इस समय माफिया राज्य चला रहा है। माफिया बाजार द्वारा संचालित होता है। भारत में जितनी नीतियाँ चल रही हैं, वे बाजारवादी ताकतों द्वारा निर्देशित हैं। बाजारबादी ताकतों का सरगना अमेरिका है। भारत में बाजारवाद कब आया? जब 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार बनी। आजादी के बाद औद्योगीकरण की आंधी ने भारत से स्वायत्तता छीन ली क्योंकि औद्योगीकरण की आधारशिला विदेशी कर्ज पर रखी गई है। भारत सरकार की हर नीति, हर निर्णय, हर घटना के पीछे जो ताकत काम कर रही है वह विदेशों द्वारा संचालित है। इसका मुख्य कारण ‘कर्ज का बोझ’ है।
भारतवासी इतने भोले हैं कि उन्हें यह नहीं पता कि भारत में सरकार कौन बना रहा है? मन्त्रीपद किसकी अनुमति से मिल रहे हैं? वे सोचते हैं हम सरकार बनाते हैं, हम गिराते हैं। लोकतन्त्र में हमारी शक्ति लगी हुई है। नहीं, देशवासियो! चुनाव एवं चुनावी प्रक्रिया एक धोखा है। चुनाव एक फरेब है। पिछले दो सरकारों (सप्रंग सरकार के दो कार्यकाल) में आपने कितने ऐसे मन्त्री पद देखे, जिन्हें जनता ने नहीं चुना। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह, गृहमन्त्री शिवराज पाटिल, शिक्षा मन्त्री अर्जुन सिंह, कानून मन्त्री हंसराज, विदेश मन्त्री प्रणव मुखर्जी इत्यादि। इन्हें न तो आपने चुना, न ही भारत की शासन सत्ता ने चुना। क्यों? क्योंकि भारत में स्वतन्त्र शासन सत्ता नहीं है। फिर किसने चुना? बाजारी ताकतों के सिरमौर अमेरिका ने चुना। आज भारतीय शासनतन्त्र जिस तरह अमेरिका के आगे पूंछ हिला रहा है, आपको अभी तक हमारे विश्लेषण पर विश्वास न हो तो हम आपकी बुद्धि पर तरस ही कर सकते हैं। जब 1991 में बाजारवाद आया, वह भारत के अर्थतन्त्र की करतूत थी, जिसका मन्त्री मनमोहन सिंह था। कामरेड अशोक मित्रा ने स्पष्ट कर दिया था कि मनमोहन सिंह को वित्तमन्त्री नरसिम्हा राव ने नहीं, अमेरिका ने बनाया है। मनमोहन सिंह ने उसकी कीमत में अमेरिका की ‘आत्मा॔’ बाजारवाद को पूरी तरह भारत में उतार दिया।
मनमोहन सिंहं ने क्या किया?
1. उसने सरकार द्वारा चलाए जा रहे अनेक अनुष्ठान निजी हाथों में सौंपने शुरु कर दिए।
2. उसके बाद निजी व्यवसाईयों को आमन्ति्रत करना शुरु कर दिया, जिन्हें अभी तक सरकारी काम में दखल देने की अनुमति नहीं थी।
3. जैसे वायु परिवहन मार्ग, खुदरा व्यापार क्षेत्र, बीमा क्षेत्र, जलमार्ग इत्यादि। तर्क दिया गया कि व्यवसाय करना उद्यमियों का कार्य है। सरकार इसमें दखल नहीं देगी। यह मुक्त व्यापार का पैदायश बिन्दू माना गया, जिसका जनक अमेरिका है।
4. याद रखें अमेरिका यदि हमारी विदेश नीति में लगातार दखल देता रहा है, वह हमारी आंखों में खटकता है, लेकिन अर्थतन्त्र में उसने जिस प्रकार मनमोहन सिंह को माध्यम बना कर दखल दिया, उसकी भनक तक हम भारतवासियों को नहीं लगी। इसी कारण मनमोहन सिंह जी सम्माननीय व्यक्ति के पद पर आज तक विराजमान हैं। उनका जो भी अपमान करता है, मीडिया उसके पीछे हाथ धो कर पड़ जाता है। मीडिया का संचालक कौन? अमेरिका? भारतवासियों की अज्ञानता के अन्धेरे का कारण? अमेरिका? दोषी कौन? भारत के बिकाऊ बुद्धिजीवी।
5. अमेरिका ने धर्मान्तरण के बल पर साम्राज्यवाद फैलाया, सेना के बल पर अस्त्रो शस्त्रों का डर दिखा कर आतंक फैलाया, लेकिन उसे सबसे अधिक कामयाबी बाजारवाद फैला कर मिली है।
6. अमेरिकी नीतियों के अनुसार व्यापार में देसी माल का सीमा बन्धन नहीं होना चाहिए एवं निवेश के भी अबाध अधिकार होने चाहिए।
7. अमेरिका की साम्राज्यवादी ताकत अर्थात वैश्वीकरण की ताकत के कारण भारत सरकार ने संविधान में दर्ज अपने कल्याणकारी स्वरूप को लात मार दी है, जिसके अन्तर्गत उसके शिक्षा एवं स्वास्थ्य को अपने हाथ में लेकर गरीब जनता की सेवा का जिम्मा लिया था। आईए ज़रा स्वास्थ्य की बदहाली के कारण खोजें। फिर शिक्षा का षड़यन्त्र आपको समझाएंगे।
स्वास्थ्य सेवाएं क्यों चरमरा गई?
आप जानते है। कि सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी है, दवाएं उपलब्ध नहीं, परीक्षण का सामन नहीं, कई अन्य ज़रूरत का सामान नहीं। कुल मिला कर सरकारी अस्पतालों की स्थिति हास्यास्पद है। कारण? सरकार का पूरा ध्यान निजी क्षेत्र के अस्पतालों को प्रोत्साहित करने में लगा हुआ है। आज निजी अस्पतालों की संख्या बढती चली जा रही है। वे मनमानी फीस ले रहे हैं, फर्जी दवाईयाँ दे रहे हैं, जबरदस्ती आपरेशन कर रहे हैं, टेस्ट करवा रहे हैं, डरा रहे हैं। उन पर सरकारी नियन्त्रण नदारद है। बेकाबू साण्ड की तरह ये पूरे देश को बीमार करने पर उतारू हैं। जगह जगह नुक्कड़ नुक्कड़ पर दवा की दुकाने खुली हैं। जनता दवा खाने को विवश हो गई है क्योकि एक दवा खाने की परिणति दूसरी दवा को जबरदस्ती गले लगाना होता है। इस प्रकार दवा कम्पनियों के सौदागर जबरदस्त चांदी कूट रहे हैं। गरीब एवं असहाय जनता इलाज से बेजार हो गई है। चिकित्सा अमीरों की रखैल बन गई है। इसका कारण अमेरिका से आयतित दवा कम्पनियों का व्यापार है जो भारत को बीमार करके अपना उद्योग चमकाना चाहता है। जनता के मरने सिसकने को मज़बूर करने वाला भारतीय शासनतन्त्र पूरी तरह संवेदनहीन हो चुका है।
शिक्षा में गहराती अमेरिकी नीति :
सरकारी स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों का ढांचा चरमराता चला जा रहा है। आवश्यक संसाधन उपलब्ध न होने से अध्यापकों के रिक्त स्थान न भरने की परम्परा सी बन गई है। सरकार जानबूझ कर शिक्षा से संसाधनों की घोर उपेक्षा कर रही है। इसी कारण स्कूलों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में हजारों की संख्या में अध्यापकों के स्थान खाली पड़े हैं, लेकिन भर्ती नहीं हो र ही है। अब तो मज़दूरों की तरह ठेके पर अध्यापकों को नियुक्त करने का चलन चल पड़ा है। शिक्षक का इससे अधिक मज़ाक क्या उड़ाया जा सकता है। यदि शिक्षक के हाथ में समाज का निर्माण है, तो समाज के साथ कैसा खिलवाड़ किया जा रहा है। कहाँ जा रही है शिक्षा? अपमानित शिक्षक कैसे छात्र के जीवन का निर्माण करेगा? पिछले दिनों ऐसे 15 विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति कर दी गई, जिनका बजूद ही नहीं है। इन महान कुलपतियों ने सरकारी इशारों पर इसी सत्र में पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी। अब छात्र सम्पर्क कैसे करें? इसके लिए इन्होंने केवल अपने ईमेल पते दिए। ऐसा करने के पीछे सरकारी मंशा समझिए। जनता की नज़रों में सरकारी क्षेत्र में स्थापित वि.वि. की गुणवत्ता गिर जाएगी और छात्र मज़बूरी वश निजी वि.वि. की तरफ आकर्षित होंगे। सरकार के इस आचरण के पीछे निश्चय ही सरकारी नुमांयदों को निजी विवि खोलने वाले घूस दे रहे हैं। निजी विवि किसी न किसी सरकारी विवि से सम्बन्धित होते हैं लेकिन इन पर उस
विवि का सरकारी नियन्त्रण नहीं होता। ये विवि आमतौर पर व्यवसायिक पाठ्यक्रम चलाते हैं। सरकारी नियन्त्रण के अभाव में ये मनमानी फीस लेते हैं। मैडीकल कालेजों की दयनीय हालत यहाँ तो सरओम नीलामी चल रही है। बोली 25 लाख से एक करोड़ तक पहुंच चुकी है। इस क्षेत्र में छात्रों की मेहनत नहीं, माँ बाप की अमीरी की तूती बोल रही है। छात्रों की मेहनत, योग्यता, प्रतिभा को ‘नीलामी’ ने निगल लिया है। इस प्रकार इस क्षेत्र में माँ सरस्वती का चीरहरण हृदयविदारक है।
विवि में योग्यता के आधार पर सीटों की संख्या में निरन्तर कमी हो रही है। एन आर आई, मैनेजमेण्ट कोटा की सीटें बढ रही है। जो कि शुद्ध व्यापार है। पढाई की गुणवत्ता एवं योग्यता को दरकिनार कर केवल पैसा उगाही ही सरकारी तन्त्र का उद्देश्य बन चुकी है।
परीक्षा का स्तर : निजी वि वि में परीक्षा का अधिकार सरकार द्वारा स्थापित वि वि को होता था। लेकिन निजी विवि कं छात्र इस परीक्षा में अधिकतर फेल होते थे क्योंकि निजी विवि में फैक्ल्टी का स्तर, पाठ्यक्रम का स्तर घटिया होता है। इससे इनकी बदनामी होती है एवं इनका शैक्षणिक व्यापार को चोट पहुंचती है। आप जानते हैं कि शैक्षणिक व्यापार में जितने उद्यमी निवेश कर रहे हैं वे अधिकतर भूमाफिया से सम्बन्ध रखते हैं और उनकी राजनेताओं से सांठ गांठ होती है। इस प्रकार निजी विवि राजनेताओं के दूध देने वाली तगड़ी भैंस है। जब विद्यार्थी फेल होते हैं तो भूमाफिया, राजनेताओं को झटका लगता है क्योंकि उनके वित्तलाभ प्रभावित होते हैं। इसलिए निजी महाविद्यालयों को विधानसभा में अधिनियम पारित करके विवि बनाया जा रहा है या फिर उन्हें डीम्ड विवि अर्थात मानित विवि का दर्जा दिया जा रहा है। इस प्रकार परीक्षा, अंक एवं प्रमाण पत्र देने का अधिकार शिक्षक के पास नहीं, उद्योगपति के हाथ चला गया है। आप बताईए प्रतिभा, योग्यता का इससे अधिक क्रूर मज़ाक क्या उड़ाया जा सकता है? जो पढना चाहते हैं, पढने योग्य दिमाग रखते हैं वे पैसा न होने के कारण विवश हैं। शिक्षा क्षेत्र का कीचड़ हर विद्यार्थी की प्रतिभा को दागदार बना रहा है।
आज जगह जगह छोटे राज्यों में दर्जनों विवि खुल रहे हैं एवं राज्य सरकारें उन्हें वैधानिक कवच मुहैया करवाती हैं। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी फैंसला दे दिया है कि निजी विवि सरकार से कोई पैसा नहीं लेते, अतः सरकार उनके फीस के ढांचे में दखल नहीं दे सकती।
सरकार में शिक्षा को बाजारबाद के भूखे शेर के सामने क्यों डाल दिया?
सरकारी नीतियों पर भारतीय चिंतन नदारद है। भारत की नीतियाँ विदेश में बनती है एवं भारत में लागू होती हैं। फिर भी हम स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं? कैसे?
क्योंकि तुम्हें इस ‘छल’ का ज्ञान नहीं है। आजादी के बाद विदेशी कर्ज द्वारा विकास का कुप्रचार किया गया एवं मुक्त व्यापार द्वारा भारत के अर्थतन्त्र को ध्वस्त कर दिया गया है। अब परिणाम हमारे सामने है। विकास का असली चेहरा देख लीजिए, मुक्त व्यापार द्वारा भारतीय संस्कृति की टूटी हुई री़ढ की हड्डी देख लीजिए।
लेकिन लेकिन सरकार को क्या मिला?
सरकार ने विदेशी दबाब में आकर भारत के छात्र वर्ग को पढाई के लिए विदेशों की शरण लेने के लिए विवश कर दिया है। आप जानते हैं कि अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देश भारत के छात्र वर्ग की पढाई से कितनी अधिक कमाई कर रहे हैं। दूसरा, भारतीय युवा पी़ढी का जुझारूपन, प्रतिभा, तेज़ दिमाग से पश्चिमी देश घबराए हुए हैं। उनकी संताने गलत कामों में पड़ कर नष्ट हो रही हैं। वे चाहते हैं कि भारत का युवा वर्ग निराशा के गर्त में डूब मरे।
विदेशियों के एजैण्ट भारत के राजनेता, नौकरशाही, भूमाफिया, बुद्धिजीवी हैं जो शिक्षा को कच्चा चबा रहे हैं एवं शिक्षा को नष्ट करने पर आमादा हैं।
कौन आएगा भारत को बचाने?
यदि कोई नहीं आया तो हम सबकी खैर नहीं।
भारत नाम का देश क्या मिट जाएगा?
रेनू सूद
भारतवासी इतने भोले हैं कि उन्हें यह नहीं पता कि भारत में सरकार कौन बना रहा है? मन्त्रीपद किसकी अनुमति से मिल रहे हैं? वे सोचते हैं हम सरकार बनाते हैं, हम गिराते हैं। लोकतन्त्र में हमारी शक्ति लगी हुई है। नहीं, देशवासियो! चुनाव एवं चुनावी प्रक्रिया एक धोखा है। चुनाव एक फरेब है। पिछले दो सरकारों (सप्रंग सरकार के दो कार्यकाल) में आपने कितने ऐसे मन्त्री पद देखे, जिन्हें जनता ने नहीं चुना। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह, गृहमन्त्री शिवराज पाटिल, शिक्षा मन्त्री अर्जुन सिंह, कानून मन्त्री हंसराज, विदेश मन्त्री प्रणव मुखर्जी इत्यादि। इन्हें न तो आपने चुना, न ही भारत की शासन सत्ता ने चुना। क्यों? क्योंकि भारत में स्वतन्त्र शासन सत्ता नहीं है। फिर किसने चुना? बाजारी ताकतों के सिरमौर अमेरिका ने चुना। आज भारतीय शासनतन्त्र जिस तरह अमेरिका के आगे पूंछ हिला रहा है, आपको अभी तक हमारे विश्लेषण पर विश्वास न हो तो हम आपकी बुद्धि पर तरस ही कर सकते हैं। जब 1991 में बाजारवाद आया, वह भारत के अर्थतन्त्र की करतूत थी, जिसका मन्त्री मनमोहन सिंह था। कामरेड अशोक मित्रा ने स्पष्ट कर दिया था कि मनमोहन सिंह को वित्तमन्त्री नरसिम्हा राव ने नहीं, अमेरिका ने बनाया है। मनमोहन सिंह ने उसकी कीमत में अमेरिका की ‘आत्मा॔’ बाजारवाद को पूरी तरह भारत में उतार दिया।
मनमोहन सिंहं ने क्या किया?
1. उसने सरकार द्वारा चलाए जा रहे अनेक अनुष्ठान निजी हाथों में सौंपने शुरु कर दिए।
2. उसके बाद निजी व्यवसाईयों को आमन्ति्रत करना शुरु कर दिया, जिन्हें अभी तक सरकारी काम में दखल देने की अनुमति नहीं थी।
3. जैसे वायु परिवहन मार्ग, खुदरा व्यापार क्षेत्र, बीमा क्षेत्र, जलमार्ग इत्यादि। तर्क दिया गया कि व्यवसाय करना उद्यमियों का कार्य है। सरकार इसमें दखल नहीं देगी। यह मुक्त व्यापार का पैदायश बिन्दू माना गया, जिसका जनक अमेरिका है।
4. याद रखें अमेरिका यदि हमारी विदेश नीति में लगातार दखल देता रहा है, वह हमारी आंखों में खटकता है, लेकिन अर्थतन्त्र में उसने जिस प्रकार मनमोहन सिंह को माध्यम बना कर दखल दिया, उसकी भनक तक हम भारतवासियों को नहीं लगी। इसी कारण मनमोहन सिंह जी सम्माननीय व्यक्ति के पद पर आज तक विराजमान हैं। उनका जो भी अपमान करता है, मीडिया उसके पीछे हाथ धो कर पड़ जाता है। मीडिया का संचालक कौन? अमेरिका? भारतवासियों की अज्ञानता के अन्धेरे का कारण? अमेरिका? दोषी कौन? भारत के बिकाऊ बुद्धिजीवी।
5. अमेरिका ने धर्मान्तरण के बल पर साम्राज्यवाद फैलाया, सेना के बल पर अस्त्रो शस्त्रों का डर दिखा कर आतंक फैलाया, लेकिन उसे सबसे अधिक कामयाबी बाजारवाद फैला कर मिली है।
6. अमेरिकी नीतियों के अनुसार व्यापार में देसी माल का सीमा बन्धन नहीं होना चाहिए एवं निवेश के भी अबाध अधिकार होने चाहिए।
7. अमेरिका की साम्राज्यवादी ताकत अर्थात वैश्वीकरण की ताकत के कारण भारत सरकार ने संविधान में दर्ज अपने कल्याणकारी स्वरूप को लात मार दी है, जिसके अन्तर्गत उसके शिक्षा एवं स्वास्थ्य को अपने हाथ में लेकर गरीब जनता की सेवा का जिम्मा लिया था। आईए ज़रा स्वास्थ्य की बदहाली के कारण खोजें। फिर शिक्षा का षड़यन्त्र आपको समझाएंगे।
स्वास्थ्य सेवाएं क्यों चरमरा गई?
आप जानते है। कि सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी है, दवाएं उपलब्ध नहीं, परीक्षण का सामन नहीं, कई अन्य ज़रूरत का सामान नहीं। कुल मिला कर सरकारी अस्पतालों की स्थिति हास्यास्पद है। कारण? सरकार का पूरा ध्यान निजी क्षेत्र के अस्पतालों को प्रोत्साहित करने में लगा हुआ है। आज निजी अस्पतालों की संख्या बढती चली जा रही है। वे मनमानी फीस ले रहे हैं, फर्जी दवाईयाँ दे रहे हैं, जबरदस्ती आपरेशन कर रहे हैं, टेस्ट करवा रहे हैं, डरा रहे हैं। उन पर सरकारी नियन्त्रण नदारद है। बेकाबू साण्ड की तरह ये पूरे देश को बीमार करने पर उतारू हैं। जगह जगह नुक्कड़ नुक्कड़ पर दवा की दुकाने खुली हैं। जनता दवा खाने को विवश हो गई है क्योकि एक दवा खाने की परिणति दूसरी दवा को जबरदस्ती गले लगाना होता है। इस प्रकार दवा कम्पनियों के सौदागर जबरदस्त चांदी कूट रहे हैं। गरीब एवं असहाय जनता इलाज से बेजार हो गई है। चिकित्सा अमीरों की रखैल बन गई है। इसका कारण अमेरिका से आयतित दवा कम्पनियों का व्यापार है जो भारत को बीमार करके अपना उद्योग चमकाना चाहता है। जनता के मरने सिसकने को मज़बूर करने वाला भारतीय शासनतन्त्र पूरी तरह संवेदनहीन हो चुका है।
शिक्षा में गहराती अमेरिकी नीति :
सरकारी स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों का ढांचा चरमराता चला जा रहा है। आवश्यक संसाधन उपलब्ध न होने से अध्यापकों के रिक्त स्थान न भरने की परम्परा सी बन गई है। सरकार जानबूझ कर शिक्षा से संसाधनों की घोर उपेक्षा कर रही है। इसी कारण स्कूलों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में हजारों की संख्या में अध्यापकों के स्थान खाली पड़े हैं, लेकिन भर्ती नहीं हो र ही है। अब तो मज़दूरों की तरह ठेके पर अध्यापकों को नियुक्त करने का चलन चल पड़ा है। शिक्षक का इससे अधिक मज़ाक क्या उड़ाया जा सकता है। यदि शिक्षक के हाथ में समाज का निर्माण है, तो समाज के साथ कैसा खिलवाड़ किया जा रहा है। कहाँ जा रही है शिक्षा? अपमानित शिक्षक कैसे छात्र के जीवन का निर्माण करेगा? पिछले दिनों ऐसे 15 विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति कर दी गई, जिनका बजूद ही नहीं है। इन महान कुलपतियों ने सरकारी इशारों पर इसी सत्र में पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी। अब छात्र सम्पर्क कैसे करें? इसके लिए इन्होंने केवल अपने ईमेल पते दिए। ऐसा करने के पीछे सरकारी मंशा समझिए। जनता की नज़रों में सरकारी क्षेत्र में स्थापित वि.वि. की गुणवत्ता गिर जाएगी और छात्र मज़बूरी वश निजी वि.वि. की तरफ आकर्षित होंगे। सरकार के इस आचरण के पीछे निश्चय ही सरकारी नुमांयदों को निजी विवि खोलने वाले घूस दे रहे हैं। निजी विवि किसी न किसी सरकारी विवि से सम्बन्धित होते हैं लेकिन इन पर उस
विवि का सरकारी नियन्त्रण नहीं होता। ये विवि आमतौर पर व्यवसायिक पाठ्यक्रम चलाते हैं। सरकारी नियन्त्रण के अभाव में ये मनमानी फीस लेते हैं। मैडीकल कालेजों की दयनीय हालत यहाँ तो सरओम नीलामी चल रही है। बोली 25 लाख से एक करोड़ तक पहुंच चुकी है। इस क्षेत्र में छात्रों की मेहनत नहीं, माँ बाप की अमीरी की तूती बोल रही है। छात्रों की मेहनत, योग्यता, प्रतिभा को ‘नीलामी’ ने निगल लिया है। इस प्रकार इस क्षेत्र में माँ सरस्वती का चीरहरण हृदयविदारक है।
विवि में योग्यता के आधार पर सीटों की संख्या में निरन्तर कमी हो रही है। एन आर आई, मैनेजमेण्ट कोटा की सीटें बढ रही है। जो कि शुद्ध व्यापार है। पढाई की गुणवत्ता एवं योग्यता को दरकिनार कर केवल पैसा उगाही ही सरकारी तन्त्र का उद्देश्य बन चुकी है।
परीक्षा का स्तर : निजी वि वि में परीक्षा का अधिकार सरकार द्वारा स्थापित वि वि को होता था। लेकिन निजी विवि कं छात्र इस परीक्षा में अधिकतर फेल होते थे क्योंकि निजी विवि में फैक्ल्टी का स्तर, पाठ्यक्रम का स्तर घटिया होता है। इससे इनकी बदनामी होती है एवं इनका शैक्षणिक व्यापार को चोट पहुंचती है। आप जानते हैं कि शैक्षणिक व्यापार में जितने उद्यमी निवेश कर रहे हैं वे अधिकतर भूमाफिया से सम्बन्ध रखते हैं और उनकी राजनेताओं से सांठ गांठ होती है। इस प्रकार निजी विवि राजनेताओं के दूध देने वाली तगड़ी भैंस है। जब विद्यार्थी फेल होते हैं तो भूमाफिया, राजनेताओं को झटका लगता है क्योंकि उनके वित्तलाभ प्रभावित होते हैं। इसलिए निजी महाविद्यालयों को विधानसभा में अधिनियम पारित करके विवि बनाया जा रहा है या फिर उन्हें डीम्ड विवि अर्थात मानित विवि का दर्जा दिया जा रहा है। इस प्रकार परीक्षा, अंक एवं प्रमाण पत्र देने का अधिकार शिक्षक के पास नहीं, उद्योगपति के हाथ चला गया है। आप बताईए प्रतिभा, योग्यता का इससे अधिक क्रूर मज़ाक क्या उड़ाया जा सकता है? जो पढना चाहते हैं, पढने योग्य दिमाग रखते हैं वे पैसा न होने के कारण विवश हैं। शिक्षा क्षेत्र का कीचड़ हर विद्यार्थी की प्रतिभा को दागदार बना रहा है।
आज जगह जगह छोटे राज्यों में दर्जनों विवि खुल रहे हैं एवं राज्य सरकारें उन्हें वैधानिक कवच मुहैया करवाती हैं। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी फैंसला दे दिया है कि निजी विवि सरकार से कोई पैसा नहीं लेते, अतः सरकार उनके फीस के ढांचे में दखल नहीं दे सकती।
सरकार में शिक्षा को बाजारबाद के भूखे शेर के सामने क्यों डाल दिया?
सरकारी नीतियों पर भारतीय चिंतन नदारद है। भारत की नीतियाँ विदेश में बनती है एवं भारत में लागू होती हैं। फिर भी हम स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं? कैसे?
क्योंकि तुम्हें इस ‘छल’ का ज्ञान नहीं है। आजादी के बाद विदेशी कर्ज द्वारा विकास का कुप्रचार किया गया एवं मुक्त व्यापार द्वारा भारत के अर्थतन्त्र को ध्वस्त कर दिया गया है। अब परिणाम हमारे सामने है। विकास का असली चेहरा देख लीजिए, मुक्त व्यापार द्वारा भारतीय संस्कृति की टूटी हुई री़ढ की हड्डी देख लीजिए।
लेकिन लेकिन सरकार को क्या मिला?
सरकार ने विदेशी दबाब में आकर भारत के छात्र वर्ग को पढाई के लिए विदेशों की शरण लेने के लिए विवश कर दिया है। आप जानते हैं कि अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देश भारत के छात्र वर्ग की पढाई से कितनी अधिक कमाई कर रहे हैं। दूसरा, भारतीय युवा पी़ढी का जुझारूपन, प्रतिभा, तेज़ दिमाग से पश्चिमी देश घबराए हुए हैं। उनकी संताने गलत कामों में पड़ कर नष्ट हो रही हैं। वे चाहते हैं कि भारत का युवा वर्ग निराशा के गर्त में डूब मरे।
विदेशियों के एजैण्ट भारत के राजनेता, नौकरशाही, भूमाफिया, बुद्धिजीवी हैं जो शिक्षा को कच्चा चबा रहे हैं एवं शिक्षा को नष्ट करने पर आमादा हैं।
कौन आएगा भारत को बचाने?
यदि कोई नहीं आया तो हम सबकी खैर नहीं।
भारत नाम का देश क्या मिट जाएगा?
रेनू सूद
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