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नया धमाका

1/07/2011

न्यायपालिका के विरुद्ध जिहाद?

इस 24 दिसंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बी.पी.शर्मा ने खचाखच भरी अदालत में डा.बिनायक सेन, नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के एक तेंदुपत्ता व्यापारी पीयूष गुहा को भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) एवं 120 (बी) के तहत देशद्रोह के आरोप में आजन्म कारावास की सजा सुना दी। सजा सुनाए जाने के साथ ही देश और विदेश में डा.बिनायक सेन के पक्ष में चीख-पुकार मचना शुरू हो गयी।
बिनायक सेन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पी.यू.सी.एल.) के अखिल भारतीय उपाध्यक्ष हैं, इसलिए सब मानवाधिकारवादी संगठन और बुद्धिजीवी मैदान में उतर आए। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एवं पी.यू.सी.एल. के पूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र सच्चर ने तो इस निर्णय को बेहूदा तक कह डाला। तीस्ता जावेद सीतलवाड़, जिसका एकसूत्री एजेंडा हिन्दू और भाजपा विरोध बन गया है और जो गुजरात में झूठे शपथ पत्र व गवाहियां तैयार करने के आरोपों से घिरी हुई है, ने इस निर्णय को भाजपा पर प्रहार करने का नया हथियार बना लिया, क्योंकि यह निर्णय भाजपा शासित राज्य में लिया गया था। माकपा, भाकपा और अन्य कम्युनिस्ट धड़े व उनके बुद्धिजीवियों ने निर्णय के विरोध में वक्तव्य जारी कर दिये, क्योंकि वे माओवादी हिंसा को हिंसा नहीं मानते अपितु राज्य की हिंसा के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के रूप में देखते हैं। भारत के अनेक शहरों में वामपंथी और मानवाधिकारवादी प्रदर्शनकारी हाथों में फलक लेकर फोटो खिंचाने के लिए खड़े हो गये। विभिन्न दैनिक पत्रों में प्रकाशित चित्रों को आप देखें तो कहीं भी उनकी संख्या तीन या चार से अधिक नहीं है। किंतु मीडिया पर प्रभाव के कारण वे छपते हैं। इस निर्णय के विरोधियों में एक मुस्लिम संगठन मिल्ली काउंसिल का नाम पढ़कर शायद आपको आश्चर्य हुआ होगा कि उनकी हिंसक माओवादियों से सहानुभूति का क्या कारण हो सकता है। इसके निहितार्थ को खोजना आवश्यक है।
अन्तरराष्ट्रीय दबाव
देशी वामपंथियों,मानवाधिकारवादियों तथा भाजपा-विरोधियों की प्रतिक्रिया से अधिक महत्वपूर्ण है अन्तरराष्र्टीय प्रतिक्रिया। यह निर्णय सुनते ही एमनेस्टी इंटरनेशनल की प्रतिक्रिया तुरंत आ गयी। उसने इस निर्णय को मानवता-विरोधी घोषित करते हुए विरोध करने का निर्णय ले लिया। सन् 2007 में भी बिनायक सेन की गिरफ्तारी 14 मई को हुई और 16 मई को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने छत्तीसगढ़ सरकार के नाम हुक्म जारी कर दिया कि बिनायक सेन को तुरंत रिहा कर दिया जाए। एमनेस्टी 2008 में उड़ीसा के कंधमाल जिले में स्व.लक्ष्मणानंद की हत्या से भड़के चर्च-विरोधी दंगों के समय भी तुरंत सक्रिय हो गयी थी और अपना जांच दल उड़ीसा भेजने पर उतारू थी। 2007 में बिनायक सेन की गिरफ्तारी के विरुद्ध लंदन, बोस्टन और न्यूयार्क में भी प्रदर्शन आयोजित किए गए थे। यूरोप के 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने डा. बिनायक सेन के समर्थन में एक संयुक्त वक्तव्य जारी करने की आवश्यकता समझी थी।
सोनिया के प्रवक्ता
डा. बिनायक सेन का समर्थन करते हुए सोनिया गांधी की राष्ट्रीय परामर्शदाता समिति (एन.ए.सी.) के हर्ष मंदर, जीन डेज, रामप्रसाद मुंडा आदि कई महत्वपूर्ण सदस्यों ने न्यायालय के इस निर्णय का विरोध किया है। हम बहुत पहले से कहते और लिखते आ रहे हैं कि मैडम सोनिया के द्वारा निर्मित इस समानांतर तंत्र के लगभग सभी सदस्य चर्च द्वारा प्रेरित एवं पोषित एन.जी.ओ.ताने-बाने के अंग हैं और उनके माध्यम से सोनिया केन्द्र सरकार पर नियंत्रण की एक समानांतर प्रक्रिया चला रही हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि सोनिया पार्टी के अधिकृत प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और शकील अहमद की इस निर्णय पर संतुलित प्रतिक्रिया आने के बाद उनसे अलग जाकर दिग्विजय सिंह ने बिनायक सेन के समर्थन में वक्तव्य जारी करना आवश्यक समझा। डा.सिंघवी ने ठीक ही कहा कि अभी एक निचली अदालत का निर्णय आया है, अत: न्यायिक प्रक्रिया के पूरा होने के पूर्व किसी निर्णय पर टीका-टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी। लगभग यही बात दूसरे प्रवक्ता शकील अहमद ने भी कही। किंतु दिग्विजय सिंह को सोनिया के 10 जनपथ ने जिस मिशन पर लगाया हुआ है, वह ऐसे वक्तव्यों से पूरा नहीं होता। दिग्विजय का एकमात्र मिशन है भाजपा और हिन्दुत्व-विरोध का राग अलापकर मुस्लिम और ईसाई वोट बैंकों को सोनिया पार्टी के पीछे खड़ा करना। प्रत्येक कदम और कथन को इस दृष्टि से देखने पर कभी कोई मतिभ्रम पैदा नहीं होगा।
आपको स्मरण होगा कि जब छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा क्षेत्र में माओवादियों ने सी.आर.पी.एफ. के 36 जवानों की निर्मम हत्या कर दी थी, जिससे उद्वेलित होकर गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् ने नक्सलविरोधी अभियान घोषित किया था। तब दिग्विजय ने गृहमंत्री की खुली आलोचना करते हुए छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की मांग उठायी थी और पी.चिदम्बरम् को सलाह दी थी कि वे नक्सलवाद की बजाय हिन्दू आतंकवाद को बड़ा खतरा घोषित करें। यहां सवाल खड़ा होता है कि भारत सरकार के नक्सलवाद विरोधी अभियान को रोकना दिग्विजय सिंह को जरूरी क्यों लगा? क्या वे जानते हैं कि माओवाद का मुखौटा लगाकर चर्च अपना प्रभाव क्षेत्र तैयार कर रहा है? सुख सुविधाओं से लैस, कलमघिस्सू किताबी क्रांतिकारियों की बड़ी फौज मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर चर्च के इसी जाल में फंस जाती है। चर्च ने विदेशी आर्थिक सहायता के माध्यम से गैरसरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) का एक विशाल ताना-बाना देश में बिछा लिया है। उसके जाल में कागजी क्रांतिकारियों की इस विशाल फौज को सपेट लिया है। सोनिया की एन.ए.सी. इस फौज के साथ सम्पर्क पुल का काम करती है तो दिग्विजय सिंह सोनिया पार्टी के महासचिव पद का उपयोग उसे मान्यता देने के लिए करते हैं। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या करवाकर अब गुजरात व मध्य प्रदेश में चर्च की आंखों की किरकिरी बने स्वामी असीमानंद को आतंकवाद की गतिविधियों में लपेट कर चर्च बड़ी योजना व कुशलता से अपने मार्ग की रुकावटों को हटाने में सफल हो रहा है।
कानूनी प्रक्रिया में हस्तक्षेप
बिनायक सेन और उनके दो साथियों के विरुद्ध न्याय प्रक्रिया पूरे दो साल चली। अभियोजन पक्ष ने 95 गवाह प्रस्तुत किये और बिनायक सेन के पक्ष ने 11। इस बीच न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए अनेक देशी-विदेशी प्रयास हुए। कुछ प्रयासों का उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। निर्णय के लिए निर्धारित तिथि 24 दिसंबर के एक सप्ताह पहले टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दू जैसे प्रभावशाली दैनिकों ने उनकी रिहाई का अभियान शुरू कर दिया। टाइम्स आफ इंडिया ने 19 दिसंबर को तीन चौथाई पृष्ठ बिनायक सेन के मुकदमे को समर्पित किया। जिसमें सबसे ऊपर "बिनायक सेन को रिहा करो" शीर्षक के साथ एक चित्र को सजा दिया। हिन्दू ने 16 दिसंबर को बिनायक सेन के समर्थन में एक समाचार के अतिरिक्त मुख्य सम्पादकीय भी लिख मारा। किंतु न्यायमूर्ति वर्मा ने अपने निर्णय में यह सिद्ध किया है कि बिनायक सेन और उनकी पत्नी इलिना सेन अपनी स्वयंसेवी संस्था "रूपांतर" के माध्यम से छत्तीसगढ़ के जनजाति समाज को सलवा जुड़ूम के विरुद्ध खड़ा कर रहे थे। वे नक्सली नेताओं के बीच सम्पर्क पुल की भूमिका निभा रहे थे। निर्णय के अनुसार बिनायक सेन ने 35 दिन में 33 बार जेल में बंद नारायण सान्याल से भेंट की। सान्याल के पत्रों को अन्य नक्सली नेताओं तक पहुंचाने का काम किया। ये आरोप सही हैं या गलत इसके निर्णय का दायित्व उच्च अदालतों पर छोड़ देना चाहिए।
मीडिया का दबाव
न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने का यह अभियान एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय हो गया है। मीडिया का तो पूरा इस्तेमाल किया ही जा रहा है। अंग्रेजी दैनिक इसमें मुख्य योगदान कर रहे हैं।  टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, हिन्दू .......
पुलिस सूत्रों के अनुसार बस्तर क्षेत्र के नक्सली हिंसा से आक्रांत पांच जिलों में माओवादी हिंसा बढ़ गयी है। माओवादियों ने दो मालगाड़ियों को पटरी से उतार दिया। माल लदे कई ट्रकों को फूंक दिया, सड़कों को खोद डाला, पेड़ों को काटकर गिरा दिया और पुलिस चौकियों पर गोलीबारी की। यह है माओवादी जनकांति का असली चेहरा। देश के गृहमंत्री चिदम्बरम् और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी माओवादी हिंसा को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं तो सोनिया की एन.ए.सी.व दिग्विजय सिंह नामक भोंपू उनकी वकालत कर रहे हैं। भारतीय राजनीति की इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है?
दोहरे मापदण्ड की इस राजनीति पर वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक की यह टिप्पणी (भास्कर, 29 दिसम्बर) बहुत सार्थक है कि "बिनायक का झंडा उठाने वाले एक भी संगठन या व्यक्ति ने अभी तक माओवादी हिंसा के खिलाफ अपना मुंह तक नहीं खोला। क्या यह माना जाए कि माओवादियों द्वारा मारे जा रहे सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर लोगों से उनका कोई लेना-देना नहीं है? क्या वे भोले-भाले वनवासी भारत के नागरिक नहीं हैं? उनकी हत्या क्या इसलिए उचित है कि वह माओवादी कर रहे हैं? माओवादियों द्वारा की जा रही लूटपाट क्या इसलिए उचित है कि आपकी नजर में वे किसी विचारधारा से प्रेरित होकर लड़ रहे हैं?"

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