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नया धमाका

11/23/2010

आईये, जाने भारत के प्राचीन शिक्षा केन्द्रों के बारें में

   प्राचीन काल से ही हमारे देश में शिक्षा का बहुत महत्व रहा है। प्राचीन भारत के नालंदा और तक्षशिला आदि विश्वविद्यालय संपूर्ण संसार में सुविख्यात थे। इन विश्वविद्यालयों में देश ही नहीं विदेश के विद्यार्थी भी अध्ययन के लिए आते थे। इन शिक्षा केन्द्रों की अपनी विशेषताएं थीं जिनका वर्णन प्रस्तुत है-

तक्षशिला विश्वविद्यालय --
तक्षशिला विश्वविद्यालय वर्तमान पश्चिमी पाकिस्तान की राजधानी रावलपिण्डी से 18 मील उत्तर की ओर स्थित था। जिस नगर में यह विश्वविद्यालय था उसके बारे में कहा जाता है कि श्री राम के भाई भरत के पुत्र तक्ष ने उस नगर की स्थापना की थी। यह विश्व का प्रथम विश्विद्यालय था जिसकी स्थापना 700 वर्ष ईसा पूर्व में की गई थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे। यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था। 326  ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के चिकित्सा शास्त्र का एकमात्र सर्वोपरि केन्द्र था। तक्षशिला विश्वविद्यालय का विकास विभिन्न रूपों में हुआ था। इसका कोई एक केन्द्रीय स्थान नहीं था, अपितु यह विस्तृत भू भाग में फैला हुआ था। विविध विद्याओं के विद्वान आचार्यो ने यहां अपने विद्यालय तथा आश्रम बना रखे थे। छात्र रुचिनुसार अध्ययन हेतु विभिन्न आचार्यों के पास जाते थे। महत्वपूर्ण पाठयक्रमों में यहां वेद-वेदान्त, अष्टादश विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्धविद्या, शस्त्र-संचालन, ज्योतिष, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, अश्व-विद्या, मन्त्र-विद्या, विविद्य भाषाएं, शिल्प आदि की शिक्षा विद्यार्थी प्राप्त करते थे। प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार पाणिनी, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेतनभोगी शिक्षक नहीं थे और न ही कोई निर्दिष्ट पाठयक्रम था। आज कल की तरह पाठयक्रम की अवधि भी निर्धारित नहीं थी और न कोई विशिष्ट प्रमाणपत्र या उपाधि दी जाती थी। शिष्य की योग्यता और रुचि देखकर आचार्य उनके लिए अध्ययन की अवधि स्वयं निश्चित करते थे। परंतु कहीं-कहीं कुछ पाठयक्रमों की समय सीमा निर्धारित थी। चिकित्सा के कुछ पाठयक्रम सात वर्ष के थे तथा पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद प्रत्येक छात्र को छरू माह का शोध कार्य करना पड़ता था। इस शोध कार्य में वह कोई औषधि की जड़ी-बूटी पता लगाता तब जाकर उसे डिग्री मिलती थी। अनेक शोधों से यह अनुमान लगाया गया है कि यहां बारह वर्ष तक अध्ययन के पश्चात दीक्षा मिलती थी। 500 ई. पू. जब संसार में चिकित्सा शास्त्र की परंपरा भी नहीं थी तब तक्षशिला आयुर्वेद विज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र था। जातक कथाओं एवं विदेशी पर्यटकों के लेख से पता चलता है कि यहां के स्नातक मस्तिष्क के भीतर तथा अंतडिय़ों तक का आपरेशन बड़ी सुगमता से कर लेते थे। अनेक असाध्य रोगों के उपचार सरल एवं सुलभ जड़ी बूटियों से करते थे। इसके अतिरिक्त अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भी उन्हें ज्ञान था। शिष्य आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे। एक आचार्य के पास अनेक विद्यार्थी रहते थे। इनकी संख्या प्रायरू सौ से अधिक होती थी और अनेक बार 500 तक पहुंच  जाती थी। अध्ययन में क्रियात्मक कार्य को बहुत महत्व दिया जाता था। छात्रों को देशाटन भी कराया जाता था। शिक्षा पूर्ण होने पर परीक्षा ली जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय से स्नातक होना उस समय अत्यंत गौरवपूर्ण माना जाता था। यहां धनी तथा निर्धन दोनों तरह के छात्रों के अध्ययन की व्यवस्था थी। धनी छात्रा आचार्य को भोजन, निवास और अध्ययन का शुल्क देते थे तथा निर्धन छात्र अध्ययन करते हुए आश्रम के कार्य करते थे। शिक्षा पूरी होने पर वे शुल्क देने की प्रतिज्ञा करते थे। प्राचीन साहित्य से विदित होता है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में पढऩे वाले उच्च वर्ण के ही छात्र होते थे। सुप्रसिद्ध विद्वान, चिंतक, कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री चाणक्य ने भी अपनी शिक्षा यहीं पूर्ण की थी। उसके बाद यहीं शिक्षण कार्य करने लगे। यहीं उन्होंने अपने अनेक ग्रंथों की रचना की। इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसे स्थान पर थी, जहां पूर्व और पश्चिम से आने वाले मार्ग मिलते थे। चतुर्थ शताब्दी ई. पू. से ही इस मार्ग से भारत वर्ष पर विदेशी आक्रमण होने लगे। विदेशी आक्रांताओं ने इस विश्वविद्यालय को काफी क्षति पहुंचाई। अंततरू छठवीं शताब्दी में यह आक्रमणकारियों द्वारा  पूरी तरह नष्ट कर दिया।
नालन्दा विश्वविद्यालय --

नालन्दा विश्वविद्यालय बिहार में राजगीर के निकट रहा है और उसके अवशेष बडगांव नामक गांव व आस-पास तक बिखरे हुए हैं। पहले इस जगह बौद्ध विहार थे। इनमें बौद्ध साहित्य और दर्शन का विशेष अध्ययन होता था। बौद्ध ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख है कि नालन्दा के क्षेत्र को पांच सौ सेठों ने एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं में खरीदकर भगवान बुद्ध को अर्पित किया था। महाराज शकादित्य (सम्भवतरू गुप्तवंशीय सम्राट कुमार गुप्त, 415-455 ई.) ने इस जगह को विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया। उसके बाद उनके उत्तराधिकारी अन्य राजाओं ने यहां अनेक विहारों और विश्वविद्यालय के भवनों का निर्माण करवाया। इनमें से गुप्त सम्राट बालादित्य ने 470 ई. में यहां एक सुंदर मंदिर बनवाकर भगवान बुद्ध की 80 फीट की प्रतिमा स्थापित की थी।  देश के विद्यार्थियों के अलावा कोरिया, चीन, तिब्बत, मंगोलिया आदि देशों के विद्यार्थी शिक्षा लेने यहां आते थे। विदेशी यात्रियों के वर्णन के अनुसार नालन्दा विश्वविद्यालय में छात्रों के रहने की उत्तम व्यवस्था थी। उल्लेख मिलता है कि यहां आठ शालाएं और 300 कमरे थे। कई खंडों में विद्यालय तथा छात्रावास थे। प्रत्येक खंड में छात्रों के स्नान लिए सुंदर तरणताल थे जिनमें नीचे से ऊपर जल लाने का प्रबंध था। शयनस्थान पत्थरों के बने थे। जब नालन्दा विश्वविद्यालय की खुदाई की गई तब उसकी विशालता और भव्यता का ज्ञान हुआ। यहां के भवन विशाल, भव्य और सुंदर थे। कलात्मकता तो इनमें भरी पड़ी थी। यहां तांबे एवं पीतल की बुद्ध की मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं। नालन्दा विश्वविद्यालय के शिक्षक अपने ज्ञान एवं विद्या के लिए विश्व में प्रसिद्ध थे। इनका चरित्र सर्वथा उज्जवल और दोषरहित था। छात्रों के लिए कठोर नियम था। जिनका पालन करना आवश्यक था। चीनी यात्री हेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध दर्शन, धर्म और साहित्य का अध्ययन किया था। उसने दस वर्षों तक यहां अध्ययन किया। उसके अनुसार इस विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना सरल नहीं था। यहां केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र ही प्रवेश पा सकते थे। प्रवेश के लिए पहले छात्र को परीक्षा देनी होती थी। इसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रवेश संभव था। विश्वविद्यालय के छरू द्वार थे। प्रत्येक द्वार पर एक द्वार पण्डित होता था। प्रवेश से पहले वो छात्रों की वहीं परीक्षा लेता था। इस परीक्षा में 20 से 30 प्रतिशत छात्र ही उत्तीर्ण हो पाते थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश के बाद भी छात्रों को कठोर परिश्रम करना पड़ता था तथा अनेक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। यहां से स्नातक करने वाले छात्र का हर जगह सम्मान होता था। हर्ष के शासनकाल में इस विश्वविद्यालय में दस हजार छात्र पढ़ते थे। हेनसांग के अनुसार यहां अनेक भवन बने हुए थे। इनमें मानमंदिर सबसे ऊंचा था। यह मेघों से भी ऊपर उठा हुआ था। इसकी कारीगरी अद्भुत थी। नालन्दा विश्वविद्यालय के तीन भवन मुख्य थे- रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक। नालन्दा का केन्द्रीय पुस्तकालय इन्हीं भवनों में स्थित था। इनमें रत्नोदधि सबसे विशाल था। इसमें धर्म-ग्रंथों का विशेष संग्रह था। अन्य भवनों में विविध विषयों के दुर्लभ-ग्रंथों का संग्रह था। नालन्दा विश्वविद्यालय में शिक्षा, आवास, भोजन आदि का कोई शुल्क छात्रों से नहीं लिया जाता था। सभी सुविधाएं निरूशुल्क थीं।  राजाओं और धनी सेठों द्वारा दिये गये दान से इस विश्वविद्यालय का व्यय चलता था। इस विश्वविद्यालय को 200 ग्रामों की आय प्राप्त होती थी। नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्यों की कीर्ति विदेशों में विख्यात थी और उनको वहां बुलाया जाता था। आठवीं शताब्दी में शान्तरक्षित नाम के आचार्य को तिब्बत बुलाया गया था। उसके बाद कमलशील और अतिशा नाम के विद्वान भी वहां गये। नालन्दा विश्वविद्यालय 12वीं शताब्दी  तक यानि लगभग 800 वर्षों तक विश्व में ज्ञान का प्रमुख केन्द्र बना रहा। इसी समय यवनों के आक्रमण शुरु हो गये। इतिहास बताता है कि खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय पर आक्रमण कर यहां के हजारों छात्रों और अधयापकों को कत्ल करवा दिया। इसके पुस्तकालय में आग लगा दी गई। छरू महीनों तक पुस्तकालयों की पुस्तकें जलती रहीं जिससे दस हजार की सेना का मांसाहारी भोजन बनता रहा। इस घटना से भारत ने ही नहीं संसार ने भी ज्ञान का भंडार खो दिया।
विक्रमशील विश्वविद्यालय --

विक्रमशील विश्विद्यालय की स्थापना 8-9वीं शताब्दी ई. में बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल ने की थी। वह बौद्ध था। प्रारंभ इस विश्वविद्यालय का विकास भी नालंदा विश्विद्यालय की तरह बौद्ध विहार के रूप में ही हुआ था। यह वर्तमान भागलपुर से 24 मील दूर पर निर्मित था। इस विश्वविद्यालय के छात्रों को भी सारी सुविधाएं निरूशुल्क दी जाती थीं। धर्मपाल ने इस विश्वविद्यालय में उस समय के विख्यात दस आचार्यों की नियुक्ति की थी। कालान्तर में इसकी संख्या में वृद्धि हुई। यहां छरू विद्यालय बनाये गये थे। प्रत्येक विद्यालय का एक पण्डित होता था, जो प्रवेश परीक्षा लेता था। परीक्षा में उत्तीर्ण छात्रों को ही प्रवेश मिलता था। प्रत्येक विद्यालय में 108 शिक्षक थे। इस प्रकार कुल शिक्षकों की संख्या 648 बताई जाती है। दसवीं शताब्दी ई. में तिब्बती लेखक तारानाथ के वर्णन के अनुसार प्रत्येक द्वार के पण्डित थे। पूर्वी द्वार के द्वार पण्डित रत्नाकर शान्ति, पश्चिमी द्वार के वर्गाश्वर कीर्ति, उत्तरी द्वार के नारोपन्त, दक्षिणी द्वार के प्रज्ञाकरमित्रा थे। आचार्य दीपक विक्रमशील विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रसिद्ध आचार्य हुये हैं। विश्वविद्यालयों के छात्रों की संख्या का सही अनुमान प्राप्त नहीं हो पाया है। 12वीं शताब्दी में यहां 3000 छात्रों के होने का विवरण प्राप्त होता है। लेकिन यहां के सभागार के जो खण्डहर मिले हैं उनसे पता चलता है कि सभागार में 8000 व्यक्तियों को बिठाने की व्यवस्था थी। विदेशी छात्रों में तिब्वती छात्रों की संख्या अधिक थी। एक छात्रावास तो केवल तिब्बती छात्रों के लिए ही था। विक्रमशील विश्वविद्यालय में मुख्यतरू बौद्ध साहित्य के अध्ययन के साथ-साथ वैदिक साहित्य के अध्ययन का भी प्रबंध था।   इनके अलावा विद्या के अन्य विषय भी पढ़ाये जाते थे। बौद्धों के वज्रयान सम्प्रदाय के अध्ययन का यह प्रामाणिक केन्द्र रहा। 12वीं शताब्दी तक विक्रमशील विश्विद्यालय अपने ज्ञान के आलोक से संपूर्ण विश्व को जगमगाता रहा। नालन्दा विश्वविद्यालय को नष्ट करके मुहम्मद खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को भी पूर्णतरू नष्ट कर दिया।
उड्डयन्तपुर विश्वविद्यालय --
इस विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के प्रवर्तक तथा प्रथम राजा गोपाल ने की थी। इसकी स्थापना भी बौद्ध विहार के रूप में हुई थी। आज यहां बिहार नगर है। पहले यह क्षेत्र मगध के नाम से जाना जाता है। 12वीं शताब्दी में यह शिक्षा का अच्छा केन्द्र था। यहां हजारों अध्यापक और छात्र निवास करते थे। अनंत एवं समुचित सुविधाएं एवं व्यवस्थाएं थीं। इसके विशाल भवनों को देखकर खिलजी ने समझा कि यह कोई दुर्ग है। उसने इस पर आक्रमण कर दिया। राजाओं ने तथा उनकी सेनाओं ने इसकी रक्षा के लिए कुछ नहीं किया। विश्वविद्यालय के  छात्रों और आचार्यों ने आक्रमणकारियों से मुकाबला किया। परंतु खिलजी की विशालकाय सेना के आगे वे ज्यादा देर तक टिक नहीं पाये। खिलजी ने सभी की क्रूरतापूर्ण हत्या कर दी। जब सभी आचार्य एवं छात्र मारे गये तब जाकर अफगानों का इस पर अधिकार हो पाया। नालंदा विश्वविद्यालय की तरह खिजली की सेना ने इस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को भी जला दिया।
इन विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त सौराष्ट्र बलभी विश्वविद्यालय भी काफी प्रसिद्ध रहा है। अन्य असंख्य शिक्षा केन्द्र भारतवर्ष के कोने-कोने में स्थित थे। 317 ई. पू. तमिलनाडु में मदुराई विद्या एवं शिक्षण संस्थानों का केन्द्र रहा है। सुप्रसिद्ध तमिल कवि तिरुवल्लुवर यहां के छात्र थे। उलवेरूनी के अनुसार 11वीं शताब्दी ई. में कश्मीर विद्या का केन्द्र रहा था। इसी शताब्दी के अंतिम भाग में बंगाल के राजा रामपाल ने रामावती नगरी में जगद्धर विहार की स्थापना की थी। उस समय प्रायरू प्रत्येक मठ और विहार शिक्षा के केन्द्र होते थे। शंकराचार्य ने वैदिक विषयों के अध्ययन के लिए अनेक विद्यालयों की स्थापना की। ये मठों के नाम से प्रसिद्ध हुए। काशी, कांची, मथुरा, पुरी आदि तीर्थस्थान भी विद्या के प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं।

16 टिप्‍पणियां:

  1. जिस देश में दुनियाभर से विदेशी छात्र-छात्रायें शिक्षा पाने के लिए आते थे आज उस देश के कर्णधार विदेशी शिक्षा को भारत के उत्थान का प्रतीक बता रहे है। सभी भारतीयों को ऐसा ज्ञानप्रद जानकारी सार्वजनिक रूप से दी जानी चाहिए

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    1. Bilkul ,Wo us time tha jnaam.. Ab bhart bhut piche ho gya duniya se. .Esliye vidhesh m jana gourav ki bat h. ..Esme ahnkar kesa, jo time k sath nhi chlega wo pichdega. .Asa to sayad yha ke aacharyo ne bhi kaha hoga

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  2. agar hindisatn(aryabhatt) zero ko discover nahi karte to duniya angutha chap hoti...

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    1. अगर आर्यभट्ट ने ज़ीरो (0) का आविष्कार किया, तो महाभारत में 100 कौरवों की गिनती कैसे हो गयी और रामायण में रावण के 10 सिर की गिनती कैसे हो गयी, जबकि कहा जाता है की ये ग्रंथ तो बहुत पहले के हैं । कृष्ण ने शिशुपाल को 100 बार माफ किया, .... अब इसका मतलब या तो आर्यभट्ट ने ज़ीरो की खोज नहीं की,या फिर रामायण, महाभारत उनके बाद लिखे गए ...

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  3. CHANAKYA NAHI HOTE TO ECONOMICS KI SODH SAMBHAV NAHI THI.JO AAJ SABHI MULK CHANAKYA NITI PAR TIKA HAI

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  4. सुन्दर और सार्थक लेखन ,जारी रखें ,शुभकामना

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  5. भाई गुजरात मई भी थी वल्लभी विश्वविष्यलय

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  6. ye sabhi vidhya layo ki histroy yahi kahti ai ke 12 sadi ke baad baudh dharma ka naas karne ke liye ye vidhyalayo ka naas karne me aaya i think woh india ke hi log the...???? hindu.........? brahmin...........???

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  7. bcas of india me hindu dharma ki sthapna karne ke liye................??? verna i think pure india me baudh dharma hota....? kyu budh dharma ke sare pustak .....aur kafi......kuch .....logo ne jala ke khatam ker diya......? any reason.........?

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  8. hum hindustani aaj bhi past ki baat ko yaad ker ke garva karte hai........but aaj.....future me kya kerana hai sochte hai.....pahle to ye tay kariye who r u ....logo ko yoga..ayurvad...arthsastra.....matamatic....kafi kuch jo india ne diya woh bahar ki country wale use ker rahe hai....aur indian..wow......great.....mobile pe maja lut rahe hai........ye mera india........???????????

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