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नया धमाका

11/10/2010

गौ द्वारा समाज चेतना निर्माण

BY : सुबोध कुमार Email:subodh 1934@gmail.com


गौ पालन संस्था वेद के सदर्भ में

( मानव जीवन का प्रकृति के समीप सभी प्राणियों -पशु पक्षी जीव जन्तु के सहआस्तित्व में ही सन्तुलित रह पाता है। प्रगति के साथ नगरों का प्रादुर्भाव हुआ । गौऔं से गोचर छिन गए। गौ का स्वतन्त्र भ्रमण करते हुए स्वेच्छा से स्वपोषण ग्रहण करना सम्भव नहीं रहा। गौ के शारीरिक व्यायाम का साधन नहीं रहा। दुग्ध प्राप्त करने के लिए एक स्थान पर गौ को बांध कर दुग्ध प्रसाद ग्रहण करने की प्रथा चल पड़ी। स्थान स्थान पर ग्वालों ने गौ वंश पाल कर, समाज को दुग्ध उपलब्ध करा कर, समाज सेवा द्वारा गौ से अपना आजीवका साधन पाया।
परन्तु गौ के गुण ही उस के लिए अभिशाप बन गए। गौ मे विलक्षण चेतना व स्मरण क्षमता होती है। अपने गृह स्थान को याद रखती है।गौ में अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भ्रमण कर के व्यायाम करने की इच्छा स्वभााविक होती है। बांध कर रखने से गक्षै का शारीरिक ह्रास होता है। दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है। ग्वालों के लिए अपनी गौओं को सड़क पर छोड़ना एक मजबूरी सी होती है। अपनी स्मरण शक्ति के रहते गौ भ्रमण के व्यायाम के बाद निज गृह पर स्वयं आ जाती है। दिन भर बाहर घूमने पर कुछ इधर उधर अपना पेट भी भर लेती है। यह ग्वालों को बुरा भी नहीं लगता, गौ आहार का व्यय भी कम हो जाता है। परन्तु देखिए इधर उधर घूमने वाली गौ के बारे में वेद में क्या कहा है।

एषा पशून्त्सं क्षिणाति क्रव्याद्‌ भूत्वा व्यद्वरी!
उतैनां ब्रह्मणे दद्यात्‌ तथा स्योना शिवा स्यात !! अथर्व 3.28.2
असहाय गौ जो घूमती फिरती अभक्षणीय पदार्थों को खा कर अपनी भूख मिटाती हैं। संक्रामक संघातक गुप्त रोगों से ग्रसित हो जाक्ष्ती हैं। (ये रोग उपचार द्वारा भी असाध्य पाए जाते हैं, और ऐसी गौ के संपर्क और दुग्ध से यह रोग मनुष्यों में भी आने की संभावना रहती है)
ऐसी असहाय गौओं को अच्छी भावनाओं से प्रेरित, निस्वार्थ ब्राह्मण वृत्ती के जनों को उचित पालन, संरक्षण मे पहुंचाने की व्यवस्था करनी चाहिए, जिस से उन की ठीक से देख भाल हो सके ।
एकैकयैषा सृष्ट्या सं बभूव यत्र गा असृजन्त भूतकृतो विश्वरूपाः !
यत्र विजायते यमिन्यपर्तुः सा पशून्‌ क्षिणाति रिफति रुशती !! अथर्व 3.28.1

जिन गौओं की ठीक से देख भाल होती है वे एक के बाद एक नियम से संतान उत्पन्न कर के हमारा कल्याण करती हैं। जिन का ध्यान नहीं हो पाता वे बिखर जाती हैं, समाज को कलंक लगाती हैं और स्वयं नष्ट हो कर समाज को भी नष्ट कर देती हैं।

शिवा भव पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्यः शिवा !
शिवास्मै सर्वस्मै क्षेत्राय शिवा न इहैधि !! अथर्व 3.28.3

ऐसी संस्थाओं द्वारा समाज का अत्यन्त हित होता है। मनुष्यों, पशुधन, भूमि, पर्यावरण सब की उन्नति होती है।

इह पुष्टिरिह रस सहस्रसातमा भव !
पशून्‌ यमिनि पोषय !!अथर्व वेद 3.28.4
जब इन गक्षैओं के पोषण की सुव्यवस्था होती है। पुष्टिदयक दूध के साथ और सहस्रों पदार्थ प्राप्त होते हैं,
(यहां पंचगव्य का संकेत है।)

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यत्रा सुहार्दः सुकृतो मदंति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः !
तं लोकं यमिन्य भिसं बभूव सा नो मा हिंसीत्‌ पुरुषान्‌ पशूंश्च !!अथर्व वेद 3.28.5
जहां इस पुण्य कार्य में स्वप्रेरित सौहार्द्ग पूर्ण वातावरण मे निरोगी लोग आनन्द लेते हैं उस समाज मे यम नियम का पालन करने वाले लोग उत्तम मानसिकता से प्रेरित हिंसा रहित स्वस्थ सम्पन्न समाज और पषुधन का निर्माण करते हैं। .
यत्रा सुहार्दा सुकृतामग्निहोत्रहुतां यत्र लोकः।
तं लोकं यमिन्यभि संबभूव सा नो मा हिंसीत पुरुषान पशूंश्च॥अथर्ववेद 3.28.6
जहां इस पुण्य कार्य में स्वप्रेरित सौहार्द्ग पूर्ण वातावरण मे अग्निहोत्र करते है, वहां यम नियम का पालन करने वाले लोग उत्तम मानसिकता से प्रेरित हिंसा रहित स्वस्थ सम्पन्न समाज और पषुधन का निर्माण करते हैं।
सम्पन्न समाज -जहां कोई किसी का शोषण नहीं करता, किसान आत्महत्या को बाधित नही होते -स्वस्थ सौहार्द्ग पूर्ण सुखी समाज, गो कृपा से ही सम्भव होता है।

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