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नया धमाका

11/10/2010

''देश हमें देता है सबकुछ, हम भी तो कुछ देना सीखे''




यूं तो किसी भी गणतंत्र के लिए 63 साल कोई ज्यादा समय नहीं होता, उसकी सफलता और असफलता का लेखा-जोखा मात्र इतने समय में करना संभव नहीं है। लेकिन अगर अपने आस-पड़ोस के हालात देखें तो इस सफलता पर कम से कम संतुष्ट तो हुआ ही जा सकता है। हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि पिछले छ: दशक में (आपातकाल के अपवाद को छोड़ दें तो ) कभी भी लोकतंत्र पर कोई खतरा महसूस नहीं हुआ है। लाख विसंगतियों के बावजूद भी महज यही एक कारण सवा-शासन का जश्न मनाने के लिये पर्याप्त है। लेकिन किसी भी समाज और राष्ट्र के परिपक्वता की परीक्षा विपत्ति के समय ही होती है। इस मानदंड पर हम बहुधा खड़ा नहीं उतर पाते है। जब भी कोई आतंकी हमला या राष्ट्रीय संकट पैदा होता है, उस समय देश नि:सहाय जैसा ही महसूस करने लगता है। यदि छत्तीसगढ़ के मदनवाड़ा में नक्सल हमला होता है तो लोग विधानसभा घेरने पंहुच जाते हैं। मुंबई में हमला होने पर महिलाएं मोमबत्ती जलाकर खुद के लिये जेड प्लस सुरक्षा की मांग करने पहुच जाती हैं तो विमान अपहरण के समय लोग सब कुछ भूल कर बस अपने परिवार की ही चिंता मे देश को नजऱअंदाज कर जाते हैं। इस छ: दशक में मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारत का मध्यवर्ग अपने अधिकारों के प्रति भले ही जागरूक हो गया हो लेकिन उसके अपने कर्त्तव्य के प्रति विमुखता और उसमें दायित्व बोध का अभाव सामान्यतया देखने को मिलेगा। इतना आत्म-केन्द्रित समाज जो अपना और अपने बाल-बच्चों से आगे की सोच ही नहीं पाता। त्याग और बलिदान से दूर-दूर तक का नाता नहीं रखने वाले हमारे इस समाज को भगत सिंह की अपेक्षा तो रहती है, लेकिन शर्त ये कि वो पड़ोसी के घर पैदा हो। हमारा प्यारा लाल तो एमबीए करेगा और बहुराष्ट्र्रीय कंपनी के दफ्तर से हर महीने मोटी सैलरी लाकर मैकडोनाल्ड का पिज्जा खाते हुए, ड्राइंग रूम में एलसीडी पर फैशन टीवी देखते हुए नेताओं को कोसेगा। नेताओं से घृणा करते हुए राजनीति को लाख-लाख लानत भेजेगा। सवाल ये है कि अगर सिस्टम में कोई कमी है तो इसको सुधारने की जिम्मेदारी किसकी है? यदि राजनीति सरांध मार रहा है तो इसको साफ करने से आपको रोक कौन रहा है? विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में राजनीति भी अच्छे और भले लोगों का कैरियर क्यूं न हो? समाज को दिशा देने वाले राजनीति, या सेना की नौकरी को क्यों कर अंतिम प्राथमिकता समझा जाय? यदि आप यह मानते हैं कि सबसे अयोग्य और छॅंटे हुए लोग ही राजनीति में आते हैं, तो इस वैक्यूम के लिए जिम्मेदार कौन हैं? जब मतदान केंन्द्र तक ले जाने के लिए भी हर तरह के समाचार माध्यमों के द्वारा अभियान चलाने के बावजूद भी औसतन 30-35 प्रतिशत लोग घ् र में ही रहना मुनासिब समझे तो आपको क्या हक है किसी पर सवाल उठाने का? सवाल ये है कि आपका काम केवल घर में बैठकर सवाल पूछना या सवाल उठाना ही रह गया है? जब ताज हमले के बाद वहाँ महिलाएं प्रदर्शन कर रही थी तो इस लेखक को कांधार प्रकरण की याद आ गयी। इक्कीसवीं सदी के स्वागत में खड़ा देश अपने 200 से ज्यादा नागरिकों को उस समय मरते देखना चाहता या नहीं यह अलग सवाल है। उस समय के सरकार का निर्णय उचित था या नहीं यह भी इतिहास तय करेगा। लेकिन आप याद करें आईसी-814 के उन तमाम हवाई यात्रियों के परिजनों में से कोई एक भी ऐसा मिला हो जिसने कहा हो कि किसी भी कीमत पर खूंखार आतंकियों को नहीं छोड़ा जाय ? ये कहना तो दूर, जैसा निर्लज्ज एवं भौंडा प्रदर्शन कर उन परिजनों ने तात्कालीन सरकार की नाक में दम कर रखा था, याद कर कोई भी समाज शर्मिंदा हो सकता है। यह स्वाभाविक है कि अपने परिजनों को खतरे में देखकर किसी की भी रूह कांप जाती है। भला कौन अपने परिजनों को खोना चाहता है? सरकारें भी अपने नागरिकों को मरता हुआ थोड़े देखना चाहती है ? लेकिन आपका नागरिक बोध क्या कहता है? ऐसे ही छत्तीसगढ़ में एक दु:खद हेलीकाप्टर हादसा के समय देखने को मिला। इस मामले में पीडि़त परिजन तो नक्सलियों तक से मदद मांगने पहुँच गये थे। सरकार पर ऐसा आक्रमण मानो मुख्यमंत्री ने हेलीकाप्टर को अपने घर में छिपा कर रखा हुआ है। सरकार की बार-बार सफाई कि वो अपनी तरह से चौपर को खोजने की पूरी कोशिश कर रही है। यह संभावना भी कि हो सकता है वह छत्तीसगढ़ की सीमा में आया भी ना हो, पर किसी ने भी ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा। अंतत: उसका मलबा आंध्र की सीमा में ही पाया गया। अपने परिजनों के खोने का दु:ख या खोने की आशंका कैसी होती है वास्तव में यह भुक्तभोगी ही समझ सकता है। लेकिन सवाल यह है कि चाहे मामला कोई भी हो जिम्मेदार केवल सरकारें ही होती है ? या हर संकट का तिलस्मी समाधान केवल मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री के पास ही होता है? क्या हमारी आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं है ? क्या आपने अपने आस-पड़ोस की सुरक्षा के लिए कभी कोई सार्थक प्रयास किया है? एक बार फिर नेताओं या राजनीति की बात करें। समाज को कैसा व्यक्ति चाहिए, किस इंसान को वह आदर्श मानता है, यह जानना हो तो किसी बेटी के बाप से पूछिये। आज शायद ही कोई पिता तैयार होगा अपने बेटी का हाथ किसी सैनिक के हाथ में सौंपने को। और बात अगर राजनीति से जुड़े लोगों की हो तो सवाल ही नहीं पैदा होता है कि इन 'नीचों-भ्रष्टाचारियों' के मूंह लगे कोई भलेमानुष। लेकिन आप पुराने 'सपने' पलट कर देख लें हर राजकुमारी के सपने में आने वाले एक 'राजकुमार' होता था जो 'घोड़े' पर बैठकर आता था। यानि सैनिक और शासक कि मिली-जुली भूमिका वाला युवक उस जमाने का आदर्श था। और आज..? आज अपने रीढ़ पर लैपटॉप लादे उसको झुका कर रेंगने वाला वेतन भोगी, आपकी पहली पसंद है। तो ये फर्क है कल और आज में ! समाज के हर क्षेत्र को सबसे ज्यादा प्रभावित राजनीति ही करती है। लेकिन आज आपने राजनीति जैसे पूरे के पूरे क्षेत्र को खुला छोड़ रखा है। कोई भी तथाकथित सभ्य व्यक्ति राजनीति में आना नहीं चाहता है। आपके अनुसार राजनीति केवल उस आइएएस के लिए है जो अपनी लिप्सा के लिए अपने सेवा को छोटा समझता हो, उस डॉक्टर के लिए है जिसकी प्रेक्टिस ठीक नहीं चल रही है या उस छुटभैये की है जिसके यामहा का पेट्रोल नहीं पूरा पड़ रहा हो, उसका है जो अपनी दारू का खर्च नहीं निकाल पा रहा हो। यानि आपके अनुसार किसी अच्छे व्यक्ति के लिए यह क्षेत्र निरापद नहीं है। जबकि अब यह समय आ गया है कि हर व्यक्ति में एक दायित्व बोध पैदा हो, वे इस क्षेत्र में भी सक्रिय भागीदारी करें। राष्ट्र व राज्य का नेतृत्व करने पेशेवर युवा आगे आयें। बिल्कुल इमानदारी पूर्वक राजनीति या देश सेवा को अपना 'पेशाÓ बनाये और उसे सम्मान की नजर से देखे। यदि वास्तव में उर्जावान एवं काबिल लोग आगे आते जाय, तो कोसे जाने योग्य लोग खुद ब खुद अलग हटते जायेंगे। राजनीति को भी एक पेशवराना दक्षता प्राप्त होगा। एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा माहौल भी देश को नसीब होगा। लेकिन, इसके लिए आपको केवल 'लेना बैंक' की सदस्यता से खुद को मुक्त करना होगा। स्वयं में एक नागरिक बोध पैदा करना होगा। देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें। वर्तमान छत्तीससगढ़ के रायपुर के जेल की एक पुरानी कहानी है। आजादी अभियान चरम पर था। एक क्रांतिकारी की भूख हड़ताल ने जेल प्रशासन की नाक में दम कर रखा था। जबलपुर से उस क्रांतिकारी की माँ को प्रशासन द्वारा झूठ बोलकर बुलाया गया ताकि कैदी की भूख हड़ताल समाप्त करवायी जा सके। वस्तुस्थिति की जानकारी होने पर ये कहते हुए 'माँ' बैरंग वापस लौट गयी कि अपनी प्रतिज्ञा तोडऩे से अच्छा हो मेरा बेटा उसे निभाते हुए वीर गति को प्राप्त करे ! तो ये था उस समय का दायित्व बोध । इस तरह के खड्ग और ढाल से ही आजादी मिली थी। आखिर इस 60-70 साल में ही समाज में क्या बदल गया, यह समझ से परे है। लाख उपलबिधयों के बावजूद वर्तमान वर्तमान के ढेर सारी विसंगतियों पर आक्रोश स्वाभाविक है। लेकिन आजादी के इस महापर्व के आलोक में हमें अपने योगदान पर भी विचार करना होगा। केवल मोमबत्ती जलाने से कुछ भी बदलने वाला नहीं है। सरकारों और राजनीति को कोसना भी समाधान नहीं है। समाधान ये है कि हम हर तंत्र में सक्रिय भागीदारी करें। और ख़ासकर राजनीति जैसे क्षेत्रों में भी बढ़-चढ़ कर अपनी भूमिका तलाशें। देश के प्रति दायित्व-बोध ही एक ऐसी भावना है जो आने वाली पीढियों को भी देश पर गर्व करने का अवसर प्रदान करेगा।

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