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नया धमाका

5/15/2011

स्वामी रामतीर्थ : ''सफलता का रहस्य''

प्रिय पाठकगण,
                                  वन्दे मातरम!
आज आपके समक्ष प्रस्तुत है स्वामी रामतीर्थ द्वारा जापान प्रवास के दौरान दिया गया विश्व विख्यात व्याख्यान ''सफलता का रहस्य।'' आशा है कि आप इसे पढ़कर अपने आप पर विश्वास ही नहीं करेगें वरन् भारत कि समग्र हिन्दू समाज को भी इसके बारें में अवगत करायेगें।
  ''क्या यह आश्चर्यजनक नहीं प्रतीत होता कि भारतवर्ष से एक अभ्यागत आकर आपके समक्ष एक ऐसे विषय पर भाषण करें, जिसे प्रत्यक्षत: जापान ने भारत की अपेक्षा अधिक बुद्धिमानी से ग्रहण किया है। यह बात हो सकती है किन्तु एक से अधिक ऐसे कारण है जिनके बलपर मैं यहां शिक्षक के रूप में खड़ा हुआ हूं।
  किसी विचार को दक्षतपूर्वक कार्य रूप में परिणत करना एक बात है और उसके आधारभूत मौलिक अर्थ को ह्रदयंगम करना एक बिल्कुल दूसरी बात है। वर्तमान समय में चाहे कोई राष्ट्र कपितय सिद्धान्तों को कार्यान्वित करता हुआ भले ही खुद फल-फूल रहा हो, किन्तु यदि कोई राष्ट्रीय मस्तिष्क भली भांति उन सिद्धांतों को समझता नहीं है, यदि उसके पीछे कोई सुनिश्चित ठोस आधार नहीं, तो उस राष्ट्र के पतन की बराबर संभावना बनी रहती है। एक श्रमिक जो किसी रासायनिक क्रिया को सफलतापूर्वक व्यवह्रत करता है, वस्तुत: रसायनशास्त्रवेत्ता नहीं है। कोयला झोंकने वाला जो सफलतापूर्वक किसी वाष्प - इंजन को चला लेता है, इंजीनियर नहीं हो सकता है, क्योंकि उसे केवल यांत्रिक अभ्यास हो गया है। तुमने उस डॉक्टर की कथा पढ़ी होगी, जो शरीर के क्षत-विक्षत अंग को पूरे एक सप्ताह तक रेशमी पट्टी से बांधकर अच्छा किया करता था, किंतु उसे नित्य अपनी तलवार से छूना अनिवार्य मानता था। पट्टी के द्वारा बाहरी गर्द से रक्षा होने के कारण घाव अच्छे हो जाते थे किंतु वह कहता था कि उसकी तलवार के स्पर्श में ही घावों को चंगा कर देने की उद्भुत शक्ति है और ऐसा ही उसके रोगियों को विश्वास हो गया था। किंतु इस अंधविश्वासपूर्वक कल्पना से बीसों रोगियों को असफलता के सिवा और कुछ न हाथ लगा, क्योंकि उनके घावों में केवल पट्टी के अतिरिक्त अन्य उपचारों की आवश्यकता थी। अतएव प्रत्येक वस्तु के सम्पादन में यह परमावश्यक है कि यथार्थ सिद्धान्त और यथार्थ व्यवहार समन्वित रहें।
  दूसरी बात यह है कि राम (स्वामी रामतीर्थ) जापान को अपना ही देश मानता है और उसके निवासियों को अपना देशवासी। राम तर्कपूर्ण आधार से यह सिद्ध कर सकता है कि प्रारंभ में अपने पूर्वज भारत से ही यहां स्थानांतरित हुए थे। आपके पूर्व पुरूष राम के पूर्व पुरूष है। अत: राम एक भाई के समान, न कि किसी अपरिचित की भांति आप लोगो से हाथ मिलाने आया है। एक और कारण भी है जिसके बल पर भी राम इसी आधार पर दावा कर सकता है। राम अपने जन्म से, अपनी प्रकृति, चाल-ढ़ाल, स्वभाव और ह्रदय से जापानी है। इन प्रारंभिक शब्दों के अनन्तर राम अब अपने विषय पर आता है।
   सफलता का भेद एक खुला हुआ भेद है। इस विषय पर प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ कह सकता है और स्यात् तुमने उसके साधारण सिद्धान्तों की व्याख्या भी सुनी होगी। किंतु विषय इतना महत्वपूर्वक और आवश्यक है कि लोगों के ह्रदय में उसे भली भांति पैठाने के लिए, उस पर जितना बल दिया जाये, उतना ही थोड़ा है।
  पहला सिद्धान्त - कामसबसे पहले हमें यह प्रश्र चारों और से घेरने वाली प्रकृति से करना चाहिए। कलकल निनाद से बहने वाले निर्झर और एक स्थान में बद्ध रहने वाले तालाब रोज अपनी मूक किंतु असंदिग्ध भाषा में हमें निरंतर एक ही उपदेश दिया करते है-- निरेतर काम करों, अहर्निश काम करो। प्रकाश हमें देखने की शक्ति प्रदान करता है। प्रकाश ही प्राणिमात्र का प्राण और प्रमुख जीवनाधार है। आओं, देखे स्वयं प्रकाश के द्वारा इस प्रश्र पर क्या प्रभाव पड़ता है। राम उदाहरण के लिए एक लैम्प, साधारण दीपक को ही लेगा। दीपक की चमक और प्रकाश का अंतरंग रहस्य क्या है? यह कभी अपने तेल और बत्ती का बचाव नहीं करता। तेल और बत्ती अथवा उसकी क्षुद्र आत्मा निरंतर जलती रहती है, तभी उसका प्राकृतिक परिणाम होता है प्रकाश और ताप। लो लैम्प का संदेश हो चुका- अपने का बचाव करो और तुम्हारा सर्वनाश हो जायेगा। यदि तुम अपने शरीर के लिए सुख और विश्राम चाहते हो, यदि अपना सारा समय भोग-विलास और इन्द्रिय सुखों में गंवाते रहे हो, तो तुम्हारे लिए उत्थान की कोई आशा नहीं है। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ हुआ कि अकर्मण्यता मृत्युरूप है। केवल काम और क्रिया ही हमारा जीवन और प्राण है। एक ओर सीमाबद्ध सरोवर है और दूसरी ओर बहती हुई सरिता। दोनो की तुलना करो। बहती हुई नदी का जल स्वच्छ, तरोताजा, निर्मल, पीने योग्य और चित्ताकर्षक रहता है। इसके विपरित सीमाब। तालाब का जल कितना गंदा, बदबूदार मैला और चिपचिपाने वाला होता है। यदि तुम सफलता चाहते हो तो कार्य का मार्ग, सरिता की निरंतर गति का अनुसरण करो, जो मनुष्य अपने तेल और बत्ती का व्यय न करेगा, अपितु उसकी रक्षा में ही अपना सारा समय लगा देगा उसके लिए आशा का कोई मार्ग नहीं। नदी की नीति को ग्रहण करो, जो सदा आगे बढ़ती ही रहती है, जो सदैव अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल बनाती हुयी अपना व्यवहार बढ़ाती जाती है, गति ही उसका जीवन है। कार्य, निरंतर कार्य, अटूट कार्य ही सफलता का पहला सिद्धान्त है, 'नित्य प्रति उत्तम से उत्तमतर बनते जाओ।' यदि तुम इस सिद्धान्त का अवलम्बन करो, तब तुम्हारे लिए बड़ा बनना उतना ही आसान होगा, जितना छोटा रह जाना।
दूसरा सिद्धान्त- आत्म त्याग
प्रत्येक व्यक्ति सफेद, श्वेत वस्तुओं को प्यार करता है। आओं, देखें, श्वेत वस्तुयें क्योंकर मनुष्यमात्र की प्रेमपात्र बन जाती है। हमें श्वेत की सफलता का पता लगाना होगा। काली वस्तुओं से सभी घृणा करते है। उन्हे तुच्छ समझते है, फेंक देते है। यह एक तथ्य है, हमें उसके कारणों की खोज करनी होगी, प्रकृति-विज्ञान हमें रंगों के प्रदर्शन का रहस्य बतलाता है। वास्तव में लाल रंग लाल नहीं है, हरा, हरा नहीं है, काला, काला नहीं है। वस्तुत: जैसा हम देखते है, वह वैसा नहीं है। गुलाब के लाल पुष्प में वह लालिमा कहां से आती है? वह स्वयं उसकी फेंकी हुयी चीज है। सूर्य की किरणों के और सब रंग तो उसने अपने अंतर में पचा लिए है। किसी को गुलाब द्वारा पचाये हुए इन रंगों का पता नहीं चलता। हरा पत्ता प्रकाश के अन्य सब रंग अपने में आत्मसात् कर लेता है और केवल उस एक हरे ताजे रंग के द्वारा प्रकट होता है जिसे वह अपने भीतर लेने से इंकार करता है और बाहर फेंक देता है। काली वस्तुओं का स्वभाव होता है कि वे प्रकाश के सारें रंगों को खा लेती है और प्रकाश का नामोनिशान भी बाकी नहीं छोड़ती। उनमें आत्मत्याग की भावना नहीं रहती। उदारता रंचमात्र भी नहीं होती। वे रश्मि की एक रेखा भी नहीं त्याग सकती। अपने हिस्से में उन्हे जो सूर्य-रश्मि मिलती है वे सब का सब खा जाती है।
प्रकृति हमें आदेश देती है कि इसी प्रकार वह मनुष्य जो अपने में से रत्ती भर अपने पड़ोसियों को नहीं देता, वह काले कोयले जैसा काला हो जायेगा। श्वेत वस्तुओं के सद्गुण ग्रहण करो और तुम सफल हुए बिना नहीं रह सकते। श्वेत से राम का क्या अभिप्राय है? यूरोप के निवासी श्वेतांग! नहीं, केवल श्वेतांग यूरोपीयन ही नहीं, स्वच्छ दर्पण, स्वच्छ मोती, सफेद फाख्ता, स्वच्छ हिम-संक्षेप में, पवित्रता और सच्चाई सूचक सभी सुन्दर चिह्न इस विषय में तुम्हारे पथ प्रदर्शक बन सकते है। उनका मार्ग ग्रहण करो और असंदिग्ध रूप से आत्म त्याग की भावना सीख लो। जो कुछ दूसरों से लिया हो, उसे दूसरों को ही दे डालो, स्वार्थमय संचय के पथ से हट जाओ और अपने आप स्वच्छ बन जाओगो। बीज यदि चाहता है कि एक सुन्दर कलिका के रूप में खिले, तो पहले उसे अपने आप को खाद के रूप में गला देना होगा- पूर्ण आत्म बलिदान अंत में फल लाता है, उसका फल लाना अनिवार्य है। सभी शिक्षक और उपदेशक इस बात को मानने से नहीं हिचकेगें कि हम जितना ही अधिक वितरण करते है, उतना ही अधिक पाने के हम अधिकारी बनते जाते है।
     तीसरा सिद्धान्त- आत्म विस्मृतिविद्यार्थियों को इस बात का पूर्ण अनुभव होगा कि जब वे अपने साहित्यिक गोष्ठी में भाषण करते है, तो ज्योंहि ''मैं भाषण कर रहा हूं उनके मन में जोर से प्रकट होता है, न्योंहि व्याख्यान फीका पड़ जाता है। काम करते हुए अपने क्षुद्र अहं को भूल जाओ, तो तुम स्वयं सोच विचार बन जाओ, निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी। यदि कोई कार्य करते हो, तो तुम कार्य रूप बन जाओ, सफलता अवश्य मिलेगी--
     मैं कब स्वतंत्र हूंगा?
          जब मिट जायेगी 'मैं मैं।
दो भारतीय राजपूतों की एक कहानी है। वे एक बार अकबर (भारत के मुगल सम्राट) के पास पंहुचे और नौकरी के लिए प्रार्थना की। अकबर ने उनकी योग्यता के बारे में पूछताछ की। उन्होने कहा, 'हम शूरवीर है।' अकबर ने आज्ञा दी, 'प्रमाण?'  दोनों ने तुरंत म्यान से अपनी-अपनी तलवारें खींच ली। क्षण भर को अकबर के दरबार में बिजली कौंध गई। तलवारों की चमक उनकी अंतरंग वीरता की सूचक थी। लो, दूसरे ही क्षण बिजली की इन दोनो कौंधों ने दोनो के शरीरों को एक कर दिया। दोनो ने उन्हे एक दूसरे की छाती में ऐसी धीरता से घुसेड़ दिया, जो संसार में बहुत कम देखी जाती है। उनकी वीरता का प्रमाण प्राप्त हो गया, शरीर गिर पड़े, आत्मायें एक हो गई। सबने उनकी वीरता की भूरि-भूरि सराहना की। कहानी में हमें विशेष प्रयोजन नहीं।
 इस उन्नत युग में ऐसी शूरवीरता से हमारे ह्रदय में तो चोट पंहुच सकती है, किंतु हमें एक शिक्षा मिलती है। वह शिक्षा यह है - अपने क्षुद्र अहं का त्याग करो और सफलता तुम्हे हाथ जोड़ेगी। अन्यथा सफलता प्राप्त होना दुर्लभ है। राम करते-करते सफलता की इच्छा मर जाये और सफलता तुम्हारे सम्मुख खड़ी है।
     चौथा सिद्धान्त - प्रेमप्रेम सफलता का चौथा सिद्धान्त है। प्रेम करो और लोग तुमसे प्रेम करेगें। बस, यही लक्ष्य है। हाथ, यदि जीवित रहना चाहता है, तो उसे शरीर के अन्य अंगों से प्रेम करना होगा। यदि वह अपने को सबसे पृथक कर ले और सोचे कि मेरी कमाई से दूसरे अंग क्यों लाभ उठाये, तो हाथ का काम हो चुका, उसका मरण अनिवार्य है। यदि हाथ अपनी स्वार्थवृत्ति पर डट जाये, तो उसे मुहं में खानपान रखने की क्या आवश्यकता है? जिसे वह केवल अपने परिश्रम के बल पर प्राप्त करता है- चाहे उसने वह परिश्रम कलम के बल पर प्राप्त किया हो अथवा तलवार के द्वारा। उस स्थिति में उसे भोजन के उत्तम पदार्थ अपने चर्म में ही घुसा लेने चाहिए और तभी वह दूसरे अंगों को कमाई से वंचित कर सकता है। हां, यदि उसे अपना फुलाना ही अभीष्ट हो, तो यह किसी विषैली वस्तु से भी अपने को कटवा सकता है। किंतु सूजन हानि के सिवा लाभ नहीं पंहुचा सकती। सूजन की मोटाई स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। फूला हुआ हाथ एक न एक दिन अपने स्वार्थ के कारण मर मिटेगा।
 हाथ केवल तभी फल-फूल सकता है, जब वह व्यवहारत: शरीर के अन्य अंगों के साथ अपनी वास्तविक आत्मीयता का अनुभव करे और अपनी भलाई को शरीर के अन्य अंगों की भलाई से, सम्पूर्ण शरीर की भलाई से किसी भी प्रकार पृथक न समझे।
 जिसे हम लोग सहायता कहते है, वही इस प्रेम का बाह्य रूपांतर है। तुमने सहयोग, सहकारिता के लाभो के विषय में बहुत कुछ सुना होगा। राम को, यहां, उसके गुण गाने की आवश्यकता नहीं, तुम्हारे  ह्रदय प्रेम से ही उसका जन्म हो। तुम प्रेमरूप हो जाओ और सफलता बनी बनायी है। जो व्यापारी ग्राहकों के लाभ में अपना लाभ नहीं समझता, वह सफल नहीं हो सकता। अपने फलने-फूलने के लिए उसे अपने ग्राहकों से प्रेम करना होगा। उसे अपने सम्पूर्ण ह्रदय से उसकी भलाई पर ध्यान रखना होगा।
 पॉंचवां सिद्धान्त - प्रसन्नतासफलता के सम्पादन में एक दूसरी बात जो महत्त्वपूर्ण कार्य करत है - वह है प्रसन्नता। आप, जापानी लोग राम के भाई है। राम की प्रसन्नता है कि आप लोग स्वभाव से ही प्रसन्नचित्त है। तुम्हारे हरे भरे चेहरे पर प्रसन्नता की मुस्कान देखकर राम को बड़ी प्रसन्नता होती है। तुम हंसते हुये फूल हो। तुम मनुष्य जाति को मुस्कुराने वाली कलिका हो। तुम प्रसन्नता के अवतार हो, और राम चाहता है कि आप अपने जीवन के इस शुभ लक्षण को अपने इतिहास के अंत तक स्थिर रखें। राम आपको बतायेगा कि यह कैसे हो सकता है।
  अपने परिश्रम के फल के लिए कभी चिंतित ना हो। भविष्य की चिंता मत करो। भय को ह्रदय में स्थान मत दो। न सफलता की सोचो ना असफलता की। काम के लिए काम करो। कार्य स्वयं अपना पारितोषिक है। भूतकाल के पीछे खिन्न मत हो। भविष्य की चिन्ता मत करो। वर्तमान में - प्रत्यक्ष वर्तमान में कार्य करो। दिन-रात काम करो। इस प्रकार की भावना तुम्हे प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रखेगी। एक सजीव बीज में फलने-फूलने का गुण होता है।
  प्रेमपूर्ण सहानुभूति का अटल नियम है कि उस सजीव बीज को आवश्यकतानुसार वायु, जल, पृथ्वी और आकाशादि मिलना ही चाहिए। ठीक इसी भांति प्रसन्नचित्त कर्मयोगी को प्रत्येक भांति की सहायता का वचन प्रकृति ने पहले से ही दे रखा है। आगे का मार्ग अपने आप सूझ पड़ेगा, यदि जितना ज्ञात है, उतना तुम यथार्थ रूप से पार कर लेते हो। यदि अंधेरी रात में तुम्हे बीस मील यात्रा का अवसर प्राप्त हो और यदि हाथ का दीपक केवल दस फुट तक ही प्रकाश फेंकता हो, तो उस सम्पूर्ण अंधेरे मार्ग की चिन्ता में क्यों मरे जाते हो? तुम्हे तो अंधकार में एक पग भी नहीं धरना पड़ेगा। इसी प्रकार एक आदर्श और सच्चे कर्मयोगी को अपने पथ में कभी अव्यर्थ बाधा नहीं पड़ती। यह प्रकृति का एक अनिवार्य नियम है। फिर भविष्य की घटना की चिंताओं से क्यों अपने ह्रदय के उल्लास को ठण्डा करते हो?
  जिस मनुष्य को तैरना बिल्कुल नहीं आता, यदि वह भी सहसा किसी झील में गिर पड़े तो, वह भी डूब नहीं सकता, यदि अपने शरीर के भार को संतुलित बनाये रखे। मनुष्य का भार- विशेषतत्त्व जल के भार- विशेषतत्त्व से कम होता है, अत: जल के धरातल पर उतारने में उसे कोई बाधा नहीं हो सकती। किन्तु ऐसे अवसर पर साधारण प्राणी एकदम अस्थिरचित हो जाते है। इसी प्रकार प्राय: भविष्य की सफलता के लिए चिन्ताकुल होने ही सेअसफलता का सूत्रपात होता है।
  आओ, अब हम उस विचारधारा का निरीक्षण करें, जिसके कारण हम भविष्य की ओर आंखे लगाये रहते है। इसका उदाहरण इस प्रकार हो सकता है कि मनुष्य स्वयं अपनी छाया को पकडऩा चाहता है। ऐसा उद्योग चाहे वह अनन्तकाल तक करता रहे, वह कदापि, त्रिकाल में भी उसे पकडऩे में समर्थ नहीं हो सकता। पर यदि वह छाया से मुहं मोड़ ले और सूर्याभिमुख हो जाये, तो लो, वह छाया ही उसके पीछे दौडऩा प्रारंभ कर देगी। जिस क्षण तुम सफलता से मुहं मोड़ लेते हो, ज्योंहि तुम फलादि की चिन्ता से मुक्त हो जाते हो, और वर्तमान कत्र्तव्य पर अपनी सारी शक्ति केन्द्रित कर देते हो, बस, उसी क्षण सफलता तुमसे आ मिलती है। नहीं, नहीं वह तुम्हारा अनुसरण करने लगती है।
  अतएव, तुम सफलता के पीछे मत दौड़ो, सफलता को अपना ध्येय मत बनाओ और तभी, उसी समय सफलता स्वयं तुम्हे ढूंढऩे लगेगी। न्यायालय में न्यायाधीश को वादी- प्रतिवादी, वकील अथवा चपरासियों को खोजना नहीं पड़ता। वह तो केवल न्यायासन पर बैठ भर जाये और न्यायालय के सारे व्यापार अपने आप चलने लगते है।
  राम के प्यारे मित्रो, यही अंतिम तथ्य है। पूर्ण प्रसन्नता के साथ अपने कत्र्तव्य-कर्म में जुट जाओ और सफलता के लिए जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ेगी, वे सब अपने आप उपस्थित हो जायेगीं।
  छठा सिद्धान्त - निर्भीकतादूसरी बात, जिस पर राम आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता है और बारम्बार आदेश करता है कि आप उसे अपने अनुभव से सिद्ध करें, वह है निर्भीकता। एक भ्रू-निक्षेप से शेरों को वश में किया जा सकता है। एक दृष्टि-निक्षेप से शत्रु परास्त किए जा सकते है। निर्भीकता की एक झड़प से विजय प्राप्त की जा सकती है। राम ने हिमालय की सघन घाटियों में विचरण किया है। राम को शेर, चीते, भालू और अनेक विषैले जीव-जंतुओं का सामना करना पड़ा। परंतु राम को कभी किसी ने हानि नहीं पंहुचायी। जंगली पशुओं पर सीधे उनकी आंखों पर भ्रू- निक्षेप किया गया, दृष्टियां मिली, हिंसक पशुओं ने अपनी आंखे नीची कर ली और जिन्हे हम अत्यंत भयानक वन्य पशु समझते है, वे चुपचाप खिसक गए। यही तथ्य है। निर्भीक बनो और तुम्हे कोई हानि नहीं पंहुचा सकता।
   शायद तुमने कभी देखा हो कि कबूतर कैसे बिल्ली के सामने अपनी आंखे बंद कर लेता है और शायद अपने मन में सोचता हो कि जैसे मैं बिल्ली को नहीं देखता हूं, वैसे ही कबूतर बिल्ली के पेट में जा पड़ता है। निर्भीकता से चीता भी वश में किया जा सकता है और भयातुरता के सामने बिल्ली भी शेर बन जाती है।
  तुमने यह भी देखा होगा कि कांपते हुए हाथो से कोई द्रव पदार्थ एक बर्तन से दूसरे बर्तन में सफलतापूर्वक नहीं उड़ेला जा सकता। किंतु कितनी आसानी से एक सुदृढ़ और निर्भीक हाथ बिना एक बूंद गिराये उस बहुमूल्य द्रव का आदान-प्रदान कर लेता है।
  प्रकृति स्वयं बार-बार उच्च स्वर से इसी निर्भीकता की शिक्षा देती है।
 एक बार एक पंजाबी सिपाही किसी जहाज पर एक भयानक रोग से आक्रान्त हो गया और डॉक्टर ने उसे जहाज से नीचे फेंक देने का अंतिम दण्ड सुना दिया। साधारण प्राणी कभी-कभी भयंकर दंड दे डालते है। सिपाही को इस बात का पता लग गया। साधारण शक्ति से उठा और एकदम निर्भय हो गया। तुरंत सीधा डॉक्टर के पास पंहुचा और पिस्तौल तानकर बोला, 'मैं बीमार हूं? क्या मैं बीमार हूं? सच-सच बोलो, नहीं तो अभी मैं तुम्हे दूसरी दुनियां में पंहुचा देता हूं।Ó डॉक्टर ने उसे तुरंत ही स्वस्थ होने का प्रमाण पत्र दे दिया।
 निराशा कमजोरी है, उससे बचो। निर्भीकता ही शक्तिपुंज है। राम के शब्दो पर ध्यान दो- 'निर्भीकताÓ और निर्भीक बनो।
सातवां सिद्धान्त- आत्मनिर्भरतासफल जीवन का नैसर्गिक, अंतिम, किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धान्त, एक प्रकार से सफलता का प्राण, सफलता की कुंजी है, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास। यदि राम से एक शब्द में राम का दर्शनशास्त्र भर देने का आग्रह किया जाये, तो राम यही कहेगा- वह है आत्मविश्वास, आत्मज्ञान।
 ऐ मनुष्यों, देखो, सुनों और अपने आपको पहचानो। सत्य, अक्षरश: सत्य है कि जब तुम स्वयं आप अपनी सहायता करते हो, तो ईश्वर तुम्हारी सहायता करता है। नही, वह तुम्हारी सहायता करने के लिए बाध्य है। यह बात भली-भांति सिद्ध की जा सकती है। इस तथ्य का साक्षात्कार किया जा सकता है कि तुम्हारी ही आत्मा, वास्तविक आत्मा ईश्वर, सर्वशक्ति सम्पन्न ईश्वर है। यह एक वास्तविकता है, एक सत्य है। तुम स्वयं व्रयोग करके देख लो। निश्चय से, पूर्ण निश्चय से अपने ऊपर निर्भर करो और फिर जगत् में तुम्हें कुछ भी दुर्लभ नहीं। तुम्हारे लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं।
 सिंह जंगल का राजा है। वह स्वयं अपने ऊपर निर्भर रहता है। उसमें साहस है, शक्ति है, कोई बाधा उसका मार्ग नहीं रोक सकती। क्यों? क्योंकि उसे अपने आप में पूर्ण विश्वास है। और हाथियों को देखो, जिन्हे विशालकाय होने के कारण पहली दृष्टि में यूनानियों ने 'चलते-फिरते पर्वतÓ की संज्ञा दी थी, वे सदा अपने शत्रुओं से सशंकित रहते है। वे सदा झुंडों में रहते और सोते समय अपने चारो ओर पहरेदार नियुक्त कर लेते है। एक भी उनमें अपने ऊपर निर्भर नहीं रहता और न अपनी विशाल शक्ति का अनुभव करता है। वे अपने को शक्तिहीन मानते है और एक ही सिंह के समक्ष झुण्ड का झुण्ड भाग खड़ा होता है, जबकि एक ही हाथी, एक ही चलता-फिरता पहाड़ बीसों शेरों को अपने पैरों से रौंद कर मिट्टी में मिला सकता है।
 एक बड़ी शिक्षाप्रद कहानी है। दो भाई थे। दोनो को अपनी पैतृक सम्पति में समान भाग मिला था। किंतु कुछ काल के अनन्तर एक तो दरिद्रता की चरम सीमा पर पंहुच गया और दूसरे ने अपनी पैतृक सम्पति दस गुनी बढ़ा ली। जो लखपति हो गया था, एक बार उससे प्रश्र किया गया- 'इतना अंतर कैसे हो गया? ' तो उसने उत्तर दिया, 'मेरा भाई कहता है- जाओ जाओ और मैं सर्दव कहता हूं- आओ आओ' इसका अभिप्राय यह हुआ कि एक भाई हर समय नौकरों से कहा करता था, ' जाओ जाओ और काम कर लाओं।' इतनी आज्ञा देने के अतिरिक्त उसने कभी मखमली गद्दों से नीचे पैर नहीं रखा। और दूसरा भाई सर्दव कमर कसे अपने काम में डटा रहात था। उसने अपने नौकरों से सदा यही कहा, ' आओ आओ, इस काम में मेरा हाथ बंटाओं।' वह अपनी शक्ति पर स्वयं निर्भर रहता और साथ ही नौकरों से शक्तिभर काम भी लेता था। परिणाम यह हुआ कि उसकी सम्पति कई गुनी बढ़ गई। दूसरा नौकरों से 'जाओ जाओ' ही कहता रहा। वे चले गए और उसकी आज्ञा मानकर सम्पति भी विदा हो गई।
 राम कहता है 'आओ आओ', एक ही तथ्य है- मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। यदि जापान के लोगो ने राम को विचार प्रकट करने के और भी सुअवसर दिए, तो राम तर्क से यह भी सिद्ध करके दिखा देगा कि किसी बाह्य शक्ति पर- देवी-देवता अथवा कथा-पुराण पर आश्रित रहने के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है, अपना केन्द्र तो अपने अन्त:करण में है।
 स्वतंत्र मनुष्य भी एक प्रकार से बद्ध है, क्योंकि स्वतंत्रता से हम श्रीसम्पन्न बनते है और अपनी उसी स्वतंत्रता के कारण हम गुलाम हो जाते है। फिर हम क्यों रोयें-धोयें और झख मारें? अपनी सच्ची वास्तविक स्वतंत्रता का उपयोग क्यों न करें जिससे शारीरिक और सामाजिक सभी बंधन कट जाते है।
 जो धर्म आज राम जापान को सुना रहा है, वह ठीक वही धर्म है, जो आज से शताब्दियों पूर्व भगवान बुद्ध के अनुयायी यहां लायें थे। किंतु आज उसे वर्तमान युग की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने के लिए उसकी नयी व्याख्या होनी चाहिए। हम उसे पाश्चात्य विज्ञान और दर्शन की प्रभा से आलोकित कर देगें।

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