प्रसिद्ध विद्वान पपाल्कनर ने कहा था, ''अतीत न कभी मरता है और न दफन होता है। यहां तक कि यह बीती बात भी नहीं होती।'' सचमुच 1962 का अतीत अभी मरा नहीं है। लगता है वह अब पुन: स्वयं को दुहराना चाहता है। 1962 की पृष्ठभूमि फिर से बनने लगी है।
लगभग हर सूर्यास्त का परिदृश्य बीती शाम के आसमानी नजारे के समान ही होता है। चीन का दोमुंहापन, भारत का दब्बूपन, चीन द्वारा बारम्बार सीमा का अतिक्रमण, सब कुछ हमें 1962 का स्मरण दिलाता है। 1849 में चीन ने उइगरों की भूमि झिंझियांग को आत्मसात कर लिया था। यह पूर्वी तुर्कीस्तान का एक विस्तृत भूभाग था। इसके निवासी उइगर तुर्की मूल के मुसलमान हैं। चीनी विस्तारवाद के शिकार ये उइगर आज चीन के गुलाम हैं। यह झिंझियांग कितना बड़ा है इसे समझने के लिए इतना जानना पर्याप्त होगा कि यह भारतीय क्षेत्रफल के आधे के बराबर है। फिर चीन ने तिब्बत को हथिया लिया। आज चीन क्षेत्रफल में भारत से तीन गुणा बड़ा है। आबादी भी अधिक है। लेकिन इतना बड़ा होकर भी कृषियोग्य भूमि उसके पास कम है। हथियारों के जखीरे और परमाणु आयुधों के भण्डार से चीन अहिंसक पड़ोसियों के मन में भय और शरीर में सिहरन तो पैदा कर सकता है किन्तु अपने निवासियों को दो जून की रोटी नहीं दे सकता है। भारत के पास 19 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि है जबकि अपनी विशालता के बावजूद भी चीन के पास मात्र 12.4 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है। इसलिए उसकी नजर सुजला सुफला भारत भूमि पर है। अपनी विशाल सेना और भारत के हर कोने में उपस्थित अपने मुखर एवं हिंसक समर्थकों के बल पर वह एक बार फिर से भारत को रौंदना चाहता है।
भारत सरकार का दब्बू चरित्र भी उसे ऐसा करने के लिए प्रतिपल उत्साहित कर रहा है। 1962 और उसके पूर्व भारत में नेहरू का एकछत्र शासन था। नेहरू सामान्यतरू पश्चिमी और विषेशतरू समाजवादी सोच के थे। वे साम्यवादी देशों को अपना मित्र समझते थे। 1962 के आक्रमण के पश्चात उन्होंने कहा, हम स्वनिर्मित स्वप्नलोक में विचर रहे थे। सचमुच साम्यवादी चीन को वे अपना भाई समझते थे। यही उनका दिवास्वप्न था। 1962 में चीनी आक्रमण के पश्चात नेहरू का स्वप्न टूटा। किन्तु नेहरू के नहीं रहने पर भी नेहरूवादी सुविधाभोगी बौद्धिकों एवं सत्तासुखी राजनीतिज्ञों की सोच वही है जो 1962 के पूर्व नेहरू की थी। नेहरू के ख्यालात चीन के प्रति बहुत ऊंचे थे। साम्यवादी चीन को वे एक महान राष्ट्र मानते थे। भारत-चीन मैत्री को वे 2200 वर्ष पुरानी मानते थे। उनके लिए यह मैत्री काल-परीक्षित थी। अटूट, अनाहत और निश्छल। वे भूल गये थे कि विगत सहस्त्राब्दियों के चीन और आज के चीन में कितना फर्क है। तब चीन हमसे किंचित दूर था। हमारे और उसके बीच में एक बफर स्टेट के रूप में तिब्ब्त था। आज वह हमारे दहलीज पर खड़ा एक धृष्ट और दुष्ट दैत्य है, जो अतीत के सम्बन्धों से बेपरवाह हमारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। सांस्कृतिक भारत के ही एक अंग तिब्बत को उदरस्थ कर वह हमारी ओर भूखी नजरों से देख रहा है। नेहरू के स्वप्न लोक का महान नायक चीन उनके सम्बन्ध में क्या सोच रहा था? इसका उत्तर चीन की सरकारी पत्रिका श्वर्ल्ड कल्चर्य में नेहरू के सम्बन्ध में की गयी तात्कालिक टिप्पणी में निहित है। उसमें नेहरू को स्वतंत्रता संग्राम का विरोधी, जनांदोलन का प्रतिरोधक तथा साम्राज्यवादियों का निष्ठावान सेवक कहा गया है। सम्पूर्ण विश्व में पठित एवं विश्लेषित इस पत्रिका की यह टिप्पणी नेहरू एवं भारत सरकार के ध्यान में तो आयी, किन्तु तब वे कर भी क्या सकते थे? सारी जिन्दगी कटी बुतपरस्ती में, आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे। नेहरू के बाद भी वही हालात हैं। हकीकत से मुंह छिपाना कोई कारगर उपाय नहीं है। कश्मीर सरकार तो लिख कर भारत सरकार से गुहार लगा रही है, बचाओ, बचाओ, चीन इंच दर इंच अंदर घुस रहा है। ऐसी ही गुहार अरूणाचल प्रदेश के वर्तमान सांसद तकम संजय तथा पूर्व सांसद किरेन रिजेजू लगा रहे हैं। किन्तु हमारे राजनेताओं की क्या सोच है? वे सलाह दे रहे हैं, मुदह आंख कतहू कछू नाही। चीन के द्वारा सीमा पर 1906 के पश्चात 300 वारदात पूरे किए जाने के उपलक्ष्य में तत्कालीन विदेश मंत्री का दिया गया बयान बहुत ही दिलचस्प है। वे फरमाते हैं कि सीमा एवं वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मौजूदा हालात में बवाल मचाने की जरूरत नहीं है। और हमारे तब के रक्षा मंत्री अंटोनी साहेब ने इस अवसर पर कहा कि जब कोई मुद्दा हो, तो हम अवश्य उसे उचित माध्यम से उठाते हैं और यह तरीका जारी है। मंत्री युगल के वक्तव्य का सारांश यह था कि सरकार को जानकारी है, लोगों को अधिक चिल्लाने की जरूरत नहीं है। उनकी सार्वभौम भारत सरकार ने उनकी फरियाद को बीजिंग के दरबार में पहुंचा दिया है। क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि दिल्ली में एक सरकार है जिसकी भूमिका भारत और उसके शत्रु देश के बीच एक सक्रिय डाकिये की तरह है? शीघ्र ही सीमा पर विगत 3 वर्षों में चीनी वारदात के 4 शतक पूरे होंगे किन्तु आज भी चीन के प्रति भारत सरकार के एकांगी प्रेम में कोई फर्क नहीं पड़ा है।
विगत चीनी आक्रमण से कुछ ही घंटे पूर्व भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को चीनी विदेश मंत्री चेन यी ने भरोसा दिलाया था कि भारत हमारा भाई है, अतः छोटी-मोटी तकरारों को नजरअंदाज कर हमें इस भाईचारे की परवाह करनी चाहिए। चीन आज भी उसी मधुमिश्रित स्वर में शातिर गुंडई की भाषा बोल रहा है। एक उदाहरण देखिए। पिछले महीने चीन ने भारत-तिब्बत सीमा बल के दो जवानों को सिक्किम के केरंग नामक स्थान पर गोलियों से जख्मी कर दिया। चीन की चाहत है कि उसके हाथ से जख्मी भारत उफ भी न करे। बलवान यदि मारता है तो रोने भी नहीं देता। भारतीय प्रेस में इस घटना की रिपोर्टिंग पर चीन के विदेश विभाग की प्रवक्ता जियांग यूं ने कहा, ष्सीमा विवाद सुलझाने की ओर दोनों देशों के बीच अनुकूल परिस्थितियां है। इसलिए ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए कि स्थिति पेचीदा हो जाए।ष् लीजिए इसी को कहते हैं, उल्टे चोर कोतवाल को डांटे। यानि चीन जैसे कातिल के वार से घायल हो जाने पर जुबान का खुलना कमोबेश एक अपराध से कम नहीं है। और स्पष्ट युद्ध की स्थिति आ जाने के पूर्व तक आक्रामक चीन को श्क्लीन चिट्य देने के लिए तत्पर हमारी सरकार भी चीन के सुर में सुर मिला रही है। विदेश मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि ऐसी रिपोर्टिंग उभय पक्ष के लिए एक समाधान कारक हल की ओर पहुंचने में परेशानी पैदा करती है। क्या हमारी सरकार इस हद तक दहशत में है कि पीड़ित होकर भी पीडक़ के स्वर में स्वर मिला रही है? लगता है कि बीजिंग के प्रति उसकी भयजनित प्रीति ने उसे अरिपूजक बनने के लिए मजबूर कर दिया है। निष्कर्ष यह है कि चीन और भारत पुन: 1962 की भूमिका में हैं। क्या इतिहास पुन: स्वयं को दुहराना चाहता है? उत्तर-पूर्व से लेकर उत्तर-पश्चिम तक की सीमा का शत्रु अभ्यारण्य में बदल जाना इसी दिशा की ओर अमंगल संदेश दे रहा है।
भारत सरकार का दब्बू चरित्र भी उसे ऐसा करने के लिए प्रतिपल उत्साहित कर रहा है। 1962 और उसके पूर्व भारत में नेहरू का एकछत्र शासन था। नेहरू सामान्यतरू पश्चिमी और विषेशतरू समाजवादी सोच के थे। वे साम्यवादी देशों को अपना मित्र समझते थे। 1962 के आक्रमण के पश्चात उन्होंने कहा, हम स्वनिर्मित स्वप्नलोक में विचर रहे थे। सचमुच साम्यवादी चीन को वे अपना भाई समझते थे। यही उनका दिवास्वप्न था। 1962 में चीनी आक्रमण के पश्चात नेहरू का स्वप्न टूटा। किन्तु नेहरू के नहीं रहने पर भी नेहरूवादी सुविधाभोगी बौद्धिकों एवं सत्तासुखी राजनीतिज्ञों की सोच वही है जो 1962 के पूर्व नेहरू की थी। नेहरू के ख्यालात चीन के प्रति बहुत ऊंचे थे। साम्यवादी चीन को वे एक महान राष्ट्र मानते थे। भारत-चीन मैत्री को वे 2200 वर्ष पुरानी मानते थे। उनके लिए यह मैत्री काल-परीक्षित थी। अटूट, अनाहत और निश्छल। वे भूल गये थे कि विगत सहस्त्राब्दियों के चीन और आज के चीन में कितना फर्क है। तब चीन हमसे किंचित दूर था। हमारे और उसके बीच में एक बफर स्टेट के रूप में तिब्ब्त था। आज वह हमारे दहलीज पर खड़ा एक धृष्ट और दुष्ट दैत्य है, जो अतीत के सम्बन्धों से बेपरवाह हमारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। सांस्कृतिक भारत के ही एक अंग तिब्बत को उदरस्थ कर वह हमारी ओर भूखी नजरों से देख रहा है। नेहरू के स्वप्न लोक का महान नायक चीन उनके सम्बन्ध में क्या सोच रहा था? इसका उत्तर चीन की सरकारी पत्रिका श्वर्ल्ड कल्चर्य में नेहरू के सम्बन्ध में की गयी तात्कालिक टिप्पणी में निहित है। उसमें नेहरू को स्वतंत्रता संग्राम का विरोधी, जनांदोलन का प्रतिरोधक तथा साम्राज्यवादियों का निष्ठावान सेवक कहा गया है। सम्पूर्ण विश्व में पठित एवं विश्लेषित इस पत्रिका की यह टिप्पणी नेहरू एवं भारत सरकार के ध्यान में तो आयी, किन्तु तब वे कर भी क्या सकते थे? सारी जिन्दगी कटी बुतपरस्ती में, आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे। नेहरू के बाद भी वही हालात हैं। हकीकत से मुंह छिपाना कोई कारगर उपाय नहीं है। कश्मीर सरकार तो लिख कर भारत सरकार से गुहार लगा रही है, बचाओ, बचाओ, चीन इंच दर इंच अंदर घुस रहा है। ऐसी ही गुहार अरूणाचल प्रदेश के वर्तमान सांसद तकम संजय तथा पूर्व सांसद किरेन रिजेजू लगा रहे हैं। किन्तु हमारे राजनेताओं की क्या सोच है? वे सलाह दे रहे हैं, मुदह आंख कतहू कछू नाही। चीन के द्वारा सीमा पर 1906 के पश्चात 300 वारदात पूरे किए जाने के उपलक्ष्य में तत्कालीन विदेश मंत्री का दिया गया बयान बहुत ही दिलचस्प है। वे फरमाते हैं कि सीमा एवं वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मौजूदा हालात में बवाल मचाने की जरूरत नहीं है। और हमारे तब के रक्षा मंत्री अंटोनी साहेब ने इस अवसर पर कहा कि जब कोई मुद्दा हो, तो हम अवश्य उसे उचित माध्यम से उठाते हैं और यह तरीका जारी है। मंत्री युगल के वक्तव्य का सारांश यह था कि सरकार को जानकारी है, लोगों को अधिक चिल्लाने की जरूरत नहीं है। उनकी सार्वभौम भारत सरकार ने उनकी फरियाद को बीजिंग के दरबार में पहुंचा दिया है। क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि दिल्ली में एक सरकार है जिसकी भूमिका भारत और उसके शत्रु देश के बीच एक सक्रिय डाकिये की तरह है? शीघ्र ही सीमा पर विगत 3 वर्षों में चीनी वारदात के 4 शतक पूरे होंगे किन्तु आज भी चीन के प्रति भारत सरकार के एकांगी प्रेम में कोई फर्क नहीं पड़ा है।
विगत चीनी आक्रमण से कुछ ही घंटे पूर्व भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को चीनी विदेश मंत्री चेन यी ने भरोसा दिलाया था कि भारत हमारा भाई है, अतः छोटी-मोटी तकरारों को नजरअंदाज कर हमें इस भाईचारे की परवाह करनी चाहिए। चीन आज भी उसी मधुमिश्रित स्वर में शातिर गुंडई की भाषा बोल रहा है। एक उदाहरण देखिए। पिछले महीने चीन ने भारत-तिब्बत सीमा बल के दो जवानों को सिक्किम के केरंग नामक स्थान पर गोलियों से जख्मी कर दिया। चीन की चाहत है कि उसके हाथ से जख्मी भारत उफ भी न करे। बलवान यदि मारता है तो रोने भी नहीं देता। भारतीय प्रेस में इस घटना की रिपोर्टिंग पर चीन के विदेश विभाग की प्रवक्ता जियांग यूं ने कहा, ष्सीमा विवाद सुलझाने की ओर दोनों देशों के बीच अनुकूल परिस्थितियां है। इसलिए ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए कि स्थिति पेचीदा हो जाए।ष् लीजिए इसी को कहते हैं, उल्टे चोर कोतवाल को डांटे। यानि चीन जैसे कातिल के वार से घायल हो जाने पर जुबान का खुलना कमोबेश एक अपराध से कम नहीं है। और स्पष्ट युद्ध की स्थिति आ जाने के पूर्व तक आक्रामक चीन को श्क्लीन चिट्य देने के लिए तत्पर हमारी सरकार भी चीन के सुर में सुर मिला रही है। विदेश मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि ऐसी रिपोर्टिंग उभय पक्ष के लिए एक समाधान कारक हल की ओर पहुंचने में परेशानी पैदा करती है। क्या हमारी सरकार इस हद तक दहशत में है कि पीड़ित होकर भी पीडक़ के स्वर में स्वर मिला रही है? लगता है कि बीजिंग के प्रति उसकी भयजनित प्रीति ने उसे अरिपूजक बनने के लिए मजबूर कर दिया है। निष्कर्ष यह है कि चीन और भारत पुन: 1962 की भूमिका में हैं। क्या इतिहास पुन: स्वयं को दुहराना चाहता है? उत्तर-पूर्व से लेकर उत्तर-पश्चिम तक की सीमा का शत्रु अभ्यारण्य में बदल जाना इसी दिशा की ओर अमंगल संदेश दे रहा है।
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