खलनायक बना दिया गया है। मेरे सिर वह गुनाह लिख दिया गया, जो गुनाह मैने किया ही नहीं। अशोक कहते हैं- मुझ पर यकीन करने की जरूरत नहीं है। आप आस-पास के मुस्लिम मोहल्ले में जाकर बात कीजिए। आपको इस बात की जानकारी हो जाएगी। अशोक कहते हैं- ''यदि मुझे पता होता कि साम्प्रदायिक दंगे इतने फैल जाएंगे तो मैं कभी तस्वीर नहीं देता। तस्वीर वाली सुबह तक हालात इतने नहीं बिगड़े थे और ना तस्वीर देते हुए मुझे अंदाजा था कि सबकुछ इतना खराब हो जाएगा।''
अशोंक बताते हैं कि दंगों के दौैरान उन्होने कई मुसलमानों की जान बचाई। उन्हें एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने में मदद की। शायद यही कारण रहा कि उनकी तस्वीर का असर शाहपुर रोड के आस-पास स्थित मुस्लिम मोहल्लो पर बिल्कुल नहीं था। वे अशोक को जानते थे। वे आज भी अशोक के ग्राहक हैं। लेकिन इस तस्वीर की वजह से वे लोग अशोक से नफरत करने लगे, जो उन्हें जानते नहीं थे। दंगों के दो-तीन महीने बाद ही उन पर नकाबपोश अज्ञात हमलावरों ने जानलेवा हमला किया। उन पर गोली चली। हालांकि इसके बाद भी अशोक ने अज्ञात हमलावरों के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं किया। बकौल अशोक- ‘हमलावर मुझे गुजरात दंगों में मुसलमानों का हत्यारा समझ रहे हैं, मैं जानता हूं कि जब उन्हें सच्चाई पता चलेगी, अपने किए पर उन्हें पछतावा होगा।'
जाहिर है, जब अशोक ने कोई अपराध नहीं किया है तो एक निर्दोष को अपराधी की तरह पेश करने का अपराध फोटोग्राफर सब्सटीन डिसूजा से हुआ है। इस संबंध में जब हमने डिसूजा से फोन पर बात की तो डिसूजा का कहना है कि बारह साल बाद इस मामले में बात करने के लिए कुछ नहीं रह गया है।
बहरहाल, अशोक पिछले 12 सालों से उस गुनाह की सजा भुगत रहे हैं, जिसके लिए उन्हें न्यायालय भी दोषी नहीं मानता। अशोक का सच अब समाज के सामने है। अब इस देश के मीडियाकर्मियों को एक बार जरूर विचार करना चाहिए कि अपने काम काज के दौरान वे कितने बेगुनाहों को समाज की नजर में अशोक की ही तरह गुनहगार बना देते हैं? बारह सालों से अशोक सामाजिक अपमान झेल रहे हैं, एक ऐसे अपराध के लिए जो उन्होंने किया ही नहीं। इस बात की गवाही वे सभी लोग देने को तैयार मिलेंगे, जो अशोक को जानते हैं। इनमें हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी। तब सवाल यह उठता है कि अशोक ने एक अपराधी की छवि के साथ जो बारह साल बिताएं हैं, उनकी जिन्दगी के वे बारह साल उन्हें कौन लौटाएगा?

फ्रांसिस डिसूजा की क्षमा – हिन्दूराष्ट्र मुद्दे के वध-उत्सव का दुष्प्रयास


फ्रांसिस डिसूजा की क्षमा – हिन्दूराष्ट्र मुद्दे के वध-उत्सव का दुष्प्रयास
 प्रवीण गुगनानी
 
दुःख, शर्म, खेद, विडम्बना और नयन नीचे कि गोवा के उप मुख्यमंत्री ने हिन्दू राष्ट्र वाले मुद्दे पर क्षमा मांग ली और हिन्दू राष्ट्र के मुद्दे का एक आगे बढ़ा एक कदम कई कदम पीछे आ गया. यद्दपि विचार के उन्नयन क्रम में ऐसे उतार चढ़ाव आते रहते हैं, इसलिए इस क्रम को भी विचार के उन्नयन का ही अंश माना जाना चाहिए, तथापि स्वीकार करना ही होगा कि सदा कि तरह इस देश में निरीह होते जा रहे राष्ट्रवादियों को बाहुबली राजनैतिक खूंखार किन्तु निर्चत्न्य, संवेदनाहीन शेरों का पुनः शिकार बनना पड़ा. यहां स्वीकारोक्ति देना होगी कि फ्रांसिस डिसूजा तो अपने कहे पर दृढ़ और टिके रहे किन्तु उनकी अपनी पार्टी ही यू-टर्न मार गई. यह भी स्वीकार करना होगा कि उन्हें इस मुद्दे पर भाजपा के समर्थन की भी आवश्यकता नहीं थी; उन्हें देश, समाज और विचार का सतत समर्थन मिल रहा था; भाजपा को केवल कुछ दिन मौन रहना था और पहले इस मुद्दे पर समाज और देश की आवाज को सामने आने देना था. फ्रांसिस डिसूजा ने जो कहा वह चतुर्दिक प्रभाव करने वाला व्यक्तव्य था और “प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की पिछले वर्ष की उस स्वीकारोक्ति का विस्तार ही था कि वे एक हिन्दू राष्ट्रवादी हैं”.
 
एक ईसाई हिन्दू की इस युगीन स्वीकारोक्ति कि “भारत पूर्व से हिन्दू राष्ट्र है” पर पीछे हटने के स्थान पर न्यायालय की शरण में जाना चाहिए था, उन राजनैतिक दलों के विरुद्ध जिन्होंने इस विषय पर चर्च का आह्वान करते हुए एक व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर हमला किया, चर्च के फादर से निवेदन करते हुए और साम्प्रदायिकता फैलाई. इस देश के एकाधिक उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय से सिद्ध हो चुकी यह अवधारणा कि हिन्दू एक अ-साम्प्रदायिक शब्द है के आलोक में फ्रांसिस डिसूजा की व्यक्तिगत और धार्मिक स्वतंत्रता के हनन और साम्प्रदायिता पूर्वक चर्च से राजनैतिक दलों के सार्वजनिक संवाद पर इस देश का तथाकथित बुद्धिजीवी मीडिया और उसके पूर्वाग्रही एंकरों का दायित्व बोध विलोपित क्यों हुआ? कई सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं और इतिहास जिनका जवाब भी मांगेगा और जिम्मेदारियों और दायित्वों पर अनावश्यक बैठे लोगों की एकाउंटिंग भी करेगा! भाजपा के टीवी बहसबाज भी इस बहुप्रतीक्षित, संवेदनशील, महत्वाकांक्षी पर बिना तैयारी के आये और पूर्वाग्रही टीवी एंकरों के शिकार हो गए. आज आवश्यक हो गया है कि देश, समाज और विचार के मुद्दों पर इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों, पूर्वाग्रही टीवी एंकरों और तथाकथित बुद्धिजीवियों की बात को ही नहीं बल्कि देशज, देहाती और राष्ट्रवादी स्वरों को भी मीडिया मुखर करें और स्थान दे; समय की मांग तो यही है. टीवी के समक्ष चार व्यक्तियों का बैठ जाना और थोथा चना बाजे घना की तर्ज पर प्रत्येक राष्ट्रवादी विचार का वध-उत्सव आयोजन बंद किया जाना चाहिए या फिर इस क्रम को कम से कम बहिर्मुखी होकर समाज की आवाज को सुननें और उसे मुखर करने के सामाजिक और पेशा आधारित दायित्वों को सदाशयता से निभाना चाहिए. हुआ यह कि गोवा की भाजपा नीत सरकार के मंत्री दीपक धवलीकर ने कह दिया कि पीएम नरेन्द्र मोदी को लोग समर्थन करेंगे तो भारत हिन्दू राष्ट्र बन सकता है.
 
इतना कहने पर जब मीडिया और विपक्षी राजनैतिक दलों ने धवलीकर को घेरना प्रारम्भ किया तो उनकें बचाव में गोवा के मुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूजा उतर आये. फ्रांसिस डिसूजा ने बेहद बौद्धिक और साहसिक व्यक्तव्य देकर अपनी मिट्टी का कर्ज उतारने का सराहनीय प्रयास किया कि मैं एक ईसाई हिन्दू हूं और यह राष्ट्र पहले से ही एक हिन्दू राष्ट्र है! डिसूजा के इस व्यक्तव्य के बाद तो जैसे मीडिया, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने तलवारें ही खींच ली. इस मुद्दे पर कांग्रेस सहित सभी विपक्षी नेताओं ने परम्परा से एक कदम आगे जाकर राजनीति को शर्मसार किया और बाकायदा सार्वजनिक तौर पर गोवा चर्च को परामर्श दे डाला कि चर्च डिसूजा के ईसाई हिन्दू होने पर स्पष्टीकरण मांगे और उन्हें धर्म भ्रष्ट घोषित कर दे. सेकुलर तो सदा कि तरह हावी होने का प्रयास करते दिखे किन्तु इस मुद्दे पर टीवी और अन्य बहसों चर्चाओं में भाजपा के नेता रक्षात्मक भूमिका में आकर बैकफूट पर सरकते दिखने लगे तो आश्चर्य हुआ. शह पाकर गोवा चर्च के एक फादर ने सार्वजनिक बयान दिया कि हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न देखने वाले इन दोनों नेताओं पर सरकार को कार्यवाही करना चाहिए और इस देश से इन्हें निष्काषित कर दिया जाना चाहिए!! प्रश्न यह है कि यह हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा है क्या? इस देश के प्रधानमन्त्री निर्वाचित हो चुके नरेन्द्र मोदी ने पिछले वर्ष ही सार्वजनिक सभा में स्वयं को हिन्दू राष्ट्रवादी घोषित किया था. नरेन्द्र मोदी ने समय समय पर उनकी स्वयं की धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को भी देश के सामनें रखा और बताया है उनकें लिए धर्मनिरपेक्षता या किसी अन्य सिद्धांत का एक ही मतलब है- नेशन फर्स्ट – राष्ट्र सर्वोपरि. भाजपा या आरएसएस का यह हिन्दू राष्ट्र का विचार कोई नया नहीं है बल्कि पांच हजार वर्षों के इतिहास से प्रवाहित होकर हम तक आता हुआ इस देश की मिट्टी का मूल विचार है. यह इस देश के आदर्श पुरुष स्वामी विवेकानंद के मुखारविंद से इस प्रकार उच्चारित होता हुआ भी आया है कि “हिंदू होने का मुझे अभिमान है. हिंदू शब्द सुनते ही शक्ति का उत्साहवर्धक प्रवाह आपके अंदर जागृत हो तभी आप सच्चे अर्थ में हिंदू कहने लायक बनते हैं.
 
आपके समाज के लोगों में आपको अनेक कमियॉ देखने को मिलेंगी किन्तु उनकी रगों में जो हिंदू रक्त है उस पर ध्यान केन्द्रित करो. गुरु गोविंदसिंह के समान बनो. हिंदू कहते ही सब संकीर्ण विवाद समाप्त होंगे और जो जो हिंदू है उसके प्रति सघन प्रेम आपके अंत:करण में उमड़ पड़ेगा”. अब इस देश ने मोदी को स्पष्ट बहुमत के साथ प्र.म. बनाकर उनकी हिन्दू राष्ट्रवादी होनें की स्वीकारोक्ति को प्रमाणित भी कर लोकतांत्रिक ठप्पा भी लगा दिया. हिन्दू शब्द के इस अर्थ से संभवतः सेकुलरों को उनकें इस शब्द पर फैलाए वितंडावाद के अर्थ अनर्थ समझ में आ जायेंगे- “कृहिन्सायाम दुस्य्ते या सा हिंदू” अर्थात जो अपने मन वचन कर्मणा से हिंसा से दूर रहे वह हिंदू है. यहां हिंसा की परिभाषा को भी समझें- जो मनसा,वाचा,कर्मणा से अपने हितों के लिये दूसरों को कष्ट दे वह हिंसा है. लोकमान्य तिलक ने इसी सन्दर्भ में कहा है असिंधो सिन्धुपर्यंत यस्य भारत भूमिका पितृभू पुण्यभूश्चेव स वै हिंदू रीति स्मृतः -अर्थात जो सिंधु नदी के उद्गम से लेकर हिंद महासागर तक रहते है व इसकी सम्पूर्ण भूमि को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि मोक्षभूमि मानते हैं, वे हिंदू हैं. समय समय पर इस देश की न्यायपालिका ने भी दसियों प्रकरणों में कहा है कि हिन्दू साम्प्रदायिक शब्द नहीं है यह मात्र एक जीवन पद्धति है. तो क्या न्यायालय द्वारा हिन्दू शब्द का समझाया गया यह अर्थ भी इस देश के ये तथाकथित राजनैतिक दल नहीं मानेंगे ? मोदी ने स्वयं को हिन्दू राष्ट्रवादी कहकर इस देश के मूल विचार ही आगे बढ़ाया है और फ्रांसिस डिसूजा ने नरेन्द्र मोदी का ही अनुसरण किया है तो इसमें गलत क्या है? और इस देश को अपनी मातृभूमि और पितृभूमि मान लेनें भर की योग्यता से हिन्दू हो जानें वाली अहर्ता या शर्त में अनैतिक क्या है? हम क्यों फ्रांसिस डिसूजा की आलोचना होनें दें या करें?? पुराणों, शास्त्रों की बातों को ये तथाकथित नव बुद्धिजीवी और सेकुलर नजरअंदाज कर भी दें तो वे संयुक्त राष्ट्र संघ की इस परिभाषा से भारत के हिन्दू राष्ट्र होनें को विलग करके बताएं. यूएनओ द्वारा दी गयी राष्ट्र की परिभाषा इस प्रकार है: “एक ऐसा क्षेत्र जहाँ के अधिकांश लोग एक सामूहिक पहचान के प्रति जागरूक हों और एक सामूहिक संस्कृति साझा करते हों”. इस परिभाषा के अनुसार राष्ट्र के लिये आवश्यक घटक हैं:
 
एक भौगोलिक क्षेत्र जिसमें कुछ लोग रहते हों, उस क्षेत्र के (अधिकांश) निवासियों की एक साझा संस्कृति हो, उस क्षेत्र के (अधिकांश) निवासी अपनी विशिष्ट सामूहिक पहचान के प्रति जागरूक हों, और वहां एक पूर्ण स्वतंत्र राजनैतिक तंत्र स्थापित हो. अब ये सेकुलर बताएं कि इस परिभाषा से फ्रांसिस डिसूजा, या नरेन्द्र मोदी या आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के विचार किस प्रकार भिन्न है? किन्तु यहां यक्षप्रश्न यह भी है कि परम्परागत सूडो सेकुलरों या छदम धर्म निरपेक्षतावादी तो फ्रांसिस और धवलीकर के विरोध में दिखे ही साथ साथ भाजपा के कुछ नेता भी इन दोनों नेताओं के बयान से कन्नी काटते दिखने लगें. भाजपा को तो प्रसन्न और गौरान्वित होना चाहिए था कि कण्व ऋषि से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक के स्वप्नों को साकार करनें की ओर कदम बढ़ाता उसका एक लाल फ्रांसिस डिसूजा उसके आंचल में पल रहा है! भाजपा को इस हिन्दूराष्ट्र की बहस को अविलम्ब राष्ट्रव्यापी आकार देना चाहिए और यदि उसे कहीं असहज स्थिति का सामना करना पड़े तो अपनी मातृ संस्था आरएसएस का वैचारिक और सांगठनिक अवलंबन लेकर नरेन्द्र मोदी की इस स्वीकारोक्ति को राष्ट्रीय स्वीकारोक्ति में बदल देना चाहिए कि “मैं एक हिन्दू राष्ट्रवादी हूँ”. स्मरण रहे कि इस देश में ऐसा कहनें कि नव परम्परा यहीं मुरझा न जाए कि “मैं एक ईसाई हिन्दू हूँ.” यदि नरेन्द्र मोदी को इस देश की जनता से मिला स्पष्ट बहुमत का जनादेश भी भाजपा में आत्मविश्वास नहीं भर पाया तो हिन्दू राष्ट्र और इस जैसे न जाने कितने ही अन्य विषय दशकों के लिये पुनः इतिहास के पन्नों में शब्द बनकर रह जायेंगे!

एक षड्यंत्र:भगवा नेपाल को हरे रंग में बदलने की तैयारी

[] साझा चिंता: पड़ोसी नेपाल में पांव पसारता इस्लाम [] 

नेपाल में बढ़ रहे मस्जिद और मदरसे के कारण वहां सरकार तथा लोग चिंतीत हो उठे हैं,और इसे रोकने के लिये पुरी संकल्पीत हो उठा है/  
सउदी अरब देशो के चंदे से जिस तरह नेपाल में मस्जिद-मदरसे बढ़ रहा है वह नेपाल के लिये ही नही भारत के लिये चिंता हो गई है/ 
नेपाल के जिलो में मस्जिद-मदरसे,इस ्लामी विश्वविद्यालय और छात्रावास की संख्या निम्न है-: 
1.झापा जिला-: 50मस्जिद-1विश्व विद्यालय,1छात्र ावास,50अरबीया मदरसा/ 
2.सुनसरी जिला-:200मस्जिद ,1विश्वविद्यालय,10छात्रावास,25 0मदरसे/ 
3.धनुषा जिला-:200मस्जिद ,2विश्वविद्यालय,2छात्रावास,60मदरसा/ 
4.काठमांडु जिला-:50मस्जिद, 5विश्वविद्यालय,2छात्रावास,50मदरसे/ 
5.चितवन जिला-:20मस्जिद, 1विश्वविद्यालय,1छात्रावास,25मदरसा/ 
6.राजविराज जिला-:200मस्जिद ,2विश्वविद्यालय,75मदरसा/ 
7.सप्तरी जिला-:50मस्जिद, 2विश्वविद्यालय,4छात्रावास,45मदरसा/ 
8.नवलपरासी जिला-:20मस्जिद, 2विश्वविद्यालय,2छात्रावास,24मदरसा/ 
9.रूपन्देही जिला-:50मस्जिद, 1विश्वविद्यालय,5छात्रावास,25मदरसा/ 
10.मकवानपुर जिला-:25मस्जिद, 1विश्वविद्यालय,10मदरसा/ 
11.पाल्पा जिला-:2मस्जिद,4मदरसा/ 
12.कपिलबस्तु जिला-:150मस्जिद ,3विश्वविद्यालय,5छात्रावास,100 मदरसा/ 
13.बांके जिला-:150मस्जिद ,3विश्वविद्यालय,4छात्रावास,104 मदरसा/ 
14.बर्दिया जिला-:100मस्जिद ,1विश्वविद्यालय,1छात्रावास,20मदरसा/ 
15.सिरहा जिला-:100मस्जिद ,1विश्वविद्यालय,5छात्रावास,50मदरसा/ 
16.मोरंग जिला-:25मस्जिद, 1विश्वविद्यालय,3छात्रावास,25मस्जिद/ 
17.बारा जिला-:200मस्जिद ,5छात्रावास,30मदरसा/ 
18.पर्सा जिला-:75जिला,1व िश्वविद्यालय,10छात्रावास,70मदरसा/ 
19.गोरखा जिला-:15मस्जिद,10मदरसा/ 
20.रौतहट जिला-:250मस्जिद ,1विश्वविद्यालय,15छात्रावास,15 0मदरसा/ 
21.महोत्तरी जिला-:75मस्जिद, 5छात्रावास,70मदरसा/ 
22.सर्लाही जिला-:100मस्जिद ,1विश्वविद्यालय,2छात्रावास,50मदरसा/ 
23.प्युठान जिला-:10मस्जिद,4मदरसा/ 
नेपाल के अन्य भाग में-:200मस्जिद, 10विश्वविद्यालय,20छात्रावास,20 0मदरसा/ 
इस तरह हिंदू राष्ट्र नेपाल में कुल 2317मस्जिद,40विश्वविद्यालय,102 छात्रावास और 1501मदरसा है जिसमें अरबी पढ़ायी जा रही है,जो सिर्फ नेपाल के लिये ही नही ब्लकि भारत के लिये भी चिंता है क्योंकी दोनो देशो की एक संस्कृति,समान धर्म तो है ही साथ में आपस में बार्डर भी खुला हुआ है जो इस्लामी आतंकीयो और पाकिस्तान के खुफिया एजेंसी ISI के लिये स्वर्ग बन गया है/ पिछले दिनो भटकल सहित कई आतंकवादी भारत-नेपाल के सिमा पर से ही गिरफ्तार हुए थे,जिसे भारत सरकार को भी चिंतीत कर दिया है/नेपाल का हिंदू बहुल होना ही भारत के सुरक्षा के दृष्टि से महत्वपुर्ण है/ 

कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा!


हम डरते नहीं किसी अणु-बमों से, विस्फोटों और तोपों से,
हम डरते है ताशकंद और शिमलाजैसे समझौतों से,
सियार-भेडियों से डर सकती सिहों की ऐसी औलाद नहीं,
भरतवंश के इस पानी की है तुमको पहचान नहीं,
एटम बनाकर के तुम किस मद में फूल गए,
65, 71
और ... 99 के युद्धों को तुम भूल गए,
तुम याद करो अब्दुल हमीद ने पैटर्न टैंक जला डाला,
हिन्दुस्तानी नेटो ने अमरीकी जेट जला डाला,
तुम याद करो नब्बे हजार उन बंदी पाक जवानों को,
तुम याद करो शिमला समझौता इंदिरा के एहसानों को,
पाकिस्तान ये कान खोलकर सुन ले,
अबकी जंग छिड़ी तो यह सुन ले,नाम निशान नहीं होगा,
कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा!
लाल कर दिया लहू से तुमने श्रीनगरकी घाटी को,
तुम किस गफलत में छेड़ रहे सोई हल्दी घाटी को,
जहर पिलाकर मजहब का इन कश्मीरी परवानों को,
भय और लालच दिखलाकर तुम भेज रहे नादानों को,
खुले प्रशिक्षण, खुले शस्त्र है खुली हुई शैतानी है,
सारी दुनिया जान चुकी ये हरकत पाकिस्तानी है,
बहुत हो चुकी मक्कारी, बस बहुत हो चुका हस्तक्षेप,
समझा ले अपने इस नेता को वरना भभक पड़ेगा पूरा देश,
क्या होगा अंजाम तुम्हे अब इसका अनुमान नहीं होगा,
कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा!

लिखिए अपनी भाषा में