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नया धमाका

12/04/2010

भारतीय पैसे से फैलते विदेशी विचार

शताब्दियों के विदेशी आघात और वैचारिक आक्रमण झेलने के बाद भारत वर्ष अब उस स्थिति में आया है जब उसकी क्षत-विक्षत विचार संपदा पुनः प्रभावी और पुष्ट बनाई जा सके। जिस देश ने 30 लाख पुस्तकें केवल तक्षशिला विश्वविद्यालय में विदेशी हमलावरों के हाथों लुटवाई हों उसकी वैचारिक क्षति का अंदाजा लगाना आसान नहीं है। सरस्वती को सदैव भारतीय विचारवान कुबेरपतियों का संरक्षण मिला है। लेकिन भारत में अभी तक सभ्यतामूलक उन शोध केंद्रों का पूर्णतः अभाव दिखता है जो अतीत की पूंजी वर्तमान के धरातल पर उस नवीन भविष्य का सृजन कर सकें, जो रंग और कलेवर में पूर्णतः भारतीय हों। यह दायित्व सामर्थ्यवान उद्योगपतियों का ही हो सकता है। दुख इस बात का यदि कुछ उद्योगपति विचार के क्षेत्र में कुछ करते दिखते हैं तो उसकी धुरी पश्चिमी होती है, भारतीय नहीं।

अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा से ठीक पूर्व टाटा उद्योग समूह ने अमरीका के विश्वविख्यात शिक्षा संस्थान हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय को 5 करोड़ डॉलर यानी ढाई अरब रुपये के लगभग अनुदान दिया है, जिसका उपयोग हॉर्वर्ड के एग्जीक्यूटिव शिक्षण कार्यक्रम हेतु भवन निर्माण में किया जाएगा। उस भवन का नाम उचित प्रकार से ही ‘टाटा हाल’ रखा जाएगा। इसी प्रकार महिन्द्रा उद्योग समूह के स्वामी आनन्द महिन्द्रा ने भी हॉर्वर्ड को 20 करोड़ रुपये के लगभग अनुदान दिया है।

यह सर्व ज्ञात है कि इन दिनों यूरोप तथा अमरीका के विश्वविद्यालय एवं शोध संस्थान ज्यादातर वित्तीय संसाधन चीन और भारत के शोधार्थियों से ही जुटाते हैं, क्योंकि उन देशों में स्थानीय शोधार्थियों की गम्भीर विषयों में रुचि घटती ही गयी है। भारत के समृद्ध एवं कुबेरपति यदि इस सामर्थ्य के धनी हो गए हैं कि वे पश्चिमी शोध संस्थानों को जीवित रखने में मदद कर सकें तो यह तथ्य उपालम्भ का नहीं संतोष और गौरव का होना चाहिए। जिन देशों और शिक्षा संस्थानों ने कभी भारत की ओर रुझान तथा समानता की दृष्टि से नहीं देखा, उन्हीं देशों के विश्वविद्यालय आज हमारे वित्तीय अनुदान के आकांक्षी बन गए हैं, इसमें हर भारतीय को एक विशेष आनंद का ही विषय होना चाहिए। लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि दान देने वाला इस बात का भी विचार करे कि उसका धन कहीं भारतीय विचार और उसके हितों के खिलाफ तो प्रयुक्त नहीं किया जाएगा ? जिन भारतीय उद्योगपतियों ने हॉर्वर्ड या उसी प्रकार के अन्य पश्चिमी विचार केन्द्रों को अरबों रुपयों की सहायता दी है क्या कभी उन्होंने भारत में ही ऐसे शिक्षा केन्द्र एवं वैचारिक मन्थन के संस्थान खोलने में रुचि दिखाई ताकि पश्चिमी शिक्षा और विचार केन्द्रों से भी बढ़कर भारत ऐसा विद्या-देश बने जहां पढ़ने और निष्णात होने के लिए पश्चिम से उसी प्रकार छात्र आएं, जैसे भारत के छात्र पश्चिम जाते हैं?

यह बात भी छोड़ दीजिए। लेकिन भारत की संस्कृति, सभ्यता, उसकी भाषायी विरासत तथा सामाजिक गत्यात्मकता के प्रति घोर शत्रुभाव से होने वाला शोध यदि भारतीय धन से ही संचालित और नियोजित हो तो क्या इससे बढ़कर कोई विडम्बना हो सकती है ?

हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय चीन के प्रति अपने शोध एवं शैक्षिक पाठ्यक्रमों का आधार जहां सम्मानजनक और ‘समझदारी से पूर्ण’ रखता है वहीं भारत के प्रति उसके शोध आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहते हैं। उदाहरण के लिए भारत सम्बन्धित हॉर्वर्ड की अधिकांश शोध-विचार-रेखाएं, जाति, महिला उत्पीड़न, संस्कृत भाषा की मृत्यु, साम्प्रदायिक हिन्दू विचार का प्रतिक्रियावाद, दलित-उत्पीड़न, जनजातीय विद्रोह, माओवादी उभार जैसे बिन्दुओं के इर्द-गिर्द अटकी रहती है। हॉर्वर्ड मूलतः भारत के प्रति अपनी विचार-दृष्टि उस मार्क्सवादी पृष्ठभूमि से पोषित और निर्देशित करता है जिसमें सेक्युलरवाद, मार्क्सीय भारत-दृष्टि तथा सामाजिक विश्लेषण यहां की उस हिन्दू सभ्यता और सांस्कृतिक अधिष्ठान को नकारता है, जो कुछ भी भारत की हिन्दू विरासत का अंग है, उसे हीनभाव से देखते हुए तिरस्कृत करना और उसके विश्लेषण में हिन्दू मानस को दास-भाव में लपेट निन्दित करना हॉर्वर्ड की विशेषता रही है। कुछ समय पूर्व हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के लिए निधि संकलन करने हेतु नियुक्त सुगत बोस जब भारत आए थे तो उनके द्वारा सुभाषचन्द्र बोस को फासिस्ट कहने तथा कश्मीरी अलगाववादियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखने वाले लेखों का जिक्र करते हुए कुछ भारतीय विचारवान उद्योगपति फिक्की, एसोचेम, अम्बानी और महिन्द्रा उद्योग समूह से मिले थे। उनका एक ही मन्तव्य था कि आप अपनी इच्छा से जहां चाहें दान देने हेतु स्वतंत्र हैं। परन्तु एक भारतीय के नाते दान देते हुए यह विचार अवश्य करना चाहिए कि दान प्राप्त करने वाला संस्थान दानदाता के देश और उसकी संस्कृति की अवमानना न करे।

चीन ने अपने उन दानदाताओं के साथ ऐसी व्यवस्था की है जिसके अन्तर्गत चीन के प्रत्येक अनुदान के अन्तिम उपयोग की पूरी रपट दानदाता तक पहुंचाई जाती है। दूसरे, चीन के दानदाता इस बात का आग्रह रखते हैं कि जिस शिक्षा केन्द्र को वे दान देते रहे हैं, उसका  नियंत्रण चीनी विद्वानों के हाथ में ही रहे। इसका लाभ यह होता है कि जब कभी चीनी हितों और उसकी सभ्यतामूलक अवधारणाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण वाले शोध को कोई आगे बढ़ाने का प्रयास करता है तो कम से कम चीनी अनुदान पर चल रहे विभाग से वह स्वीकृत नहीं होता।

क्या भारतीय दानदाताओं से इतनी अपेक्षा करना भी अनुचित होगा कि वे अपने अनुदान से विदेशी शिक्षा और विचार केन्द्रों को पोषित करते हुए कम से कम भारतीय विचार सम्पदा को क्षति न होने दें? हॉर्वर्ड जैसे किसी भी पश्चिमी विश्वविद्यालय में जितने धन से एक पीठ (चेयर) की प्रतिष्ठापना होती (ढाई करोड़ रुपये के लगभग) है। उससे कम खर्च में भारत में विश्वविद्यालय का एक पूरा विभाग संचालित कर सकते हैं।

विडम्बना है कि भारत के उद्योगपति कभी भी भारतीय विचार-सम्पदा की रक्षा और उसके उन्नयन के लिए उस क्षमता एवं कौशल के साथ पूंजीनिवेश करते नहीं दिखते जो गुणात्मकता वे भारत में अपने सफल उद्योगों के प्रति दिखाते हैं। मेधा, निपुणता और कर्तृत्व में भारतीय उद्योगपति दुनिया में किसी से पीछे नहीं हैं। टाटा हों या महिन्द्रा, उन्होंने सम्पूर्ण विश्व में अपनी क्षमता एवं उद्योग-कुशलता से भारत का गौरव बढ़ाया है। रतन टाटा, लक्ष्मी मित्तल, अम्बानी बन्धु, नारायण मूर्ति, अजीम प्रेमजी आज भारतीय अर्थ-शक्ति के प्रमुख शक्ति केन्द्र हैं। लेकिन यह शुद्ध-सपाट अर्थ-निवेश जब राष्ट्र की मूल आत्मा और उसकी विद्या-भूमि के साथ जुड़ेगा, तभी राष्ट्रधर्म का पालन होगा। कुबेरपति भारत में हमेशा रहे, परन्तु भारत-निष्ठ कुबेरपति हों तो बात कुछ और ही होती है। 

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