अहमदाबाद के उन अनाम युवा छात्र-छात्राओं ने राहुल गांधी से बिल्कुल सही व जरूरी सवाल पूछे और पूरी विनम्रता से पूछे। उन्होंने इस बात का भी सबूत दिया कि आज के छात्र वह काम कर रहे हैं, जो पत्रकार या तो कर नहीं सकते या नहीं करेंगे।
वह काम है : सही और प्रासंगिक सवाल पूछना। राहुल गांधी के इस कार्यक्रम में मीडिया को जाने की इजाजत नहीं थी। लेकिन हम जान सके कि वहां क्या हुआ, तो एक उत्साही रिपोर्टर की बदौलत, जिसका एक स्रोत सभागार के भीतर मौजूद था।
बातचीत का लब्बोलुआब सीधा-सादा था। छात्र जानना चाहते थे कि जब नरेंद्र मोदी ने गुजरात का इतना ज्यादा विकास किया है, तो वे कांग्रेस को वोट क्यों दें। राहुल गांधी ने जो जवाब दिए, उनमें से एक अजीब ही कहा जाएगा।
उन्होंने कहा, माओ त्से तुंग ने भी चीन का विकास किया था, लेकिन ‘वह अपने देश में विनाश का भी कारण बने।’ मुझे नहीं पता बीसवीं सदी के एक महान नेता से अपनी तुलना किए जाने पर नरेंद्र मोदी को कैसा लगा होगा। अलबत्ता राहुल गांधी ने इतिहास के बारे में अपनी राय संभवत: किसी नए और युवा साथी की जानकारी के आधार पर बनाई होगी, तो भी वह चीनियों से तस्दीक कर लेते। चीनी अब माओ से बहुत आगे आ गए हैं, ठीक उसी तरह जैसे भारत और कांग्रेस महात्मा गांधी से आगे आ गए हैं। लेकिन चीनी लांग मार्च के नेता की अब भी बेहद इज्जत करते हैं, एक ऐसे नेता के रूप में जिसने चीन के आर्थिक कायापलट की नींव रखी।
माओ की तस्वीर थियेनआनमन चौक पर भी लगी है और राष्ट्र के बैंकनोट पर भी। अगर मोदी की तस्वीर रुपए पर छप जाए और यह गौरव पाने वाले वे दूसरे गुजराती बन जाएं तो अपना जीवन वह धन्य समझेंगे।
चेयरमैन माओ को यह शोभा देता था कि वह अपने कोटेबल कोट्स की लाल किताब छपवाएं और सांस्कृतिक क्रांति के दौरान नौजवानों से उसे एकजुटता से लहराने को कहें, लेकिन मोदी के लिए यह दूर की कौड़ी होगी। एक युवा लड़की का सवाल और भी तीखा था। उसने पूछा कि विकास के मोर्चे पर कौन-से कांग्रेस नेता मोदी की बराबरी में ठहरते हैं।
राहुल गांधी की जुबान पर चार नेताओं के नाम थे : मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम, जयराम रमेश और एके एंटनी। दिलचस्प है कि इन चार में तीन ने लोकसभा का चुनाव ही नहीं लड़ा और चौथे चिंदबरम के अपने निर्वाचन क्षेत्र में उनकी विकास की क्षमताओं के बारे में इतनी खराब राय थी कि 2009 के आम चुनाव में उन्हें विजेता घोषित करने से पहले पराजित घोषित कर दिया गया था।
जयराम रमेश अगर एक निर्वाचन क्षेत्र खोज पाएं जहां से वह विकास के नारे पर चुनाव जीत सकें तो यह बहुत दिलचस्प बात होगी। लेकिन यह साफ है कि उनका मंत्रालय राहुल के यात्रा कार्यक्रम के आधार पर तय करता है कि उसे कौन-सा कदम कब उठाना है।
सबसे दिलचस्प बात यह थी कि नायकों की राहुल गांधी की सूची में भारत के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी का नाम नहीं था, न विकास के मामले में, न ईमानदारी के मामले में। दोनों सूचियां एक जैसी थीं, क्योंकि राहुल की राय में तीन कभी भ्रष्ट न होने वाले मंत्री भी वही थे - पीएम, एंटनी और चिदंबरम। जयराम को उन्होंने शामिल करना उचित नहीं समझा।
इस बात में संदेह है कि लोग प्रतीक्षारत-प्रधानमंत्री के ऐसे प्रमाणपत्रों पर यकीन करेंगे, लेकिन दिल्ली में राहुल पर निगाह रखने वाली विशाल बिरादरी ने अपना गुणा-भाग पहले ही कर लिया होगा। लोगों के घटते-बढ़ते प्रभाव के हिसाब से उन्होंने अपनी श्रद्धा बदल ली होगी। बड़े विजेता जाहिर तौर पर चिदंबरम और जयराम हैं।
चिदंबरम छलांग लगाकर वरिष्ठों के शिखर पर आ गए हैं, जबकि जयराम ने दूसरी पायदान पर ध्रुवीय हैसियत प्राप्त कर ली है। प्रमाणपत्रों ने राहुल की पहली कैबिनेट में (अगर बनी तो ) स्टार्स के रूप में उनकी उम्मीदवारी तय कर दी है, ताकि आप जान सकें कि कोई काम करवाना हो तो किसके जरिए करवाया जा सकेगा। अहमदाबाद के छात्र राजपरिवार के उत्तराधिकारी की आलोचना के फेर में नहीं पड़े, पर मोदी के बारे में अपने सवालों पर जोर देते रहे।
राहुल आखिर गुजरात के विकास का श्रेय मोदी को क्यों नहीं दे रहे हैं? ‘कुछ मुद्दों’ के कारण, राहुल गांधी ने जवाब दिया। क्या उनका मतलब दंगों से है? अब कहानी में दिलचस्प मोड़ आता है। राहुल गांधी चाहते तो सीधा और दोटूक जवाब दे सकते थे।
इसके बजाय कांग्रेस नेता ने यह कहते हुए विदा ली कि उन्हें देर हो रही है। राहुल गांधी का सामना उसी सच्चाई से हुआ जिससे सेंट जेवियर्स के छात्रों से मिलते वक्त ओबामा रूबरू हुए थे। पत्रकारों के सवालों का जवाब देना आसान है, छात्रों के सवालों का जवाब देना कठिन।
छात्र उनकी तुलना में कहीं ज्यादा स्पष्ट और दो-टूक थे। युवा लहर पर सवारी करने का दावा आसान है, युवाओं को समझना कठिन। उन्हें कॉस्मेट्क्सि अच्छे लगते हैं, लेकिन वे मेकअप को असली चेहरा समझने की भूल नहीं करते।
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