न जाने कब से दिग्विजय सिंह, अर्जुन सिंह, राहुल गांधी, सोनिया और उनके दुमछल्ले संघ पर झूठे आरोप लगा रहे थे। दिग्विजय सिंह के अनुसार संघ को पाकिस्तान से पैसा मिलता है। वह आई.एस.आई के लिए काम करता है। राहुल बाबा संघ और सिमी को एक सा बताते हैं। प्रणव मुखर्जी और चिदम्बरम भगवा आतंकवाद का डर देश में फैला रहे हैं।
इसके बाद भी संघ चुप रहा। 10 नवम्बर, 2010 को उसकी ओर से देषव्यापी शांतिपूर्ण धरना हुआ। कहीं कोई उपद्रव नहीं; लेकिन सोनिया गांधी के बारे में सुदर्षन जी का बयान क्या आया, कांग्रेसी तोड़फोड़ पर उतर आये।
सुदर्षन जी ने नया कुछ नहीं कहा है। इनमें से कुछ आरोप राजीव और सोनिया के विवाह के बाद, कुछ राजीव के प्रधानमंत्री बनने के बाद तथा शेष जिन दिनों सोनिया प्रधानमंत्री बनने का षड्यन्त्र रच रही थीं, उन दिनों लगाये गये थे तथा सभी निष्पक्ष पत्रों में प्रकाषित भी हुए थे। सुब्रमण्यम स्वामी, दीनानाथ मिश्र, गुरुमूर्ति, ए.सूर्यप्रकाश आदि ने इस बारे में खूब लिखा है। इस बारे में कुछ पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि सोनिया गांधी ने इसमें से किसी का खंडन नहीं किया। सर्वषक्तिमान होते हुए भी सोनिया ने आरोप लगाने वालों पर कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की, क्या इससे इन संदेहों की पुष्टि नहीं होती ?
संघ एक अनुशासित तथा शांतिप्रिय संगठन है। उसका काम चंूकि व्यक्ति निर्माण का है, इसलिए वह इस प्रकार की राजनीतिक शोशेबाजी में विश्वास नहीं करता। प्रायः वह अपने ऊपर लगाये गये बेहूदे आरोपों पर भी प्रतिक्रिया नहीं करता। चूंकि इससे उसका ध्यान अपने मूल काम की ओर से भटकता है।
संघ के ऊपर प्रायः आरोप लगता रहा है कि उसने स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं लिया, जबकि संघ के संस्थापक डा0 हेडगेवार ने जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर एक साल का सश्रम कारावास वरण किया था। चूंकि उन दिनों कांग्रेस आजादी के संघर्ष में एक प्रमुख मंच के रूप में काम कर रही थी, अतः संघ के हजारों स्वयंसेवक सत्याग्रह कर कांग्रेस के बैनर पर ही जेल गये। यह बात दूसरी है कि उन्होंने कांग्रेसियों की तरह तामपत्र, लाइसेंस, कोटा, परमिट या राजनीतिक पद लेकर इसका लाभ नहीं उठाया। चूंकि संघ की मान्यता है कि माता-पिता और मातृभूमि की सेवा बेचने या खरीदने की चीज नहीं है।
न्यायालय द्वारा निर्णय दिये जाने के बाद भी गांधी हत्या के झूठे आरोप आज तक संघ पर लगाये जाते हैं। अटल जी के चुनाव में हर बार कांग्रेस द्वारा ऐसे पर्चे बांटे जाते थे, जिनमें अंग्रेजी काल में हुए बटेश्वर कांड में उन्हें मुखबिर के रूप में दर्शाया जाता था; पर वे यह सोच कर चुप रहे कि कुत्तों के भौंकने से हाथी की चाल पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
1975 में इंदिरा गांधी की तानाशाही की याद भी बहुतों को होगी। संघ के प्रशिक्षण वर्गों में शारीरिक अभ्यास के लिए सिखाई जाने वाली नकली टीन की तलवारों और लकड़ी की छुरिकाओं के चित्र लगातार सरकारी दूरदर्शन पर दिखाकर संघ को बदनाम किया जाता रहा। मानो संघ के लोग देश में बड़े पैमाने पर हत्याओं और उपद्रव का षड्यंत्र रच रहे हों। आपातकाल और प्रतिबंध समाप्ति के बाद जब संघ को कार्यालय वापस मिले, तो वहां से लाखों रु0 मूल्य का दैनिक उपयोग का सामान गायब था। करोड़ों रु0 मूल्य की पुस्तकें और गणवेश की सामग्री बरबाद हो गयी, फिर भी संघ चुप रहा।
1992 में बाबरी ढांचे के ढहने के बाद एक बार फिर संघ पर प्रतिबंध लगाया गया; पर इस बार तो न्यायालय ने ही उसे खारिज कर दिया। बाबरी ढांचे का विध्वंस योजनाबद्ध था, आज तक कांग्रेस या पुलिस इसे सिद्ध नहीं कर पायी; पर धूर्त कांग्रेसी आज तक उसी बासी राग को गाते रहते हैं।
पर इस बार तो हद ही हो गयी। इस बार पूरे संघ पर ही आरोप लगाया जा रहा है कि वह आतंकी संगठन है। इस्लामी जेहादियों को आतंकवादी कहते इनकी नानी मरती है; सेवा की आड़ में देश तोड़ने का षड्यन्त्र रचने वालों को आतंकी कहते उनके मुंह में दही जम जाती है; पर उन्हें संघ जैसे देशभक्त संगठन को आतंकी कहते शर्म नहीं आती। इसलिए संघ को पहली बार सड़क पर उतर कर धरना देने पर मजबूर होना पड़ा।
यह बात ठीक है कि भोपाल प्रकरण ने इस रंग में भंग कर दिया। इससे जिस विषय पर संघ बहस चलाना चाहता था, वह विषय दब गया; पर यह भी मीडिया की ही चाल है। सुदर्शन जी उस धरने में वक्ता नहीं, मंच पर एक सम्मानीय अतिथि के नाते उपस्थित थे। धरने के बाद उन्होंने एक पत्र के संवाददाता से कुछ अनौपचारिक बातें कहीं, उसी को मुखपृष्ठ पर छाप कर उसने वितंडा खड़ा कर दिया।
किसी ने यह नहीं सोचा कि यदि सुदर्शन जी ने सार्वजनिक रूप से यह कहा होता, तो भोपाल के हर अखबार में वह खबर होती; पर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कांग्रेसियों को इससे एक मौका मिल गया और देश भर के मीडिया ने भेड़चाल अपनाते हुए बिना सोचे समझे प्याले में तूफान खड़ा कर दिया। यदि किसी मीडियाकर्मी में साहस होता, तो वह सोनिया से यह सब सवाल पूछता; पर विदेशी पैसे पर बिके और गौरी चमड़ी से अभिभूत मीडिया ने बेसिर पैर की इस खबर को सिर पर उठा लिया।
इसके बाद कांग्रेसियों द्वारा देश भर में जो नंगा नाच हुआ, वह सबको पता ही है। यह भी कोई पहली बार नहीं हुआ, कांग्रेस का इतिहास ही ऐसा है। 1948 में गांधी हत्या के बाद भी संघ के कार्यकर्ताओं पर हिंसक हमले हुए थे। 1975 में एक लाख से भी अधिक स्वयंसेवक एवं लोकतंत्र प्रेमियों पर झूठे मुकदमे लाद कर उन्हें प्रताड़ित किया गया था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में तो राजीव गांधी ने खुलेआम कांग्रेसियों को निर्दोष सिखों पर हमले करने को उकसाया था। यही काम इस बार कांग्रेस के भौंपू जर्नादन द्विवेदी ने किया।
संघ के शांतिपूर्ण धरने और कांग्रेस की गुंडागर्दी की तुलना से दोनों संस्थाओं का स्वभाव और चरित्र समझ में आता है। क्या अब भी किसी को संदेह है कि देश में सबसे बड़ी फासिस्ट और दंगाई पार्टी कौन सी है ?
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