प्रत्येक कालखंड में कोई न कोई ऐसी मानवीय सभ्यता रही है जिसे अन्य सभ्यताओं ने श्रेष्ठ और अनुकरणीय माना। एक लंबे समय तक यह गौरव भारत को प्राप्त था। ज्ञान, विज्ञान, कला, संस्कृति सभी क्षेत्रों में भारत ने मानव जाति को बहुत कुछ सीखने का अवसर प्रदान किया। उसे उस समय की दुनिया ने विश्वगुरु का दर्जा दिया। किंतु यह सब पुरानी बात हो चुकी है। आज यह दर्जा हमसे छिन चुका है। अतीत की उपलब्धियों को यदि छोड़ दें तो आज हमारे पास विश्व को सिखाने लायक कुछ विशेष नहीं है। बल्कि नई परिस्थितियों में हमारे लिए दुनिया से सीखने की गुंजाइश ज्यादा है। लेकिन सीखने की यह प्रक्रिया कैसी हो, कितनी हो और किस धरातल पर हो, इसे लेकर देश में अभी भी सही समझ विकसित नहीं हो सकी है। आज जिन लोगों के हाथ में हमारे देश की बागडोर है, उनका देश की परंपरा और संस्कृति पर से विश्वास उठ चुका है। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि देश की प्रगति पश्चिम की हूबहू नकल करके ही सुनिश्चित की जा सकती है। इस देश पर अधिकार जमाने के बाद अंग्रेजों ने हमें कुटिलता पूर्वक जिस रास्ते पर हांका था, 1947 के बाद हमारे अपने नेता भी उसी रास्ते पर हमें हांके जा रहे हैं, चाहे वह नासमझी में ही ऐसा कर रहे हों। हमारे नेता जिस प्रकार हमें गलत रास्ते पर हांके जा रहे हैं, उसी प्रकार हम भी नासमझी में उसी गलत रास्ते पर बिना सोचे-विचारे बढ़े जा रहे हैं। न तो हमने और न ही हमारे नेताओं ने कभी सोचा कि औपनिवेशिक लूट से जमा की गई अकूत पूंजी, विशाल भूभाग, अल्प जनसंख्या, ठंडी जलवायु एवं राज्यकेन्द्रित सामाजिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी देशों ने अपने लिए विकास का जो रास्ता चुना, वह हमारे देश के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है? आजादी के बाद हमारे देश में कृषि और उद्योग सहित तमाम क्षेत्रों में पश्चिम की नकल करने की कोशिश की गई। देश में दूध उत्पादन बढ़ाने की जब बात आई तो हमारे नीति निर्माताओं ने एक झटके में यह तय कर लिया कि भारतीय गायों की नस्ल घटिया है और इसलिए उन्हें शीघ्रातिशीघ्र कृत्रिम गर्भाधान के जरिए विदेशी नस्लों में तब्दील कर दिया जाना चाहिए। इस कदम से तात्कालिक रूप से दूध उत्पादन जरूर बढ़ा लेकिन इसके दुष्परिणाम भी शीघ्र सबके सामने आने लगे। विपरीत जलवायु एवं उचित आहार न मिलने के कारण संकर नस्ल की गायों से एक ओर जहां कम दूध मिल रहा है, वहीं उनके रखरखाव पर भी देशी गायों की अपेक्षा कई गुना अधिक खर्च हो रहा है। इन गायों के बछड़े भी कृषि कार्य के लिए उतने उपयुक्त नहीं हैं जितने देशी गायों के बछड़े। दूध की गुणवत्ता में देशी गायों की बराबरी करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। सरकार ने अपनी श्नस्ल सुधार्य नीति को इतनी तत्परता से लागू किया कि किसानों और आम गौपालकों के यहां शुद्ध नस्ल की देशी गाय के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। यह तो शुक्र है उन गौशालाओं का जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी भारतीय नस्ल के गोधन को न केवल संरक्षित किया बल्कि यह भी साबित कर दिखाया कि भारतीय नस्ल की गाएं भारतीय जलवायु में सर्वश्रेष्ठ हैं। अब हमारे नीति निर्माताओं को भी चाहिए कि वे अपनी गल्ती जल्दी से जल्दी ठीक कर लें और भारतीय गोवंश को विदेशी नस्लों में बदलने की प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगाएं। हमारे नेताओं को यह समझना होगा कि पश्चिम के अंधानुकरण से देश का कल्याण नहीं हो सकता। जहां तक पश्चिम से सीखने की बात है तो उसमें कोई बुराई नहीं, हम पश्चिम क्या पूरी दुनिया से सीखें, किंतु अपनी संस्कृति, परंपरा और अपने संसाधनों के प्रति विश्वास के साथ, उनके प्रति अविश्वास और हीनभावना के साथ नहीं।
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