प्रेम को परिभाषित करना वर्तमान परिदृश्य में मुश्किल है। चूँकि हर रोज इस बात पर बहस ज्यादा हो रही है कि क्या प्रेम करने वालों को सामाजिक मान्यता मिलनी चाहिए विशेषकर उस समाज में जिसकी बुनियाद मनु, अरुस्तु या ओशो का मिला-जुला रूप हो सकती हैं। जबकि प्रेम का आंकलन उन लोगों के बीच ज्यादा मायने नहीं रखता जो उच्च श्रेणी से तालुक रखते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का रिकॉर्ड खंगाले तो पता चलता है कि 2008 तक देश में बलात्कार के 21467 मामले सामने आये, जबकि कुल 195856 मामले महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के सामने आये। अमेरिका की क्राइम इन यूनाइटेड स्टेट्स (CIUS) पर नजऱ डाले तो अमेरिका में 2008 में 89000 रेप के मामले सामने आये, यानि आबादी के लिहाज से अमेरिका की हालत काफी शर्मनाक हैं। ये आंकड़े वो है जो सिर्फ पुलिस या प्रशासन द्वारा सामने आते हैं ऐसा नहीं है कि 90 के दशक से पहले बलात्कार के मामले कम थे, पर पहले के आंकड़े बोलते है कि जहाँ 1971 में बलात्कार के मात्र 2487 मामले सामने आये (1971 से रेप केस के आंकड़े इकठा करना शुरू किया गया है) वही 2008 में 21467 यानि कि 763 .2 त्न की ज़बरदस्त बढ़ोतरी जिसकी शायद ही किसी ने कल्पना की हो? गौर करने वाली बात है कि सबसे ज्यादा मामले देश के मेट्रो सिटी के है, जहा माना जाता है कि आधुनिक और पढ़े-लिखे लोग ज्यादा रहते है, आखिर क्या वजह है सरकार के भरसक प्रयासों के बावजूद भी स्थिति बदल नहीं रही। प्रेम जो शास्त्रों में या सामाजिक विचारकों ने सुझाया है वो गूंगे को गुड़ खिलाने के समान है यानि उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता ठीक उसी तरह जैसे किसी गूंगे व्यक्ति को गुड़ खिला दे और बाद में उससे उसका स्वाद पूछे जिसे वो व्यक्त नहीं कर सकता, यानि प्रेम की अनुभूति अकथनीय है, जबकि रोमांच, अश्रुविलाप, प्रकम्पा आदि प्रेम के आधुनिक रूप होने लगे हैं, जो प्रेम शब्द को पूरा नहीं करते। प्रेम के मायने बदलने लगे हैं, आधुनिक समाज शायद अपने बुजर्गों की राय लेना उचित नहीं समझता, ये वही पीढ़ी है जो अपना बचपन रामानंद सागर के धारावाहिक को छोटे परदे पर सपरिवार देख कर बड़ा हुआ है और आज उसे परिवार के साथ किसी मल्टी नेशनलकंपनी के डियो का विज्ञापन देखने में कोई परहेज नहीं है (जो विज्ञापन अश्लीलता से भरपूर होते है)। देश के छोटे शहरो, गाँवों में भी सूचना का प्रसार निरंतर बढ़ रहा है जो सिर्फ सूचना तक अपनी पहुंच चाहते है और इस बात पर कम ही ध्यान देना चाहते ही उन तक सुचना पहुचने में सरकार के नुमायदे कितना घोटाला कर चुके है ज्? यानि बात साफ है देश का आम जन तक शिक्षा पहुँच रही है लेकिन उन्हें जागरूक करने में वो असफल हैं। तो आखिर शिक्षा का स्वरुप ही इस सामाजिक व्यवस्था के लिए जिमेदार है ..? भारत में साक्षरता दर 64 .84 हैं जिसमे महिलाओ में इसकी दर 53 .67 हैं उद्योगों द्वारा किए गए एक अध्ययन भारतीय (सीआईआई) उद्योग और बाजार अनुसंधान संगठन केपीएमजी के परिसंघ ने निष्कर्ष निकाला है कि उत्तरी भारत में साक्षरता दर 60 फीसदी हैं जो पश्चिमी भारत के 69 व दक्षिणी भारत के 70 % से कम हैं, शैक्षिक विकास सूचकांक (ईडीआई) उत्तर भारतीय राज्यों कि रैंकिंग अपेक्षाकृत देश के अन्य भागों की तुलना में कम है. शीर्ष सूची में पांडिचेरी (0.80) और केरल (0.79) जबकि दिल्ली (0.78), चंडीगढ़ (0.76), पंजाब (0.73) और बिहार (0.4) ईडीआई रैंकिंग पर नीचे मिला है। उपलब्ध जनसांख्यिकीय आंकडे के मुताबिक, उत्तर भारत में 15-24 आयु वर्ग, जो बिहार, उत्तर, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के 106 मिलियन लोग हैं. इस डेटा का तात्पर्य यह है कि इन क्षेत्रों से केवल 33.4 लाख छात्रों को उच्च और व्यावसायिक शिक्षा के लिए नामांकन की संभावना है, उच्च शिक्षा के लिए छात्रों की वर्तमान खपत के रूप में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल उच्च रैंक चार्ट्स में है। मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्री कपिल सिब्बल ने सीआईआई के निष्कर्षों पर अपनी चिंता व्यक्त की और कहा कि दक्षिणी भारतीय राज्यों में जो शिक्षा का मॉडल अनुकरण हो रहा हैं, (जो स्वदेशी शिक्षा व संस्कृति को शामिल करता है) वैसा उत्तरी भारत में नहीं हो रहा हैं, यानि देश में बुनियादी शिक्षा के ढांचे में असमानता साफ नजऱ आती हैं और उत्तरी राज्यों में एक multidisciplinary दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि उत्तरी क्षेत्रों को दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों के अनुरूप बनाने के लिए 84 अरब डॉलर की आवश्यकता है इसके अलावा, उत्तर भारत में कम मेडिकल कॉलेज है, जबकि दूसरी तरफ, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और गुजरात के खाते के रूप में इस तरह के कुल 63% मेडिकल कॉलेज हैं। अध्ययन के निर्णायक परिणाम यह है कि उत्तर भारत में गुणात्मक परिवर्तन करके अपनी शिक्षा प्रणाली के उन्नयन की आवश्यकता है। अब सवाल उठता है कि सरकार निर्णायक कदम उठाने में क्यों हिचक रही है, शिक्षा का निजीकरण जिस देश में हो, वहां बुनियादी शिक्षा की मांग सुनने में अच्छी लग सकती हैं, लेकिन लागू करना सपने जैसा हैं। हम भारतीयों में एक अच्छी बात हैं कि हम हालत से समझौता कर लेते हैं, विरोध करने की भावना बहुत कम ही देखने को मिलती हैं, देश में बलात्कार, बाल अपराध, महिला अत्याचार जैसी घटनाये हो तो अपराधी को सजा दिलवाने के लिए हर मंच से आवाज उठती हैं लेकिन भविष्य में इनकी पुनरावर्ती न हो इसके लिए कोई आवाज नहीं उठती? हमारा मौजूदा शिक्षा का ढांचा हमें स्वरोजगार के अनुरूप तो बनता हैं लेकिन निडर, आत्मविश्वाश पैदा करने में असफल हैं। मॉरल कोड ऑफ़ कंडक्ट, कानून की आधारभूत जानकारी ना तो प्राथमिक शिक्षा का हिस्सा हैं और जब तक बुनियादी बातों को प्राथमिक शिक्षा में शामिल नहीं किया जायेगा तब तक परिवर्तन की उम्मीद करना बेवकूफी हैं। ''अधिकार दिए नहीं जाते, छीने जाते हैं'' स्व. देवीलाल का कथन आज भी अपना महत्व बनाये रखे हैं बस ज़रूरत हैं उसे अपने अन्दर आत्मसात करने की, ज़रूरत हैं गांधीजी के उस असहयोग आन्दोलन की, जिसका इस्तेमाल हर उस परस्थिति में हो जब हमें लगने लगे कि हमारे आवाज को सुनने वाला ही बहरा है। ऊपर के आंकड़े हमें एक बात से संतुष्ट करते हैं कि हम बलात्कार जैसे मामले में औसत रूप से अमेरिका से पीछे हैं लेकिन शिक्षा के मामले में उनसे बहुत ही पीछे हैं, जब तक शिक्षा का सम्पूर्ण ढांचा नहीं बदला जायेगा, उसमें बुनियादी अधिकार, कानून, निडरता का समावेश नहीं किया जायेगा तब तक हम अन्दर से आज़ाद हो ही नहीं सकते। अगर कोई किसी कंपनी या सरकारी विभाग में किसी ऊँचे पद पर पहुँच जाये लेकिन उस इंसान में वो हिम्मत या ज़ज्बा नहीं पैदा कर पायेगे जो अपने आस पास हो रहे अपराध के खिलाफ आवाज बुलंद कर सके, क्योंकि जीने के दो ही रास्ते हैं या तो जो हो रहा हैं उसे चुपचाप सहन करते रहो या फिर खुद आगे आ कर उसे बदलने की पहल करो। पहला रास्ता हमें जन्म से मिलता हैं जबकि दूसरा रास्ता हमें खुद बनाना पड़ता हैं। चाहे दूसरा तरीका मुश्किल हो लेकिन हमारा जीने का मकसद पूरा करने में सार्थक हैं।
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