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नया धमाका

11/22/2010

सत्ताधीशों की कठपुतली बनता हमारा मीडिया

    - रामदास सोनी-अंग्रेजी गुलामी के कालखण्ड में पत्रकारिता की भूमिका नवचैतन्य का प्रतीक थी। संसाधनों का अभाव, सरकारी जुल्मो-सितम, हर समाचार पर सरकार की कड़ी नजर के बावजूद भारतीय पत्रकारिता व उस कालखण्ड के मूर्धन्य पत्रकार स्वतंत्रता की अलख जगाने में कामयाब रहे तो उसका श्रेय उनके राष्ट्र व समाज के प्रति समर्पण,  दृढ़ इच्छाशक्ति, विदेशी गुलामी के बंधनों से देश को मुक्त कराने की उत्कट चाह व उन्हे मिले समाज के समर्थन को था। अंग्रेजीकाल में निष्पक्ष, बेबाक, निर्भीक, वस्तुपरक समाचार प्रकाशित करने पर पत्रकारों व सम्पादकों को अमानवीय यातानाओं का सामना भी करना पड़ा। संसाधनों की कमी व सरकारी नियंत्रण होते हुए भी (यद्यपि समाचार पत्रों की प्रसार संख्या सीमित थी) अगर प्रकाशित समाचारों का समाज में विद्युत गति से सम्प्रेषण सभंव हो सका तो उसका एक बड़ा कारण था कि प्रकाशित समाचार देश व समाज की वास्तविकता पर आधारित थे, सामाजिक मूल्यों व राष्ट्रीय भावों से ओत-प्रोत थे।
आज भारत को स्वतंत्र हुए मात्र 63 साल हुए है, हमारा स्वयं का तंत्र विकसित हुआ है, समाचार पत्र प्रकाशन के साथ-साथ इलेक्ट्रिानिक मीडिया का प्रादुर्भाव हो गया है किंतु प्रकाशित या प्रसारित दोनो प्रकार के समाचारों से देश व समाज विलुप्त हो गए है अगर कोई आया है तो या तो टीआरपी / प्रसार संख्या बढ़ाने वाले कथित सनसनीखेज समाचार या विभिन्न प्रकार से किसी ज्ञात-अज्ञात का महिमामण्डन करते पेड समाचार। ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के लिए अखबार निकालने वालों का स्थान कारपोरेट घरानों ने ले लिया है, जान हथेली पर रखकर सच सामने लाने वाले पत्रकारों की कलम सच की जगह अब प्रायोजित समाचार लिखने लगी है। इस कारण से समाचार पत्रों या न्यूज चौनलों में प्रकाशित / प्रसारित सामग्री में व्यवसायिकता इस कदर झलकने लगी है कि आम आदमी भी समाचार की सत्यता / असत्यता कर नीर-क्षीर निर्णय करने लगा है।
लोकतंत्र का चौथा खंबा आज अपनी अस्मिता को बचाने की गुहार लगा रहा है। महात्मा गांधी का कहना था कि पत्रकारिता को हमेशा सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होना चाहि,, चाहे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े। एक पत्रकार समाज का सजग प्रहरी है,उसमें मानवीय मूल्यों की समझ होना बेहद जरुरी है। तभी वो समाज से जुड़े मुद्दों को सरकार के सामने उचित ढंग से रख पायेगा। लेकिन वर्तमान परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है,आज पत्रकारिता को मानवीय और सामाजिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं। सनसनीखेज खबरें,पेड न्यूज,पीत पत्रकारिता, स्वहित आज पत्रकारिता पर भारी पड़ गया है। आज चाहे प्रिंट हो या इलैक्ट्रानिक मीडिया केवल सामाजिक सरोकारों का दंभ भरते दिखाई देते हैं। कोई भी समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास नहीं करता।
आज स्थिति यह है कि अगर देश के संत, धर्माचार्य, कोई समाजसेवी व्यक्तित्व, स्वयंसेवी संगठन किसी प्रकार से भारतवासियों के उत्थान के लिए कार्य करता है तो वो मीडिया में सुर्खिया नहीं बन पाता, उसके ठीक उल्ट भारत के संतो या धर्माचार्याे के विरूद्ध गाहे-बेगाहे लगने वाले कथित आरोप हेडलाईन बनते है। अन्ना हजारे, नानाजी देशमुख जैसे कर्मयोगियों द्वारा समग्र ग्राम विकास के क्षेत्र में किए जा रहे काये मीडिया को नहीं दिखाई देते, नारायण सेवा संस्थान द्वारा विकलांगों के क्षेत्र में किए गए कार्याे का प्रकाशन समाचार पत्रों में आज तक क्यों नहीं हुआ।
वर्तमान दौर में समाचारों व न्यूज चौनलों में उन्ही समाचारों को स्थान मिल रहा है जो कि समाचार पत्र मालिक या कारपोरेट घरानों को पंसद हो, ऐसा प्रतीत होता है कि पत्रकारिता के ये आधुनिक पुरोधा भारत की जनता या अपने पाठकों को वो ही पढ़ाना- दिखाना चाहते है जो कि उन्हे स्वयं अच्छा लगे।
विभिन्न राष्ट्रीय महत्व की बातों को सत्ता में बैठे लोगो की सुविधा और नजरीये से हमारा मीडिया कैसे प्रस्तुत कर रहा है आईये देखे
1-  केंद्र सरकार के ईशारे पर तमिलनाडू की जयललिता सरकार ने 2004 में दीपावली पर जगदगुरू शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को गिरफ्तार किया। हिन्दु समाज के सर्वोच्च धर्मगुरू को हिन्दुस्तान में ही बिना किसी ठोस कारण मात्र राजनैतिक साजिश के कारण जेल में बंद कर दिया गया किंतु हमारे मीडिया में पूज्य शंकराचार्य को एक दुर्दान्त अपराधी के रूप में प्रचारित किया गया, हर न्यूज, ब्रेकिंग न्यूज में ऐसे-ऐसे मनगढ़ंत समाचार प्रसारित किए गए कि मानो विश्व का सबसे बड़ा आतंकवादी, मोस्ट वांटेड पकड़ा गया हो।
2- जन्माष्टमी के दिन उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या। उड़ीसा के जनजातीय क्षेत्र में आदिवासियों के बाच हिन्दु धर्म की अलख जगाने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद ही हत्या समाचार पत्रों की सुर्खिया नहीं बन पाई।
3- गुजरात के डांग जिले में धर्म-जागरण व धर्मान्तरण रूकवाने गए स्वामी असीमानंद को मालेगांव विस्फोट का मुख्य षडयंत्रकारी बनाने की साजिश हुई जिसको हमारे मीडिया ने खूब चटखारे लेकर प्रकाशित व प्रसारित किया।
4- संत आसाराम एंव सुधांशु महाराज का कथित स्टिंग ऑपरेशन करके उनको तंत्र-मंत्र करने वाला, अपराधियों को पनाह देने वाला, परस्त्रीगामी सिद्ध करने की कोशिश, जो कि उनके विरोधियों द्वारा की गई, को सोलह आने सही मानते हुए हमारे ही मीडिया द्वारा प्रकाशित किया गया जबकि विभिन्न प्रकार की जांचों में उक्त संतो ंके विरूद्ध ऐसा कोई तथ्य नहीं पाया गया।
5- कांग्रेस के नेता और नेहरू-गांधी राजवंश के चश्मो-चिराग राहुल गांधी द्वारा राष्ट्रवादी संगठन आरएसएस की तुलना प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी से की जाने पर उसको देशभर के सभी मीडिया चैनलों और अखबारों ने प्रमुखता से स्थान दिया जबकि संघ द्वारा देश हित में किए जा रहे कार्यो का आज तक मीडिया द्वारा कोई उल्लेख नहीं किया गया। क्या भारत का मीडिया संघ और इसके आनुषंगिक संगठनों के बारे में या उनके द्वारा किए जा रहे कार्यो को नहीं जानता। इसके विपरित 10 नवम्बर को संघ के बैनर तले संघ विरोधी दुष्प्रचार के विरूद्ध आयोजित धरने प्रदशनों को उतनी कवरेज नहीं मिल सकी क्यों।
6- बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरूधंति राय व जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला द्वारा जम्मू-कश्मीर को लेकर कहा गया कि यह भू- भाग कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा, कश्मीर का भारत में विलय अंतिम नहीं था, को सभी समाचार पत्रों व चैनलों द्वारा प्रमुखता दी गई क्या यह उचित था। जबकि दूसरी ओर इसके विरोध में अपना मत प्रकट करने वाले संगठनों को कोई तवज्जों नहीं मिली।
7- हाल ही में 10 नवम्बर को आरएसएस के पूर्व प्रमुख केएस सुदर्शन द्वारा कांग्रेस पार्टी व यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के बारे में पत्रकारों से हुई वार्ता में तीन बातें कही गई - पहली यह कि सोनिया गांधी एंटोनिया सोनिया माइनो हैं। दूसरी यह कि सोनिया के जन्म के समय उनके पिता जेल में थे और तीसरी बात यह कि उनका संबंध विदेशी खुफिया एजेंसी से है और राजीव और इंदिरा की हत्या के बारे में जानती हैं। गौरतलब है कि ये तीनों बातें पहली बार नहीं कही गई हैं। जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी सार्वजनिक रूप से कई बार इन बातों को बोल चुके हैं। प्रख्यात लेखक एस गुरूमुर्ति व कई अन्य लेखक इस बारे में लिख चुके है तो क्या कारण था कि कांग्रेस के संघ विरोधी आरोपो को प्रमुखता से स्थान देने वाला हमारा मीडिया इस बारे में पूर्वाग्रहग्रस्त हो गया और वास्तविकता को दबाकर पूरे समाचार को इस प्रकार से प्रस्तुत कर दिया गया कि मानों भारत पर कोई विदेशी आक्रमण हो गया हो या फिर ओसामा बिन लादेन ने आकर भारत में प्रेस वार्ता कर ली हो। बाल की खाल निकालने में माहिर मीडिया ने इस प्रकरण में इस बात को अनदेखा किया कि वाजपेई सरकार के समय भी इन तथ्यों को लेकर संसद में हंगामा हुआ था, जांच कराने का भी प्रयास हुआ किंतु सेकुलर मीडिया व कांग्रेसी बिरादरी के कारण वो प्रयास सिरे नहीं चढ़ सका। गअर बार-बार किसी सार्वजनिक व्यक्तित्व पर आरोप लग रहे है तो सामान्यतः वो स्वयं इसका खण्डन करता है अन्यथा लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रेस द्वारा सभी तथ्यों को उजागर किया जाता है इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बोफोर्स घूस कांड में द हिन्दु की भूमिका हमारे सामने है, तो सुदर्शन- सोनिया प्रकरण में सभी मापदण्ड क्यों ताक पर रख दिए गए। सुदर्शनजी जिन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन वीरव्रती के समान भारत और समाज की संवा में लगा दिया उनके लिए प्रयुक्त शब्दों की बानगी इस प्रकार की थी मानों कि वे कोई समाज से बहिष्कृत अपराधी हो।
8- दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी द्वारा प्रेेस वार्ता में पत्रकारों से मारपीट करने का समाचार कितने समाचार पत्रों ने प्रकाशित किया।
9- एटीएस द्वारा अजमेर दरगाह ब्लास्ट केस में कोर्ट में पेश चार्जशीट में संघ के इन्देश कुमार का नाम ना होने के बावजूद मीडिया द्वारा बिना तथ्यों के शोर मचाया गया तो उसी दिन शाम को एटीएस द्वारा ऐसा वक्तव्य दिया गया कि इन्द्रेश कुमार से भी पूछताछ हो सकती है।
10- यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, उनके पुत्र राहुल गांधी, केन्द्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी, पी चिदम्बरम, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह आदि द्वारा एक नहीं अनेकों बार हिन्दु समाज के लिए हिन्दु आतंकवाद, भगवा आतंकवाद, संघ और सिमी एक समन है, संघ के लोग देशद्रोही है जैसे जुमलों का प्रयोग किया गया किंतु हमारे मीडिया द्वारा कभी भी उनकी सच्चाई सामने लाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया।
 वर्तमान में भारतीय मीडिया जिस दिशा में बढ़ रहा है वो अप्रत्यक्ष रूप से अधिनायकवाद की गूंज का आभास देता है यानि समाचार पत्रों में वही प्रकाशित होगा, वही पढ़ाया जायेगा, उसी तरीके से छापा जायेगा जैसा हमारे सत्ता के ठेकेदार कहेगे, सत्ता के विरोध में या देशद्रोहियों के विपक्ष में उठने वाले स्वरों को मीडिया में कोई स्थान नहीं मिलेगा। ऐसे में भारतीय मीडिया की दशा और दिशा, जो हमारे सामने है ,को सही करने की आवश्यकता है अन्यथा सरकार का पिछलग्गु बनता हुआ मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो देगा इसमें कोई संदेह नहीं है।

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