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नया धमाका

1/30/2011

एक 'हिन्दू आतंकवादी' का इकरारनामा!!!

स्वामी असीमानंद अब कोई अपरिचित नाम नहीं है. देश की सेकुलर जमात ने यह साबित करने में आंशिक रूप से कामयाबी पा ली है कि असीमानंद 'खतरनाक हिन्दू आतंकवादी' है. एक असीमानंद इतना 'खतरनाक हिन्दू आतंकवादी' है कि इस्लामिक जेहाद के सारे गुनाह एक तरफ, हजारों जानों की कीमत और सैकड़ों करोड़ की क्षति को असीमानंद के एक ऐसे बयान के तराजू में तौल दिया गया जिसे एक मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया जाता है और इतने गोपनीय तरीके से कि बयान दर्ज करते समय वहां मौजूद माननीय जज के स्टेनो को भी बाहर भेज दिया जाता है. असीमानंद के इसी एक इकरारनामें को देशभर में समस्त इस्लामिक आतंकवाद के बराबर तौल दिया जाता है. कांग्रेस की आत्मघाती राजनीति से पैदा हुए हिन्दू आतंकवाद और असीमानंद के उभारे गये बयान की सच्चाई आखिर क्या है?

बीते वर्ष 18 दिसंबर 2010 को दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट दीपक डबास के सामने सीबीआई के सहायक पुलिस अधीक्षक टी. राजा बालाजी ने एक अभियुक्त को पेश किया, वह अभियुक्त था नब कुमार सरकार। जिसे दुनिया स्वामी असीमानंद के नाम से जानती है। स्वामी असीमानंद ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 164 के तहत एक इकबालिया बयान दर्ज कराया, जिसमें दावा किया गया कि मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस, अजमेर शरीफ और हैदराबाद की मक्का मस्जिद में कराए गए बम-विस्फोटों में उनकी सक्रिय भूमिका थी। स्वामी असीमानंद गुजरात के डांग स्थित वनवासी कल्याण आश्रम के प्रमुख रहे हैं।
संदिग्ध इकबालिया बयान
इन आतंकी घटनाओं की जांच की दिशा में स्वामी असीमानंद का मजिस्ट्रेट के समक्ष इकबालिया बयान दर्ज कराना निश्चित तौर पर विस्फोओं की जांच का महत्वपूर्ण चरण है। लेकिन जब तक जांच अधिकारियों को असीमानंद के बयान को साबित करने वाले प्रमाण नहीं मिलते तब तक जांच का अंतिम निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए। किसी भी अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष सिर्फ इकबालिया बयान देनेभर से अपराधी नहीं सिद्ध किया जा सकता। वैसे भी मजिस्ट्रेट, सीबीआई और मीडिया ने असीमानंद के ‘अपराध’ कबूल करने के लिए जो कारण सार्वजनिक किया है वह अविश्वनीय न सही, संदिग्ध तो निश्चित तौर पर है। प्राप्त जानकारी के अनुसार असीमानंद ने मजिस्ट्रेट दीपक डबास से कहा- ‘सर, जब मैं हैदराबाद की चंचलगुड़ा जिला जेल में था तो मेरे साथ कलीम नाम का एक नौजवान भी वहां था। कलीम के साथ बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि उसे पहले मक्का मस्जिद धमाके के मामले में गिरफ्तार किया गया था और इसलिए उसे डेढ़ साल जेल में रहना पड़ा। जेल में रहने के दौरान कलीम मेरी बहुत मदद करता था। वह पानी, खाना आदि लाकर मेरी सेवा किया करता था। कलीम के अच्छे व्यवहार ने मुझे द्रवित कर दिया। मेरी अंतरात्मा ने मुझसे कहा कि मैं इकबालिया बयान दूं ताकि वास्तविक दोषियों को सजा हो सके और किसी निर्दोष को दंड न भुगतना पड़े।’ सवाल पैदा होता है कि जिस असीमानंद ने दशकों तक ईसाई मिशनरियों के खिलाफ धर्म का प्रचार किया हो। उच्च शिक्षित होने के बावजूद वनवासी कल्याण के लिए दुरूह इलाकों में अपना जीवन निर्वाह किया हो। अक्षरधाम और संकटमोचन मंदिर पर आतंकी वारदात होने पर जिसका खून इतना गर्म हो जाता हो कि वह सैंकड़ों निर्दोष मुस्लिमों की जान लेने का षडयंत्र रचता हो और उसे अंजाम देता हो, वह खतरनाक आदमी जिस कौम से नफरत करता हो उसके एक संदिग्ध कलीम के सिर्फ रोटी और पानी देने पर क्या अपने अपराध कबूल लेगा?
मजिस्ट्रेट महोदय से विनम्र प्रश्न
मजिस्ट्रेट दीपक डबास का दावा है कि जब असीमानंद ने अपना ‘अपराध’ कबूलना शुरू किया तो उन्होंने स्टेनोग्राफर को भी अपने कमरे से बाहर कर दिया ताकि इकबालिया बयान बिना किसी दिक्कत के जारी रह सके। मजिस्ट्रेट महोदय की न्यायायिक शक्ति का समग्र आदर करते हुए उनसे एक विनम्र प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि यदि वे असीमानंद से तनावमुक्त बयान ही चाहते थे तो उन्हें अपने कमरे से अपने स्टेनोग्राफर की बजाय सीबीआई के सहायक अधीक्षक टी. राजा बालाजी को बाहर भेजना चाहिए था। किसी अभियुक्त पर मजिस्ट्रेट के स्टेनोग्राफर का दबाव पड़ेगा या जांच एजेंसी के सहायक अधीक्षक का? इस सवाल का जवाब आपराधिक प्रक्रिया की साधारण जानकारी रखनेवाला कोई साधारण व्यक्ति भी आसानी से दे सकता है।
असीमानंद मालेगांव विस्फोटों के लिए सुनील जोशी को मास्टरमांइड मानते हैं। अपनी इस मान्यता के पीछे उनकी जानकारी सिर्फ इतनी है कि ‘दीवाली पर उसी साल सुनील मुझसे मिलने शबरीधाम आया, तब तक मालेगांव का बम ब्लास्ट हो चुका था। सुनील ने मुझे बताया कि मालेगांव में जो बम ब्लास्ट हुआ है वो हमारे आदमियों ने किया है। मैंने सुनील को कहा कि अखबार में तो खबर आई है कि कुछ मुस्लिम लोगों ने यह किया है और कुछ मुस्लिम पकड़े भी गए हैं। मैंने सुनील से पूछा कि हमारे किन लोगों ने यह ब्लास्ट किया है तो सुनील ने बताने से मना कर दिया।’ जांच एजेंसी सुनील जोशी को मास्टरमाइंड और असीमानंद को फाइनेंसर मान रही है। क्या किसी मास्टरमाइंड और फाइनेंसर के बीच इस तरह की वार्ता संभव है? सुनील जोशी की हत्या हो चुकी है। असीमानंद कभी किसी भी बम बनाने वाले, बम रखने वाले को न जानते हैं और न ही मिले हैं। फिर उनके इस इकबालिया बयान का मालेगांव कांड में षड्यंत्र की पुष्टि में क्या कानूनी मूल्य हैं?
18 फरवरी 2007 को हरियाणा के पानीपत के निकट दिवाना नामक स्थान पर दिल्ली से लाहौर जा रही समझौता एक्सप्रेस में धमाका हुआ था। इस मामले की जांच शुरू में हरियाणा पुलिस कर रही थी। नवंबर 2008 में महाराष्ट्र पुलिस के एंटी टेररिस्ट स्क्वॉयड (एटीएस) ने नासिक की एक अदालत को बताया कि मालेगांव बमकांड के मामले में गिरफ्तार लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित ने 2006 में जम्मू एवं कश्मीर से 60 किलो आरडीएक्स खरीदा था।
एटीएस की पोल खुली
उस समय एटीएस के दावे के बाद हरियाणा पुलिस ने कर्नल पुरोहित से पूछताछ भी की थी। बाद में फॉरेंसिक प्रयोगशाला ने जब बताया कि उक्त विस्फोटों में आरडीएक्स का उपयोग हुआ ही नहीं तो एटीएस की पोल खुल गई थी। समझौता एक्सप्रेस बम कांड की जांच करने वाले अंधेरे में लाठियां भांज रहे थे। तभी 1 जुलाई 2009 को अमेरिका की ट्रेजरी डिपार्टमेंट ने एक्जिक्यूटिव ऑर्डर 13224 के तहत लश्कर-ए-तोइबा और अल-काइदा से जुड़े चार आतंकियों का ब्यौरा जारी किया। इसमें एक आतंकी अफगानिस्तान में जन्मा पश्तून, दो पंजाबी और चौथा कराची में जन्मा अज्ञात मूल का आतंकी बताया गया था। यूएस ट्रेजरी डिपार्टमेंट के अनुसार कराची का आरिफ कस्मानी 11 जुलाई 2006 के मुंबई ट्रेनों के श्रंखलाबद्ध विस्फोटों और 18 फरवरी 2007 के समझौता एक्सप्रेस विस्फोटों का मुख्य संयोजक है। इस नोट के अनुसार कस्मानी ने 2005 में इन विस्फोटों के लिए लश्कर-ए-तोइबा के नाम पर माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम समेत तमाम लोगों से चंदा जमा किया था। अमेरिकी एजेंसी के अनुसार ‘कस्मानी अल-काइदा और तालिबान के लड़ाकों को सुरक्षित ठिकाने और हथियारों की आपूर्ति करता रहा है।’ वर्ष 2010 में समझौता एक्सप्रेस की जांच का जिम्मा 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमलों के बाद गठित नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) को सौंप दिया गया।
एनआईए का दोहरा मापदंड
लश्कर-ए-तोइबा के डबल एजेंट डेविड कोलमैन हेडली से पूछताछ के लिए एनआईए के अुसर ही अमेरिका दौरे पर गए थे। उन्होंने उस दौरे में समझौता एक्सप्रेस बम कांड पर अमेरिकी सूचना को विश्लेषित करने का क्या कोई प्रयास किया? यदि नहीं तो क्यों? अब असीमानंद समझौता एक्सप्रेस पर अपनी स्वीकारोक्ति में कह रहे हैं- फरवरी 2007 में सुनील जोशी और भरत भाई (भरत रितेश्वर), भरत भाई के घर से मोटर साइकिल से बलपुर नामक स्थान पर एक शिव मंदिर में आए। मैं पहले से ही वहां मौजूद था। हमने यह पहले ही तय कर रखा था कि शिवरात्रि के दिन वहां मिलना है। वहां सुनील ने मुझे बताया कि एक-दो दिन में ही कुछ अच्छी खबर मिलेगी। फिर वो अपने घर चले गए और मैं शबरीधाम आ गया। उसके दो-तीन दिन बाद मैं फिर भरतभाई के घर गया। जहां पर सुनील और प्रज्ञा पहले से ही मौजूद थे। तब तक समझौता बम ब्लास्ट की खबर पेपर में आ चुकी थी। मैंने सुनील को बताया कि समझौता एक्सप्रेस की घटना तो हो चुकी है और तुम तो यहीं बैठे हो। जवाब में उसने बताया कि ये हमारे ही लोगों ने किया। दुनिया की कौन सी समझदार अदालत इस कांड में असीमानंद या सुनील की भूमिका सूत्रबद्ध प्रमाणों के अभाव में स्वीकारेगी? असीमानंद को खुद सुनील जोशी की समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट की भूमिका पर विश्वास नहीं हो रहा था, यह उनका इकबालिया बयान ही साबित कर रहा है। बताया जा रहा है कि जांच की शुरूआत में धमाके में इस्तेमाल हुआ कुछ सामान इंदौर से खरीदा गया था। सुनील जोशी इंदौर के निकट देवास का निवासी था। क्या बस इतना तथ्य समझौता एक्सप्रेस बम कांड में अदालत में किसी का दोष सिद्ध करने के लिए काफी होगा? असीमानंद का बयान जांच के लिए और कोई लीड नहीं देता।
हैदराबाद की मक्का मस्जिद बम कांड के बारे में भी असीमानंद का बयान समझ लें। असीमानंद कहते हैं- ‘सुनील जोशी ने हमसे भरतभाई के घर हैदराबाद में बम ब्लास्ट करने के लिए 40 हजार रूपए लिए। इसके एक-दो महीने बाद सुनील जोशी ने मुझे फोन किया और बताया कि पेपर देखते रहना, एक-दो दिन में कुछ अच्छी खबर मिलेगी। तीन-चार दिन बाद हैदराबाद की मक्का मस्जिद में बम ब्लास्ट की खबर अखबार में आई। उसके सात-आठ दिन बाद सुनील जोशी एक तेलुगु न्यूजपेपर लेकर शबरीधाम में आ गया। उसमें मक्का मस्जिद में हुई घटना का चित्र भी था। मैंने सुनील को बताया कि पेपर में आया है कि कुछ मुस्लिम लोग पकड़े गए हैं। सुनील ने फिर कहा कि यह हमारे लोगों ने ही किया है। कुछ दिन बाद अबर असीमानंद से किसी मजिस्ट्रेट के सामने खड़ा कर यह बयान दर्ज करा लिया जाए कि एक दिन सुनील जोशी उनके पास एक मराठी अखबार लेकर आया जिसमें शहीद हेमंत करकरे की तस्वीर छपी थी, उनकी ओर दिखाकर उसने कहा यह हमारे लोगों ने किया है। तो दिग्विजय सिंह का बयान भी सच साबित हो जाएगा। दिग्विजय सिंह के पास तो करकरे से बातचीत के तथाकथित प्रमाण के तौर पर मोबाइल फोन का प्रिंट आउट भी है। संभवतः मोहम्मद अजमल कसाब के दावे पर ीाी इस देश की मीडिया विश्वास कर ले। हैदराबाद की मक्का मस्जिद विस्फोट के बारे में अमेरिकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट की रिपोर्ट के आधार पर प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार पीटर फाउलर ने लिखा ‘हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी (हुजी) ने तमाम आतंकी गतिविधियों में हिस्सेदारी की। मार्च 2006 में कराची स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमला हुआ जिसमें 4 लोग मारे गए और 48 घायल हुए। यह वारदात हुजी ने की थी। हुजी ने भारत में भी तमाम आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिया जिसमें मार्च 2007 का वाराणसी का हमला जिसमें 25 लोग मारे गए और 100 घायल हो गए तथा हैदराबाद मस्जिद हमला जिसमें 16 लोग मारे गए और 40 से ज्यादा घायल हो गए, प्रमुख थे।
अदालत को चाहिए पुख्ता सबूत
स्वामी असीमानंद का बयान सिर्फ सुनील जोशी के कथित दावे पर आधारित है। सुनील जोशी वर्षो पहले मर चुके हैं, सो उनके दावे की पुष्टि नहीं की जा सकती। साध्वी प्रज्ञा का एटीएस नार्को टेस्ट कर चुकी है। नार्को टेस्ट से जब उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ तब एटीएस ने कहा था कि साध्वी प्रज्ञात के योग बल के चलते वे उससे कुछ उगलवा नहीं पाए। अमेरिकी ट्रेजरी विभाग आतंकवाद, वह भी अमेरिकी दूतावास पर हमले के मामले में असीमानंद के खोखले बयान की तुलना में पुख्ता प्रमाण रखकर दावा करता है। यूएस ट्रेजरी डिपार्टमेंट के दोनों दावे इंटेलिजेंस रिपोर्ट के वर्ग में आते है। डेविड कोलमैन हेडली पर अमेरिकी इंटेलीजेंस ने सूचना देने में देरी की थी तो भारत के गृहसचिव ने आपत्ति दर्ज कराई थी। मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस कांड के बारे में वे असीमानंद के दबाव में दिए गए बयान को अमेरिकी इनपुट से ज्यादा महत्व दे रहे हैं। हम यह नहीं कह रहे कि आप असीमानंद के बयान के साथ-साथ जब तक अदालत के समक्ष स्वतंत्र एवं पुख्ता सबूत नहीं होंगे तब तक खुद असीमानंद को भी अदालत मुजरिम नहीं ठहरा सकती।
42 पन्नों का बयान
भले ही एनआईए और सीबीआई ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत बयान दर्ज करते समय असीमानंद को सीबीआई की हिरासत से मजिस्ट्रेट हिरासत में देने जैसी प्रक्रियाओं का पालन किया हो फिर भी असीमानंद के पास अपना इकबालिया बयान दबाव में देने का आरोप लगाने का विकल्प मौजूद है। एनआईए को मामला सिद्ध करने के लिए सिर्फ बयान की बजाय कांड में शामिल अन्य लोगों की भूमिका की विस्तृत जांच, बम बनाने और रखने के प्रशिक्षण का ब्यौरा और प्रमाण, विस्फोटक सामग्री इकट्ठा करने के सबूत, आईईडी बनाने और रखने के सबूतों पर काम करना होगा। अब तक इस मामले में कोई विशेष प्रगति दिखाई नहीं देती। असीमानंद अपने 42 पन्नों के बयान में केवल दो बार क्रमशः 25 हजार और 40 हजार रूपयों की राशि बम कांड के षड्यंत्र के लिए स्वयं उपलब्ध कराने का दावा करते हैं। 4 कांडों को केवल 65000 रूपयों में अंजाम नहीं दिया जा सकता। असीमानंद के इकबालिया बयान की प्रति बेहद नाटकीय कहानी नजर आती है। तहलका पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब असीमानंद से मजिस्ट्रेट ने पूछा कि कहीं आप दबाव में तो नहीं तो असीमानंद का जवाब था कि- ‘जब मैं अटल और आडवाणी का दबाव नहीं मानता तो इन सबका क्या मानूंगा।’ असीमानंद से पूछा जाना चाहिए कि उन पर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने क्या दबाव बनाया? यदि मजिस्ट्रेट इस सवाल को अनावश्यक मानते हैं तो फिर असीमानंद के इस जबाव को सार्वजनिक करने का क्या औचित्य? बीसवीं सदी में जब केंद्र में राष्ट्रीय जनतात्रिक गठबंधन की सरकार सत्तारूढ़ थी तब डांग में ईसाई मिशनरियों पर हमला हुआ था।
सोनिया का बदला तो नहीं?
ये हमले शबरीधाम की प्रेरणा से हुए थे। तब विपक्ष की नेता सोनिया गांधी डांग में ईसाई मिशनरियों के पिटने पर बेहद आहत हुई थीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि असीमानंद को डांग की मिशनरी विरोधी गतिविधियों का दंड अब दिया जा रहा हो। सोहराबुद्दीन मामले में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मशहूर वकील राम जेठमलानी सीबीआई द्वारा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश तरूण चटर्जी पर सीबीआई द्वारा दबाव बनाकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ जांच का आदेश लिखाने के पराक्रम की पोलखोल कर चुके हैं। सोनिया के इशारे पर यदि सीबीआई सुप्रीम कोर्ट के जज से मनचाहा आदेश प्राप्त कर सकती है तो क्या तीस हजारी कोर्ट के एक मजिस्ट्रेट को दबा कर किसी अभियुक्त से धारा 164 के तहत मनचाहा बयान नहीं लिखा सकती? यदि ऐसा नहीं था तो मजिस्ट्रेट डबास को बयान लिखते समय, वह भी 42 पृष्ठों का लंबा-चौड़ा बयान दर्ज करते समय स्टेनोग्राफर को कमरे में रखना चाहिए था। जब तक असीमानंद जेल में है तब तक उन पर सरकार भांति-भांति के दबाव बना सकती है। जब खुद भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी अमेरिकी राजदूत के सामने इस्लामी आतंकवाद की तुलना में हिंदू आतंकवाद को ज्यादा खतरनाक बता रहे हों तब उनकी मम्मी की सरकार बेटे को सही साबित करने के लिए असीमानंद का शिकार क्यों नहीं कर सकती? एक तरफ मानवाधिकारवादी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद भी अफजल गुरू को निर्दोष करार देते हैं तो दूसरी तरफ सिर्फ मजिस्ट्रेट के सामने दबाववश एक स्वामी के बयान को वही मानवाधिकारवादी सर्वश्रेष्ठ सबूत मानते हैं। क्या इस सेकुलर देश में हिंदू साधु बनना पाप और मुस्लिम मौलवी बनना पुण्य नहीं मान लिया गया है?

1 टिप्पणी:

  1. दो-मुहे सेक्यूलर नहीं जानते वे हिन्दु-आतंकवाद का हौवा खडा कर, उन्हें आतंकवाद के लिये उकसा रहे है।
    भ्रष्ट और झूठे दावे आखिरकार इन्हे ही ले डूबे तो अचम्भा न होगा।

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