स्पष्ट संकेत हैं कि भारत के अंदर एक परिवर्तनकारी आत्म-संघर्ष का होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि स्वाधीनता के बाद से देश में जिस प्रकार की सत्ता-लिप्सा और स्वार्थ को निर्बाध पनपने दिया गया है उसका कोई आसान अंत संभव प्रतीत नहीं होता. इसमें कोई संदेह नहीं कि समूचे देश की जनता लंबे समय से सर्व व्याप्त भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही है. लेकिन उसे आज तक न तो कोई ऐसा रास्ता सूझा है और न ही सुझाया गया है जिस पर चल कर वह सहजता के साथ इससे निजात पा सके. देश की कमान सँभालने वालों ने गंभीरता के साथ इस विषय पर कोई ध्यान नहीं दिया. चुनावों में लाखों करोड़ों का खर्च कर सत्ता की कुर्सियों तक पहुँचने की कुछ लोगों की चाह ने उन करोड़ों लोगों के दिन प्रतिदिन भ्रष्टाचार के शिकंजे में कसते जीवन की व्यथा गाथाओं की कोई टोह कभी भी नहीं ली.
योगगुरु बाबा रामदेव ने किसी राजनीतिक पहल के अभाव में पहली बार भ्रष्टाचार के विरुद्ध शंखनाद किया. दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल जन-संसद का आयोजन किया जो भारत के अब तक के स्वाधीनता कालखंड में एक अद्भुत प्रयोग है. एक प्रकार का लघु जनमत संग्रह इसे कहा जा सकता है जो भारत के करोड़ों लोगों की पीड़ा को उन्मुक्त अभिव्यक्ति देने को सक्षम प्रतीत हुआ. जनशक्ति का एक अभूतपूर्व प्रदर्शन जिसने एक ऐसे सत्ताधारी दल के राजनीतिज्ञों की नींद हराम कर दी जो वस्तुत: भ्रष्टाचार से देश को मुक्ति दिलाने का कोई इरादा नहीं रखते. यदि रखते होते तो देश की स्वाधीनता के ६४ वर्ष बाद किसी गैर राजनीतिज्ञ सन्यासी को जनांदोलन शुरू करने की आवश्यकता न पड़ती. जमता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि एक प्रजातंत्रीय व्यवस्था में देश की जनता के प्रति अपना कर्तव्य मान कर बनाते कानून, कठोर दंड का प्रावधान करते और सुनिश्चित करते कि भ्रष्टाचार का रोग महामारी बन कर राष्ट्र जीवन को संक्रमित न करे. लेकिन एक के बाद एक सरकारें बनीं और ऐसी चुनावी राजनीति हावी रही जिनमें मुद्दे गौण रहे. मात्र हारजीत के खेल ही खेले जाते रहे. भ्रष्ट राजनीतिक माहौल में, जहां जनशक्ति का महत्व चुनावों के समय ही सत्ताबुभुक्षित राजनीतिक खिलाडियों को महसूस होता है किसी ठोस जनहितपरक सुधार की अपेक्षा करना व्यर्थ है.
सत्ता का स्वाद चखने की चाह और सांसद या विधायक बन कर, एक आम आदमी से ऊपर उठ कर, एक विशिष्ठ व्यक्ति बन कर लाल बत्ती वाली गाड़ी में घूमने और रौब से जीने की आदत पड़ गयी है अनेक लोगों को. पर क्या कोई आम आदमी, जिसके पास चुनाव में खर्च करने के लिए लाखों करोड़ों रूपये का कोई जुगाड़ संभव नहीं होता, बुद्धिसक्षम होते हुए भी संसद तक पहुँच सकता है? नहीं. यह कैसा लोकतंत्र है पनपा है भारत में? तो क्या भ्रष्टाचार के कीड़े का जन्म यहीं से नहीं होता? चुनावों में लगाया जाने वाला लाखों करोड़ों रुपयों का जुगाड़ कहाँ से होता है? क्या ईमानदार साधनों से होना संभव है? नहीं, तो क्या यह सच नहीं है कि इसे चुकाने और अगली बार के लिए और धन जुटाने के इन कथित विशिष्ठ लोगों के खेल में कितने उन लोगों की पीडाएं होती हैं जिन्हें प्रतिधव्नित करने के लिए सशक्त प्रयास किए जाने की आवश्यकता है.
बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को भंग करने के लिए दिल्ली के सत्ताधीशों ने राम लीला मैदान में एकत्र निहत्थे लोगों पर रात के दौरान बर्बरतापूर्ण पुलिस कारवाई करने के आदेश जारी किए. लाठी चली, अश्रुगैस के गोले फैके फोड़े गए, लोगों को पीटा गया, घसीटा गया, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया. बाबा को दिल्ली से हटा कर उनके हरिद्वार स्थित आश्रम में लौट जाने को विवश कर दिया गया. लगता है एक ऐसी सरकार को यह नव प्रयोग नहीं भाया. इसलिए नहीं भाया क्योंकि एक योगगुरु के द्वारा किए गए इस साहसिक उपक्रम में उसे अपने पांव तले से धरती सरकती प्रतीत हुई. सत्ता खिसकती महसूस हुई. अपने स्वभाव के अनुसार कांग्रेस के नेताओं ने स्वामी रामदेव को आर.एस. एस. का एजेंट घोषित कर दिया. इसे भाजपा की चाल बताया. इस पर भी उसने एक तरफ तो राजनीति के दावों-पेंचों से बेखबर बाबा के साथ उनकी मांगो पर समझौते का नाटक रचा और साथ ही दमन के अस्त्र का प्रयोग भी किया. अंतत: भ्रष्टाचार के अहं मुद्दे के एक बार फिर उलझ कर रह जाने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं.
अंग्रेजों के ज़माने में आजादी की मांग करना, उनके अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना, जलसे जलूसों का आयोजन कर नारेबाजी करना अपराध था. उनके विरुद्ध जुबां खोलने वालों को सज़ा दी जाती थी, अपना सर ऊँचा उठा कर चलने वाले भारतीयों को झुक कर चलने पर विवश किया जाता था. हिंदुस्तानियों को इंसान नहीं कुत्ता बिल्ली मान कर उनके साथ व्यवहार किया जाता था. जो दृश्य टेलिविज़न पर देखने को मिले हैं निश्चय ही अंग्रेजों के ज़माने में हुए जलियान वाला बाग जैसी बर्बरता की याद दिलाते हैं. क्या स्वतन्त्र भारत की यही नियति है कि उसकी आम जनता एक वर्ग विशेष की ताकत के आगे सर झुकाती रहे, भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दों पर भी अपनी जुबान बंद रखे और जो जैसा है देश में उसे बदल देने की मांग न करे. क्यों?
कैसी विडम्बना है कि वह देश जो अंग्रेजों की क्रूरता, कुटिलता और दमन के विरुद्ध लड़ता रहा उसी देश को राहत मिलने के स्थान पर कहीं अधिक अधिक कष्ट उठाने पड़ रहे हैं. सबसे बड़ा कष्ट है अपनों से ही अपमानित, प्रताड़ित और प्रतिबंधित होने का. शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध, शांतिपूर्ण जन-एकत्रीकरण पर प्रतिबन्ध, अपने जनतांत्रिक अधिकार और न्याय मांगने पर प्रतिबन्ध. जो व्यक्ति भ्रष्टाचार जैसे महारोग से देश को मुक्ति दिलाने के लिए बीड़ा उठाता है और जो भी राष्ट्रवादी संगठन कांग्रेस की महाभ्रष्ट सरकार के लिए चुनौती सिद्ध हो सकते हैं उनके विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं काग्रेसी नेता. लोकतंत्रीय परम्पराओं की उपेक्षा करते हुए उनके द्वारा असंतुलित भाषा का प्रयोग और अनावश्यक एवं बर्बरतापूर्ण बलप्रयोग देश की जनता के आक्रोश में वृद्धि ही करेगा.
लगता है भ्रष्टाचार के चंगुल से देश को मुक्त कराने के लिए एक अत्यंत कुशल, सतर्क, मज़बूत और प्रतिबद्ध नेतृत्व में प्रजातांत्रिक संघर्ष करना होगा. उसमें उन सभी दीवारों को लांघने की आवश्यकता है जो निहित-स्वार्थों ने जान बूझ कर खड़ीं कर रखीं हैं. वे ऐसे परिवर्तन आसानी से नहीं होने देंगे जिनसे उनकी पोल खुले और शक्ति केंद्र वस्तुत: आम आदमी स्वयं बन जाए. यह सरकारी या गैरसरकारी ऐसे किसी भी संगठन को स्वीकार्य नहीं होगा. वे हर प्रयत्न करेंगे कि ऐसे हर आंदोलन को कुचल दिया जाये, उस व्यक्ति को डरा धमका कर बंद कर दिया जाए जो निर्भीकता के साथ बोलता है और उनके अहं को नकारता है. जाने क्यों उन्हें हर किसी ऐसे प्रयास के पीछे राष्ट्रवादी संगठन आर. एस. एस. का हाथ नज़र आता है. भाजपा का भूत सिर पर मंडराता दिखने लगता है. समग्र भारत जनहितकारी राष्ट्रवाद उन्हें अखरता है और अपना खुद का नात्सिवादी स्वरूप उन्हें दिखाई नहीं देता.
स्वतंत्रता की बलिवेदी पर जान न्योच्छावर कर देने वाले राष्ट्रभक्त भारतीयों का सोचना था कि विदेशियों से आज़ादी पाने के बाद भारत मात्र भारतीयों का ही होगा. उनकी भारतीय भाषाएं सर्वोच्च स्थान पाएंगी, उनकी भारतीय संस्कृति, वैदेशिकता के प्रभाव से मुक्त होगी. उनकी पारंपरिक भारतीय जीवन शैली पुन: उन्मुक्तता के साथ पनपेगी और भारतीय समाज विभाजनों की भाषा नहीं बोलेगा. न ही ऐसा आचरण करेगा जिससे विश्व में उसे उपहास का पात्र बनना पड़े. लेकिन दुर्भाग्य है कि देश स्वाधीन तो है लेकिन पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं है. भारत में जैसे दमनकारी कानूनों का अभी भी वर्चस्व है वे अंग्रेजों ने बनाये थे. जैसी राजनीति आज़ादी के बाद से देश में पनपी है उसके खिलाड़ियों ने जातीय समानता का बहाना बना कर आरक्षण प्रावधानों का ताना बना बुन कर समाज को एकजुट होने देने की अपेक्षा चुनावी समीकरणों में बाँट रखा है. चुनावों में यही तो उनकी हार जीत को तय करता है. स्वार्थी राजनीतिज्ञों को जब उनका साम्प्रदायिक जनाधार डोलता दिखाई देने लगता है तो वे अपनी सुध बुध भूल जाते हैं. तथाकथित अल्पसंख्यक समर्थन की मृगमरीचिका का शिकार हो कर अपना राजनीतिक खेल खेलते हैं. मुद्दों की राजनीति सही मानों में पनप ही नहीं पाई है.
तो क्या भ्रष्टाचार के विरुद्ध बाबा का युद्ध थम जाएगा? क्या अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल विधेयक पर सरकार के साथ हुआ कथित समझौता कूड़ेदान में जाएगा? जिस चक्रव्यूह में बाबा रामदेव को घेरा जा रहा है उस पर आम जनता की क्या प्रतिक्रिया होगी? देश का सर्वोच्च न्ययालय, मानवाधिकार आयोग और जागरूक राष्ट्र हित परक संगठन रामलीला मैदान में हुए घटनाक्रम के दृष्टिगत भारत में मूल भूत नागरिक स्वतन्त्रताओं और उसके संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कितनी तत्परता से निर्णायक कदम उठाते हैं वस्तुत: देश की दिशा और दशा अब इस पर अधिक निर्भर करती है. राष्ट्रीय महत्व के अहं मुद्दों पर देश के नागरिकों को यदि आवाज़ उठाने से रोका जाता रहा, असंबंधित और निरर्थक बहसों में जान बूझ कर देश को भ्रमित करके असली मुद्दों से ध्यान हटाया जाता रहा और आम जनता को डराने धमकाने की राजनीति को यदि अब थामा नहीं गया तो देश को फिर से आपातकाल का सामना करना पड़ सकता है. भ्रष्टाचार अभियान पर उभरती बहस का रुख बदलने की वर्तमान सत्ताधारियों की चेष्ठा कुच्छ ऐसे ही संकेत देती है. साभार नरेश भारतीय
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