फोटोग्राफर ने बना दिया 'हिन्दू हमलावर'
आशीष कुमार अंशु
तस्वीरों में वे गुजरात के हिन्दू हमलावरों के प्रतीक हैं। दोनों हाथ की बंधी हुई मुट्ठियां हवा में लहराते हुए गुस्से से चिल्लाते हुए मानों वह शख्स सीधे दुश्मनों को ललकार रहा है। उसके हाथ में लोहे की एक मोटी छड़ या राड उसके इरादे को और खतरनाक बना रहा है। जाहिर है, गुजरात दंगों के दौरान जो कुछ हुआ उसे इस एक फोटो के जरिए सबसे बेहतरीन तरीके से परिभाषित कर दिया गया। लेकिन खुद यह फोटो गुजरात दंगों से कितना जुड़ी हुई थी? क्या सचमुच वह नौजवान जो हाथों में लोहे की रॉड लिए ललकार रहा था, वह कोई 'हिन्दू दंगाई' था?
अहमदाबाद के शाहपुर रोड पर सड़क के किनारे पटरी पर लगी मोची की एक छोटी सी दुकान। तस्वीरों में नजर आनेवाला वह 'हिन्दू दंगाई' बीते बीस सालों से इसी दुकान पर बैठकर लोगों के जूते ठीक कर रहा है। उसके पास आज भी मोबाइल नहीं है और जो उनसे मिलना चाहते हैं उन्हें सीधे इनकी पटरी पर सजनेवाली दुकान पर ही आना पड़ेगा। हम भी वहां पहुंचे तो हमें जूते पालिश करते हुए जो सज्जन मिले उनका नाम अशोक परमार था। वही अशोक परमार उर्फ अशोक मोची जो देश दुनिया में हिन्दू दंगाइयों के प्रतीक चिन्ह बन गये थे। और प्रतीक चिन्ह भी ऐसे कि हिन्दू आतंकवाद को परिभाषित करने के लिए उन्हें सिर्फ फोटो तक सीमित नहीं रखा गया बल्कि कार्यक्रमों में भी निमंत्रित किया जाने लगा, ताकि उनकी आमने सामने पहचान करवाई जा सके।
इसी साल मार्च के महीने में सीपीएम के मंच पर एक किताब के लोकार्पण के दौरान भी अशोक मौजूद थे। लोकार्पण के बाद इस खबर को जिन पत्रकारों ने लिखा, लगभग सभी ने अपनी खबरों में अशोक को गुजरात 2002 का हमलावर कहकर संबोधित किया। बारह साल बाद भी अशोक की पहचान और छवि जरा भी नहीं बदली थी। ऐसा इसलिए क्योंकि अशोक की तस्वीर ने देश दुनिया के जेहन में यह बात बिठा दी थी कि यह व्यक्ति हिन्दू चरमपंथ का जीता जागता प्रतीकचिन्ह है। अब अशोक के साथ विडम्बना यह है कि उसकी तस्वीर देश की बड़ी-छोटी सभी तरह की पत्रिकाओं ने इस्तेमाल की लेकिन किसी ने गुजरात 2002 के संबंध में उससे बात करने की कोशिश नहीं की। अशोक आज तक पत्र-पत्रिकाओं में गुजरात 2002 के हमलावर के तौर पर छप रहे हैं और छपते जा रहे हैं। अशोक का इस संबंध में कहना है- मेरा कसूर सिर्फ इतना था कि मैं एक बड़े फोटो पत्रकार सब्सटीन डिसूजा के सामने तस्वीर के लिए पोज देने को तैयार हो गया था। अब अपना फोटो अखबार में आएगा, यह अच्छा लगता है ना! लेकिन इस तस्वीर से डिसूजा को ईनाम मिला और मुझे थाने के चक्कर लगाने पड़े। हजारों रुपए का नुक्सान हुआ अलग। बिना गलती के जो मुझे जानते तक नहीं थे, वे लोग भी मेरे दुश्मन हो गए। मुझसे नफरत करने लगे।
अशोक कुमार की तस्वीर उन लोगों को जरूर याद होगी, जिन्होंने 2002 में गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों खबरों पर नजर रखी होगी। सिर पर भगवा कपड़ा बांधकर और हाथों में सरिया लिए अशोक की तस्वीर गुजरात दंगों की प्रतिनिधि तस्वीर बन गई थी। इस तस्वीर के बैकग्राउन्ड में आग भी नजर आती है। जिससे लोगों का संदेह पक्का होता है कि अशोक दंगाई था। कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने उसे बिना किसी प्रमाण के बजरंग दल का सदस्य और अधिकारी भी लिख दिया। अहमदाबाद के शाहपुर रोड पर अशोक कुमार ने बीस साल पहले जब जूता पॉलिस करने का काम शुरू किया था, उसके कुछ दिनों बाद ही माता-पिता नहीं रहे। मोहब्बत हुई लेकिन शादी नहीं हो पाई। भाई से रिश्ता बिगड़ा तो घर छोड़कर सड़क पर आ गए। चाहते तो भाई से जायदाद के लिए लड़ सकते थे लेकिन उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। 2002 में भी वे होटल में खाते थे, और जहां जूता पॉलिस करते, उससे थोड़ी दूरी पर चादर बिछाकर सो जाते थे। लेकिन गुजरात दंगों के दौैरान मीडिया मेें उनकी तस्वीर इस तरह दिखाई गई मानों वे बजरंग दल के कोई बड़े नेता हों। जबकि हकीकत में अशोक बाबा साहेब अंबेडकर के अनुयायी हैं। बकौल अशोक - ‘बाबा साहब के स्वतंत्रता, समता और बंधुता की जो आदर्श नीति है, मेरा उस पर गहरा यकीन है।’ जाहिर है, अशोक से इस सवाल का जवाब जानना जरूरी था कि जब उनकी साम्प्रदायिक दंगों में कोई भूमिका नहीं थी फिर उनकी आक्रामक तस्वीर आई कैसे?
अशोक पूरी कहानी विस्तार से बताते हैं। जिस दिन की अशोक की तस्वीर ली गई थी, उसके एक दिन पहले गोधरा कांड हुआ था। अगले दिन विश्व हिन्दू परिषद ने पूरे गुजरात में बंद का आह्वान किया था। अशोक ने अखबार में पढ़ा था सो उसने अपनी दूकान बंद कर दी थी। वे अपने पड़ोस में नजीर भाई की गैरज में बैठे थे। दस-साढ़े दस बजे हो हल्ला शुरू हो गया। दुकानें तोड़ी जाने लगी। अशोक चूंकि नजीर भाई की दुकान में बैठे थे सो वे भी घेर लिए गए। उन्होंने बड़ी मिन्नते की और मुश्किल से समझा पाए कि वे एक हिंन्दू हैं और पास ही उनके जूता पॉलिस की दूकान है। अशोक को पूरे दिन सड़क पर रहना था, अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी की वहज से वे आम मुसलमानों की तरह दिख रहे थे। सिर छुपाने के लिए जब उनके पास छत नहीं थी, उस वक्त गर्दन बचाने लिए उन्हें सिर पर भगवा कपड़ा बांधना बेहतर विकल्प लगा। ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक जब अहमदाबाद की सड़कों पर भीड़ उग्र हो गई, उन्होंने सिर पर भगवा कपड़ा बांध कर चॉल की तरफ भागना बेहतर समझा।
भीड़ से निकलते हुए एएफपी के प्रसिद्ध फोटो पत्रकार सब्सटीन डिसूजा (जो आजकल मुम्बई मिरर अखबार में हैं) की नजर अशोक पर पड़ गई। बाद के दिनों में सब्सटीन ने अजमल कसाब की चर्चित तस्वीर ली। उस तस्वीर पर भी बेहद संगीन आरोप लगे हैं। उन्हीं डिसूजा ने अशोक की भी तस्वीर ली। तस्वीर लिए जाने की कहानी और भी दिलचस्प है। अशोक कहते हैं कि डिसूजा ने उनसे पूछा- गोधरा में जो हुआ, उस पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है? अशोक ने उन्हें जवाब दिया- गोधरा में जो हुआ, वह गलत है लेकिन अब जो पब्लिक कर रही है, वह भी सही नहीं है। अशोक ने डिसूजा को यह भी बताया कि 'गोधरा में जो मुसलमानों ने किया, वह इस्लाम की सीख नहीं है। और अहमदाबाद में जो हिन्दू कर रहे हैं, वह हिन्दू धर्म नहीं सिखाता।'
डिसूजा ने बातचीत में अशोक को इस बात के लिए राजी कर लिया कि जो गोधरा में हुआ, उसके लिए हिन्दुओं के मन में जो आक्रोश है, वह अशोक अपने चेहरे से प्रदर्शित करें। अशोक की तस्वीर जो गोधरा में हुआ, उसके खिलाफ आक्रोश की तस्वीर के तौर पर ली गई और पूरी दुनिया में गोधरा के प्रतिशोध की प्रतिनिधि तस्वीर बन गई। जबकि यह तस्वीर गोधरा के अगले ही दिन सुबह ग्यारह बजे की है, जबतक कोई नहीं जानता था कि यह साम्प्रदायिक दंगे, इतना भयानक रूप लेने वाले हैं। ना इस बात का अंदाजा अशोक को था और ना ही डिसूजा को रहा होगा।
अशोक कहते हैं- मैं इंसान हूुं, किसी की जान जाते हुए देखकर मेरा दिल भी रोता है। आज मुझे पूरी दुनिया में एक खलनायक बना दिया गया है। मेरे सिर वह गुनाह लिख दिया गया, जो गुनाह मैने किया ही नहीं। अशोक कहते हैं- मुझ पर यकीन करने की जरूरत नहीं है। आप आस-पास के मुस्लिम मोहल्ले में जाकर बात कीजिए। आपको इस बात की जानकारी हो जाएगी। अशोक कहते हैं- ''यदि मुझे पता होता कि साम्प्रदायिक दंगे इतने फैल जाएंगे तो मैं कभी तस्वीर नहीं देता। तस्वीर वाली सुबह तक हालात इतने नहीं बिगड़े थे और ना तस्वीर देते हुए मुझे अंदाजा था कि सबकुछ इतना खराब हो जाएगा।''
अशोंक बताते हैं कि दंगों के दौैरान उन्होने कई मुसलमानों की जान बचाई। उन्हें एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने में मदद की। शायद यही कारण रहा कि उनकी तस्वीर का असर शाहपुर रोड के आस-पास स्थित मुस्लिम मोहल्लो पर बिल्कुल नहीं था। वे अशोक को जानते थे। वे आज भी अशोक के ग्राहक हैं। लेकिन इस तस्वीर की वजह से वे लोग अशोक से नफरत करने लगे, जो उन्हें जानते नहीं थे। दंगों के दो-तीन महीने बाद ही उन पर नकाबपोश अज्ञात हमलावरों ने जानलेवा हमला किया। उन पर गोली चली। हालांकि इसके बाद भी अशोक ने अज्ञात हमलावरों के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं किया। बकौल अशोक- ‘हमलावर मुझे गुजरात दंगों में मुसलमानों का हत्यारा समझ रहे हैं, मैं जानता हूं कि जब उन्हें सच्चाई पता चलेगी, अपने किए पर उन्हें पछतावा होगा।'
जाहिर है, जब अशोक ने कोई अपराध नहीं किया है तो एक निर्दोष को अपराधी की तरह पेश करने का अपराध फोटोग्राफर सब्सटीन डिसूजा से हुआ है। इस संबंध में जब हमने डिसूजा से फोन पर बात की तो डिसूजा का कहना है कि बारह साल बाद इस मामले में बात करने के लिए कुछ नहीं रह गया है।
बहरहाल, अशोक पिछले 12 सालों से उस गुनाह की सजा भुगत रहे हैं, जिसके लिए उन्हें न्यायालय भी दोषी नहीं मानता। अशोक का सच अब समाज के सामने है। अब इस देश के मीडियाकर्मियों को एक बार जरूर विचार करना चाहिए कि अपने काम काज के दौरान वे कितने बेगुनाहों को समाज की नजर में अशोक की ही तरह गुनहगार बना देते हैं? बारह सालों से अशोक सामाजिक अपमान झेल रहे हैं, एक ऐसे अपराध के लिए जो उन्होंने किया ही नहीं। इस बात की गवाही वे सभी लोग देने को तैयार मिलेंगे, जो अशोक को जानते हैं। इनमें हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी। तब सवाल यह उठता है कि अशोक ने एक अपराधी की छवि के साथ जो बारह साल बिताएं हैं, उनकी जिन्दगी के वे बारह साल उन्हें कौन लौटाएगा?
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