सतारुढ़ यूपीए सरकार द्वारा अल्पसंख्यक वोट बैंक को अपने पाले में बनाए रखने के मकसद से अल्पसंख्यक समूहों के विरुद्ध होने वाली संगठित हिंसा की पूरी जिम्मेदारी बहुसंख्यक वर्गो पर डालते हुए ‘सांप्रदायिक हिंसा विरोधी’ बिल को संसद में रखने का निर्णय लिया है। यूपीए ने अपने साझा कार्यक्रम में ही एक ऐसा बिल लाने का वायदा देश के अल्पसंख्यक समूहों से किया था। इस बिल को बनाने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) को दी गई थी। एनएसी ने वर्ष 2005 में भी सांप्रदायिक हिंसा विरोधी एक मसौदा जारी किया था तब इस पर सामाजिक संगठनों और अल्पसंख्यक वर्गो की तरफ से एतराज उठाए गये थे सरकार ने भी इसमें व्यापक फेरबदल करने के संकेत दिये थे।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के सदस्य हर्ष मंदर और फरह नकवी के नेतृत्व में एक नया मसौदा देश के सामने रखा गया है. इस मसौदे को तैयार करने में गोपाल सुब्रह्राण्यम, माजा दारुवाला, नजम बाजिरी, पीआई जोस, तीस्ता सीतलवाड़, उषा रामनाथन, और वृंदा ग्रोवर की सात सदस्य टीम ने बनाया है। इस टीम ने पुराने मसौदे में बड़े बदलाव करके इसे एक नया नाम - सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण (न्याय प्राप्ति एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 दे दिया है। इसमें सांप्रदायिकता के साथ ही हर तरह की समूहगत हिंसा को भी जोड़ दिया गया है।
बहुसंख्यक समुदाय के अंदर इस आने वाले बिल को लेकर कई शंकाए है वहीं दूसरी और भाजपा नेता एवं राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के इस मसौदे को टाडा से भी ज्यादा खतरनाक और देश के संघीय व धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को खत्म करने वाला करार दिया है। जेटली ने इस बिल का मसौदा बनाने वाले कुछ लागों की तरफ उंगली उठाते हुए कहा कि जानबूझकर इसमें दंगो के लिए बहूसंख्यक समुदाय को दोषी ठहराया गया है। हिन्दू संगठनों का आरोप है कि सरकार अल्पसंख्यक समूहों को खुश करने के मकसद से हिन्दुओं को हिंसक पृवत्ति का करार देने में लगी हुई है। इस बिल में केवल अल्पसंख्यक समूहों की रक्षा की ही बात की गई है सांप्रदायिक हिंसा के मामले में यह बिल बहुसंख्यकों की सुरक्षा के प्रति मौन है। इसका अर्थ साफ है कि बिल का मसौदा बनाने वाली एनएसी की टीम भी यह मानती है कि दंगों और सांप्रदायिक हिंसा में सुरक्षा की जरुरत केवल अल्पसंख्यक समूहों को ही है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) द्वारा तैयार मसौदे से ऐसा ही लगता है कि सरकार अल्पसंख्यक समूहों के बीच अपने को उनका सबसे बड़ा हित्तचिंतक साबित करना चाहती है। दंगो और सांप्रदायिक हिंसा के दौरान यौन अपराधों को तभी दंडनीय मानने की बात कही गई है अगर वह अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों के साथ हो। घृणा व वैमनस्य फैलने वाले प्रचार के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। बिल के मसौदे से ऐसा लगता है कि अगर इसे इसी रुप में लागू किया जाता है तो यह शांति की जगह अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक समूहों के बीच नफरत की दीवार को और चौड़ा ही करेगा। हिंसा अल्पसंख्यक समूहों के प्रति हो या बहुसंख्यक समूहों के प्रति दोनों ही दंडनीय अपराध की श्रेणी में आनी चाहिए।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) द्वारा तैयार मसौदे में एक सात सदस्यीय राष्ट्रीय प्राधिकरण बनाने की बात भी की गई है जिसमें अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सहित चार सदस्य अल्पसंख्यक वर्गो से होगे हालांकि उनका चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, गृहमंत्री और लोकसभा में सभी राष्ट्रीय दलो के नेताओं की समिति से करने का सुझाव है। मसौदे में दंगों के दौरान राज्य की भूमिका और प्रशासन स्तर पर किये जाने वाले प्रयासों की बात करते हुए प्रशासन को अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल करने के लिए जिम्मेदारी तह करने की बात हैं।
बड़ा सवाल यह है कि यह मसौदा क्या देश के बहुसंख्यक समूहों को संतुष्ट कर सकता है? क्या इस पर राष्ट्रीय सहमति बन पायेगी और यह केन्द्र सरकार को स्वीकार होगा ? सांप्रदायिक या जातीय दंगों की अगर बात करे तो कानूनन उनसे निपटने का तरीका बहूत कारगर नही है। अभी भी देश में सांप्रदायिक हिंसा एवं दंगो से निपटने के कड़े कानून है। राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग जैसे संस्था हमारे पास है। न्याय प्रक्रिया सचारु रुप में अपना काम कर रही है। कंधमाल और कर्नाटक में हुई चर्च विरोधी हिंसा के दौरान सरकार ने जांच आयोग गठित किये। आयोगों द्वारा चर्च की तरफ अंगुली उठा देने से चर्च ने इन आयोगों की रिर्पोट को ही मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वह रिर्पोट शायद उनके मकसद को पूरा नही करती थी। इसलिये उन्होंने कर्नाटक में कर्नाटक उच्चन्यायालय के पूर्व मुख्यन्यायाधीश माइकल एफ सलदना की स्वतंत्र रिर्पोट को ही माना क्योकि उसमें सरकार और हिन्दू संगठनों को हिंसा के लिए जिम्मेदार माना गया था।
बड़ा मुद्दा यह है कि सांप्रदायिक दंगो के पीछे आम ईसाई-मुस्लमान या हिन्दू नही होता, वे दंगे नही करते। दंगे साजिशन राजनीति और धर्म विस्तार में लगे कुशल खिलाडियों द्वारा करवाये जाते है जो बाद में साप्रदायिक सौहार्द के नाम पर राष्ट्रीय और अतंरराष्ट्रीय स्तर पर अपने स्वार्थ पूरे करते है। आज एक ऐसी राजनीति विकसित करने की जरुरत है जो ऐसे सामाजिक - सांस्कृतिक विभाजनों पर केन्द्रित न हो बल्कि वंचितों के विकास के प्रति समर्पित हो। (साभारः विस्फोट डॉट कॉम)
बहुसंख्यक समुदाय के अंदर इस आने वाले बिल को लेकर कई शंकाए है वहीं दूसरी और भाजपा नेता एवं राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के इस मसौदे को टाडा से भी ज्यादा खतरनाक और देश के संघीय व धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को खत्म करने वाला करार दिया है। जेटली ने इस बिल का मसौदा बनाने वाले कुछ लागों की तरफ उंगली उठाते हुए कहा कि जानबूझकर इसमें दंगो के लिए बहूसंख्यक समुदाय को दोषी ठहराया गया है। हिन्दू संगठनों का आरोप है कि सरकार अल्पसंख्यक समूहों को खुश करने के मकसद से हिन्दुओं को हिंसक पृवत्ति का करार देने में लगी हुई है। इस बिल में केवल अल्पसंख्यक समूहों की रक्षा की ही बात की गई है सांप्रदायिक हिंसा के मामले में यह बिल बहुसंख्यकों की सुरक्षा के प्रति मौन है। इसका अर्थ साफ है कि बिल का मसौदा बनाने वाली एनएसी की टीम भी यह मानती है कि दंगों और सांप्रदायिक हिंसा में सुरक्षा की जरुरत केवल अल्पसंख्यक समूहों को ही है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) द्वारा तैयार मसौदे से ऐसा ही लगता है कि सरकार अल्पसंख्यक समूहों के बीच अपने को उनका सबसे बड़ा हित्तचिंतक साबित करना चाहती है। दंगो और सांप्रदायिक हिंसा के दौरान यौन अपराधों को तभी दंडनीय मानने की बात कही गई है अगर वह अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों के साथ हो। घृणा व वैमनस्य फैलने वाले प्रचार के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। बिल के मसौदे से ऐसा लगता है कि अगर इसे इसी रुप में लागू किया जाता है तो यह शांति की जगह अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक समूहों के बीच नफरत की दीवार को और चौड़ा ही करेगा। हिंसा अल्पसंख्यक समूहों के प्रति हो या बहुसंख्यक समूहों के प्रति दोनों ही दंडनीय अपराध की श्रेणी में आनी चाहिए।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) द्वारा तैयार मसौदे में एक सात सदस्यीय राष्ट्रीय प्राधिकरण बनाने की बात भी की गई है जिसमें अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सहित चार सदस्य अल्पसंख्यक वर्गो से होगे हालांकि उनका चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, गृहमंत्री और लोकसभा में सभी राष्ट्रीय दलो के नेताओं की समिति से करने का सुझाव है। मसौदे में दंगों के दौरान राज्य की भूमिका और प्रशासन स्तर पर किये जाने वाले प्रयासों की बात करते हुए प्रशासन को अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल करने के लिए जिम्मेदारी तह करने की बात हैं।
बड़ा सवाल यह है कि यह मसौदा क्या देश के बहुसंख्यक समूहों को संतुष्ट कर सकता है? क्या इस पर राष्ट्रीय सहमति बन पायेगी और यह केन्द्र सरकार को स्वीकार होगा ? सांप्रदायिक या जातीय दंगों की अगर बात करे तो कानूनन उनसे निपटने का तरीका बहूत कारगर नही है। अभी भी देश में सांप्रदायिक हिंसा एवं दंगो से निपटने के कड़े कानून है। राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग जैसे संस्था हमारे पास है। न्याय प्रक्रिया सचारु रुप में अपना काम कर रही है। कंधमाल और कर्नाटक में हुई चर्च विरोधी हिंसा के दौरान सरकार ने जांच आयोग गठित किये। आयोगों द्वारा चर्च की तरफ अंगुली उठा देने से चर्च ने इन आयोगों की रिर्पोट को ही मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वह रिर्पोट शायद उनके मकसद को पूरा नही करती थी। इसलिये उन्होंने कर्नाटक में कर्नाटक उच्चन्यायालय के पूर्व मुख्यन्यायाधीश माइकल एफ सलदना की स्वतंत्र रिर्पोट को ही माना क्योकि उसमें सरकार और हिन्दू संगठनों को हिंसा के लिए जिम्मेदार माना गया था।
बड़ा मुद्दा यह है कि सांप्रदायिक दंगो के पीछे आम ईसाई-मुस्लमान या हिन्दू नही होता, वे दंगे नही करते। दंगे साजिशन राजनीति और धर्म विस्तार में लगे कुशल खिलाडियों द्वारा करवाये जाते है जो बाद में साप्रदायिक सौहार्द के नाम पर राष्ट्रीय और अतंरराष्ट्रीय स्तर पर अपने स्वार्थ पूरे करते है। आज एक ऐसी राजनीति विकसित करने की जरुरत है जो ऐसे सामाजिक - सांस्कृतिक विभाजनों पर केन्द्रित न हो बल्कि वंचितों के विकास के प्रति समर्पित हो। (साभारः विस्फोट डॉट कॉम)
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