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नया धमाका

12/03/2010

आओं, अब भारत की ओर लौट चले!

देश को आजाद हुए 63 साल हो चुके है किंतु भारत की विडम्बना है कि भारत के सभी गांवों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। भारत के काफी गांव सरकारी दावों के विपरित मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है, आज स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि कोई भी थोड़ा सा आधुनिक विचारों वाला ग्रामीण युवा परम्परागत खेती न करके शहरों में छोटा-मोटा काम करने को प्राथमिकता दे रहा है, ग्रामीण युवाओं के लिए रिश्तों में भी दिक्कत आ रही है, भारतीय अर्थ व्यवस्था का आधार कृषि घाटे का सौदा बनने के कारण किसान विवश होकर आत्महत्या तक कर रहा है। महाराष्ट्र के विदर्भ का उदाहरण हमारे सामने है। झारखण्ड, पंजाब के कई गांवों के लोगो ने बढ़ते कर्जभार के कारण गांवों के बाहर “गांव बिकाऊ है” के साइन बोर्ड लगा दिए है। परम्परागत कुटीर उद्योगों के स्थान पर बहुराष्ट्रीय उत्पादों से गांवों की दुकाने तक अटी पड़ी है। ऐसे में हमें भारत किस दिशा में जा रहा है, के बारें में विचार करने की आवश्यकता है।
कांग्रेस में पण्डित नेहरू के समाजवादी विचारों से प्रभावित व्यक्तियों के उद्भव के कारण आर्थिक समस्याओं के प्रति गांधीवादी सिद्धांत को नेहरू के भौतिकतावादी विचारों ने ढ़क लिया। दिनांक 5 अक्टूबर 1945 को महात्मा गांधी ने नेहरूजी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होने विकास के बारें में उनके विचार जानने चाहे, पत्र में गांधीजी का नेहरूजी को सुझाव था कि “भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या गांवों में रहती है अतः सभी विकास योजनाएं गांवों को ध्यान में रखकर बनाई जाये किंतु इसके प्रत्युत्तर में नेहरूजी ने कहा कि मैंने लगभग 20 वर्ष पूर्व हिन्द स्वराज में आपके विचार पढ़े थे, मैं उस समय भी उससे सहमत नहीं था आज तो समय इतना बदल गया है कि यदि हम उन विचारों पर चले तो हम  जरा भी प्रगति नहीं कर पायेगे, गांव बौद्धिक और सांस्कृतिक दोनो रूप में पिछड़े होते है और पिछड़े माहौल में किसी प्रकार की प्रगति नहीं की जा सकती। हमें गांवों को शहरी संस्कृति में ढालना होगा।” और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसी वर्ष कांग्रेस उच्च कमान द्वारा पारित 12 सूत्री संकल्प पत्र में उनके विचार देखने को मिले जिसके परिणामस्वरूप इसी मानसिकता के कारण स्वतंत्रता के बाद भी प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण सरकार के हाथों में होने के बावजूद संसाधनों के प्रबंधों के लिए बनाई गई औपनिवेशिक संस्थाऐं पूर्ववत बनी रही। हमने इनको इसलिए नहीं बदला कि हम “औद्योगिक क्रांति” पर बड़े मोहित थे। हमने सोचा कि जैसे यूरोपीय देश और इंग्लैण्ड औद्योगिक क्रांति से फल-फूल गए, हमें भी उन्नति के लिए ऐसा ही करना चाहिए।
यह मानना कि इंग्लैण्ड और अन्य यूरोपीय देश औद्योगिक क्रांति के कारण अमीर और उन्नतशील हुए, गलत है। वास्तव में औद्योगिक क्रांति के लिए भारी पूंजी की आवश्यकता थी और 1757 तक इंग्लैण्ड में यह पूंजी उपलब्ध नहीं थी! ते फिर यह पूंजी आई कहां से? इतिहास बताता है कि यह पूंजी 1757 में हुई प्लासी की लड़ाई के बाद भारत से आई, भारत के करोड़ों व्यक्ति लूटे गए जिसके बाद 1760 में भिन्न-भिन्न सुप्त आविष्कार मूर्त होने लगे। 1760 में “फलाइंग शटल”, 1768 में वाष्प इंजन बना, 1785 में बिजली के करघे का आविष्कार हुआ। हर साल औसतन 25 करोड़ रूपयें भारत से लूटे गए। यह सिलसिला 1757 से वाटरलू की लड़ाई 1815 तक चलता रहा। यही वह निरंतर लूट थी जिसने इस क्रांति को पोसा। 19वीं शताब्दी के मध्य तक इंग्लैण्ड में उत्पादन कार्य के लिए मशीनों का उपयोग नहीं होता था, “औद्योगिक क्रांति” के बाद भी वहां का तैयार माल इतना घटिया होता था कि वह विश्व बाजारों में छाए हुए अति परिष्कृत भारतीय माल की बराबरी नहीं कर सकता था। कपड़ा, इस्पात, कृषि उत्पादों के क्षेत्रों में भारत के पा परिष्कृत पौद्योगिकी थी। भारत में बने कपड़े की इतनी मांग थी कि सन् 1800 में ब्रिटेन को भारतीय कपड़े पर प्रतिबंध लगाना पड़ा, 1875 में एडिनबर्ग में बने “देशभक्त संघ” ने उन “भ्रष्ट”महिलाओं का बहिष्कार करने की अपील की जो भारतीय कपड़ा पहनती थी।
जहां तक भारतीय प्रौद्योगिकी का संबंध है यह विकेन्द्रीकृत होने के बावजूद परिष्कृत थी, अंग्रेजों द्वारा भारतीय तकनीक को पुरातन कहने के बाद भी वो आज तक उस तकनीक के बराबर नहीं पंहुच सके है। उस समय हम 2,425 न0 का धागा बना सकते थे किंतु आज 250 से अधिक न0 का धागा नहीं बना सकते, इस्पात बनाने के लिए 300 रूपयें लागत में भट्ठी बना लेते थे जिन्हे कंधों पर कहीं भी ले जाया जा सकता था, किसी भी नदी के किनारें कार्य प्रारंभ किया जा सकता था, तैयार इस्पात अच्छी किस्म का होने के बाद भी उसकी लागत मात्र 50 रू0 टन होती थी जबकि इंग्लैण्ड में “औद्योगिक ढं़ग” से तैयार इस्पात की लागत 250 रू0 टन होती थी। कृषि के मामले में भी हमारे पास परिष्कृत प्रौद्योगिकी थी। जब अंग्रेजों ने पाया कि वे हमारे माल की बराबरी नहीं कर सकते तो उन्होने भारतीय उद्योगों को तहस-नहस करने की ठान ली और ऐसा किया भी। यह हमारे इतिहास का एक कारूणिक अध्याय है।
वर्तमान में भारत को फिर से अमीर देशों के तैयार माल का बाजार बनाने की दिशा में तेजी से कार्य किया जा रहा है। स्वतंत्र होने पर हमने औद्योगिक क्रांति का मार्ग चुना किंतु इसके लिए आवश्यक पूंजी हमारे पास नहीं थी उस समय अमीर देशों ने हमसे कहा कि हम तुम्हे धन देगें और उन्होने जो धन ऋण या सहायता के रूप में हमें दिया वह आज हमारे मनोबल और आत्मनिर्भरता को चूस रहा है। ये देश हमें मात्र कच्चे माल की आपूर्ति करने वाला और अपने उत्पादों का बाजार बनाने की दिशा में कार्यरत है। भारत ने ऋण इस आशा में लिए थे कि हम वापिस लौआ देगें किंतु हम ऐसा नहीं कर पाये। अब तो हम ऐसे ऋण चक्र में फंसे है कि ऋण चुकाने के लिए और ऋण लेना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति केवल भारत की ही नहीं उन सभी देशों की है जिनके पास कुछ प्राकृतिक संसाधन बचे हुए है। इन प्राकृतिक संसाधनों पर काबू पाने के लिए अमीर देशों ने “आर्थिक साम्राज्यवाद” का जाल फैलाया है तथा विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी बहुआयामी संस्थाएं इस दिशा में कार्यरत है। मार्च 1976 में विकसित देशों के उपनिदेशक बुश नील ने अमेरिकी सीनेट के विदेश कार्यो की एक उपसमिति को बताया कि ये बैंक स्वयं हमारी अर्थ व्यवस्था के अनुरूप विकास को प्रोत्साहित करते है, उनमें हमारी भागीदारी से आवश्यक कच्चे माल की प्रप्ति और विकासशील देशों में अमेरिका के निवेश के लिए एक बेहतर वातावरण सुनिश्चित हो सकेगा। ब्यूरो ऑफ एकोनामिक एण्ड बिजनेस एफेयर्स ऑफ स्टेट के सहायक सचिव जास्टन जे0 ने सीनेट को बताया कि बहु आयामी विकास बैंकों में निवेशित हमारे प्रत्येक डालर से अमेरिकी फर्मो के लिए 3 डालर का व्यापार प्राप्त होता है। भारत सरकार द्वारा अमेरिकी दबाब से लाई गई उदारीकरण नीति के कारण अमेरिकी कम्पनियां तेजी से हमारे बाजार पर अधिकार कर रही है, ऋण से दबे होने के कारण भूतपूर्व अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि सुश्री कार्ला हिल्स द्वारा चोर कहे जाने, विश्व खाद्य संकट के लिए भारतीयों को पेटू बताने या भारत को सुपर 301 अथवा स्पैशल 301 तक में रखने पर भारत कोई प्रतिक्रया नहीं कर पाया।
कई लोगो का तर्क है कि भारत में आने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनिया हमें नवीनतम तकनीक व रोगगार प्रदान करेगी किंतु बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए गठित हाथी आयोग का मत था कि “बहुत ही कम ऐसा होता है कि नयी प्रौद्योगिकी को निःशुल्क या कीमत लेकर बाहर जाने दिया जाए।” भारत में स्थापित अन्य विदेशी कंपनियों द्वारा निवेश की तुलना में कितने लोगो को रोजगार दिया गया यह किसी से छिपा नहीं है। इस प्रकार नयी तकनीक भी नहीं आती है तथा रोजगार भी नहीं मिलता है।
 आजकल फास्ट फूड के क्षेत्र में भी विदेशी कंपनियां पदार्पण कर चुकी है। चाहे हम भारतीयों को उसकी आवश्यकता हो या न हो। क्योंकि पापड़, चिप्स, सत्तू, इडली-डोसा, उपमा, चिवड़ा हमारे सुपर फास्ट फूड है। इन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियां इसलिए आ रही है कि इससे उन्हे भारी लाभ होगा। अपने पैसे की ताकत से वे सभी स्थानीय कंपनियों को हटाने की कोशिश कर रही है और काफी हद तक सफल भी हुई है।
भारत को विदेशी कंपनियों के कुचक्र से बाहर निकालने के लिए आवश्यक है कि हमें अपनी जीवन पद्धति के बारें में विचार करना चाहिए कि हम कैसी जीवन पद्धति चाहते है भारतीय या पाश्चात्य। साम्यवाद और पूंजीवाद दोनो पाश्चात्य जीवन पद्धति से पैदा विचारधाराएं है जिनमें अस्तित्व के लिए संघर्ष,, सर्वोत्तम का अस्तित्व, प्रकृति का शोषण और वैयक्तिक अधिकार की मूल धारणा प्रमुख आधार है। दूसरी ओर भारतीय जीवन पद्धति में जियो और जीने दो, शांतिपूर्ण सह अस्त्त्वि, प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाते हुए उसका दोहन, वैयक्तिक अधिकारों की बजाय कर्तव्यपालन पर जोर दिया गया है। हमें कैसी जीवन शैली चाहिए इसका विचार करने का अब समय है अतः भारत में अब ऐसी मनोदशा बनानी होगी कि जिसमें आवश्यकताओं को कम किया जाये। समाज का उच्च वर्ग ऐसी जीवन शैली का आदर्श बन सकता है। जनता में लोग भिन्न-भिन्न स्तर के होते है हर स्तर पर जनता की आवश्यकताऐं पूर्ण करनी होगी। अगर भारत को स्वाबलम्बी , सम्पन्न और वैभवशाली बनाना है तो आत्मनिर्भरता हमारी पहली शर्त होनी ही चाहिए, आवश्यक है आत्मविश्वास। हमारी जनता नया कुछ करने अथवा बौद्धिकता में किसी से पीछे नहीं है। आज अनेक कर्मवीर भारत को बनाने हेतु अपने - अपने ढ़ंग से प्रयत्नशील है-- नानाजी देशमुख और अन्ना हजारें। समग्र ग्राम विकास के कार्य में जुटे कार्यकर्ता, पुर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम...............आदि। क्या हम सब मिलकर भारत को पुनः विश्वगुरू बनाने के लिए ऐसा कुछ कर सकते है?

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