जाने माने वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन की दशकों पहले की गई भविष्यवाणी कि आखिरी मधुमक्खी के मरने के बाद समूची मानवता के पास सात-आठ साल से अधिक नहीं बचेंगे, पंजाब की काटन बेल्ट में कुछ लोगों को याद आनी शुरू हो गई है। इस बार अनुभव किया गया है कि मधुमक्खियां बीटी काटन के खेतों के पास भी नहीं फटक रहीं। बीटी काटन के बीज प्रयोगशाला में बनाए जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) सीड्स की श्रेणी में आते हैं। पटियाला के राजिंदरा अस्पताल में एसएमओ व कम्युनिटी मेडिसन में एमडी डा. अमर सिंह आजाद बताते हैं कि बीटी काटन से मधुमक्खियों का नर्वस सिस्टम प्रभावित होने से इनकी छत्ते पर लौटने की सेंस खत्म होती जा रही है, इसे तकनीकी भाषा में कालोनी क्लैप्सकहते हैं।
कोई भी मधुमक्खी कालोनी के बिना नहीं रह सकती। वापस न पहुंचने की सूरत में वे मर जाती हैं। लेकिन इसके लिए सिर्फ जीएम फसलें ही जिम्मेवार नहीं हैं। हर तरफ पेड़-पौधों, फसलों पर जहरीली दवाओं का छिड़काव हो रहा है, जड़ों में रसायन डाले जा रहे हैं। ऐसे में इनका खाना अब पेस्टिसाइड्स से बनने लगा है और प्रजनन की क्षमता कम होती जा रही है। वे बताते हैं कि अभी आस्ट्रेलियन मधुमक्खी बची हुई है, इस पालतू मक्खी की कालोनियां पास-पास होने के चलते प्रभाव में उतनी नहीं आई हैं। उल्लेखनीय है कि राज्य के मालवा इलाके में संगरूर-मानसा से शुरू हो फरीदकोट, अबोहर, फाजिल्का व राजस्थान में श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ तक की बेल्ट में नरमे के खेतों में कभी इन्हीं मधुमक्खियों के छत्ते खूब लगा करते थे, लेकिन अब सिर्फ पंजाब भर में ही साढ़े पांच लाख हेक्टेयर में कपास की खेती करने के तय किए गए लक्ष्य में से 85 फीसदी के बीटी काटन के जरिए हासिल किए जाने की पूरी उम्मीद है।
फाइव एलिमेंट्स हेल्थ एंड एजूकेशनल सोसायटी के जोगिंदर टाइगर कहते हैं कि प्रकृति में जितने भी फल, फूल और हैं, वे सब इन्हीं की देन हैं। अगर मधुमक्खियां पॉलीनेशन (परागण) प्रक्रिया में पराग के कण एक पौधे से दूसरे पौधे तक न ले जाएं तो कुछ भी नहीं पनपने वाला। सब कुछ समाप्त हो जाएगा, इसमें सबसे पहले प्रकृति में से रंग गायब होंगे। मालवा क्षेत्र में खेती पर नजर रखने वाले खेती विरासत मिशन के उमेंद्र दत्त कहते हैं कि नरमे की खेती वाला क्षेत्र अब काटन बेल्ट हो गया है, कभी यहां नरमे में ही मधुमक्खियों के छत्ते लग जाया करते थे, कपास के फलने फूलने का सबसे बड़ा कारण ही यह देसी मधुमक्खी हुआ करती थी, जो आज पास नहीं फटक रहीं। वे बताते हैं कि शुरुआत में उनके पास हरियाणा के जींद जिले से बीते साल ऐसी खबरें आई थीं। वहीं, अमृतसर के पर्यावरण लेखक डा. अर्नेस्ट कहते हैं कि वे बचपन में 10 से 15 फीट तक के छत्ते देखते आए हैं अब तीन से चार फीट से अधिक का नहीं दिखता। वे बताते है कि गुरदासपुर क्षेत्र में फलों के बाग से शहद निकालने का अलग से पांच-सात हजार रुपये का ठेका हुआ करता था, पर अब यह चलन सुनाई ही नहीं दे रहा। डा. अर्नेस्ट के अनुसार खेती, पर्यावरण, वाणिज्य व अर्थशास्त्र में जो काम मधुमक्खियां करती हैं, वह यदि इंसान या मशीन को करना पड़े तो विश्र्व भर में 32 बिलियन डालर का खर्च आए।
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