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नया धमाका

11/19/2010

रक्त मुद्रा की समानांतर अर्थ व्यवस्था

धन वैध हो या अवैध, मनुष्य के ईमान को हिलाकर रख देता है। अकूत धन कमाने की लालसा निंरतर बढ़ती जाती है, यह लालसा एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें आदमी प्रवेश तो कर जाता है लेकिन उसका बाहर आ पाना मुश्किल हो जाता है। आज भारत में काले धन की समानांतर व्यवस्था चल रही है। अगर काला धन देशवासियो का रक्त चुसकर कमाया गया है या देश की सम्पति की लूट-खसोट और रिश्वत से अर्जित किया गया है तो भी यह रक्त मुद्रा है और यदि इस धनराशि का उपयोग आतंकवादी और विद्रोही करते है तो भी यह रक्त मुद्रा ही है। इस बात की आशंकाए पूर्व में भी कई बार व्यक्त की जा चुकी है कि आतंकवादी संगठनों का धन भारत के शेयर बाजार में लगा हुआ है या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लगातार सफलता का रहस्य क्या है, उनके धन का स्त्रोत कहा है। पिछले वर्ष वित्तीय खुफिया एजेन्सियों ने रिपोर्ट दी थी कि अनेक वित्तीय सौदों के तार आतंकी पैसों से जुड़े हुए है। हवाला का धंधा भी बेरोक टोक जारी है। सारे सौदे सांकेतिक भाषा में इंटरनेट द्वारा हो रहे है जिन पर नजर रखना भी आसान नहीं है। गुजरात का हीरा उद्योग हो या खदाने इनमें आतंकवादी या माओवादी संगठनों का पैसा लगे होने की खबरे भी मिलती रहती है और वे कमाए गए धन का इस्तेमाल भारत के विरूद्ध षडयंत्रों को पूरा करने में करते है। नशीले पदार्थो के विश्व व्यापी धंधे में भी आतंक के सरगनाओं और माफिया का धन लगा हुआ है। आर्थिक उदारवाद की नीतियों के चलते करोड़ो डालर के लेनदेन पर निगरानी रखने या आकलन करने का ठोस तंत्र मौजूद नहीं है। स्थिति यह है कि आयात-निर्यात में घोाले हो रहे है। आयात की जाने वाली वस्तुओं की अधिक कीमत और निर्यात की जाने वाले माल की कम कीमत दिखाकर अरबों रूपये विदेशी बैंकों में जमा करवाए जा रहे है।

कालेधन के जखीरे विदेशी बैंकों में पड़े है। अब स्विस बैंक एसोसिएशन ने इस बात का खुलासा किया है कि उनके बैंकों में किस देश के लोगो का कितना धन जमा है, इसमें भारतीय नम्बर एक पर है। भारतीयों के कुल 65,223 अरब रूपये जमा है, दूसरे नम्बर पर रूस है जिसके लोगो के लगभग 21,235 अरब रूपये जमा है। स्विस बैंकों में भारतीयों का जितना धन जमा है अगर उसका आधा भी भारत को वापिस मिल जाये तो देश में गरीबी का नामो निशान नहीं रहेगा। स्विस बैंकों की बात ही नहीं, भारत का अवैध धन खाडत्री देशों के बैंकों में भी पड़ा हुआ है। कितना धन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में निवेश किया गया है, कितना रियल एस्टेट में, कोई आकलन नहीं।
भ्रष्ट राजनेता, नौकरशाह, व्यापारी, उद्योगपति और दलाल अपना काला धन विदेशी बैंकों में ही जमा करते है और फिर शुरू हो जाती है काले धन को सफेद धन में बदलने की प्रक्रिया।
काले धन का अध्ययन करने वाली वैश्विक एजेंसी ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी (जीएफआई) के प्रमुख रेमंड बेकर का मानना है कि 2002 से 2006 की कालावधि में भारत से प्रतिवर्ष औसतन 27.3 बिलियन डालर की राशि विदेशी बैंकों में पहुंची। इस आधार पर अर्थवेत्ता मानते थे कि पिछले 60 वर्षों की कालावधि में लगभग 70 लाख करोड़ रुपयों की राशि विदेशी बैंकों में जमा हुई जिसकी अब पुष्टि हो गई है। रेमंड बेकर का जीएफआई प्रतिवर्ष खरबों रुपए का काला धन विदेशी बैंकों में जमा होने की बात करता है। ये काला धन कहां से उपजता है? इसी देश के गरीबों का खून चूसकर। भारत के योजना आयोग ने वर्ष 2004-2005 में दावा किया था कि इस देश में 30.1 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। योजना आयोग के इस सरकारी आंकड़े का पोस्टमार्टम किया जाये तो इसके अनुसार यदि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी आहार का मापदंड माना जाए तो ग्रामीण भारत का लगभग 80 फीसदी निवासी गरीब है। यदि प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2200 कैलोरी आहार मापदंड भी माना जाए तब भी 70 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं।
दूसरी ओर इसी भारत का 70 लाख करोड़ रूपए काले धन के रूप में विदेशों में जमा होता है। देश में बसने वाले लगभग सवा लाख लोगों के पास 440 बिलियन डालर की जायदाद है। ये अकूत जायदाद और काला धन कहां से लाया गया? वर्ष 2003-04 में केंद्र सरकार ने सोलह राज्यों को 140 लाख टन खाद्यान्न गरीबों को राशन बांटने के लिए आवंटित किया था। इसमें गरीबों को मिला कितना? केवल 59 लाख टन अनाज दुकानों तक पहुंचा। गरीबों को इसमें से भी कुछ काट कर ही मिला होगा। 81 लाख टन खाद्यान्न बीच रास्ते से ही गायब हो गया। बिहार और पंजाब में तो यह स्थिति और खराब पाई गई। इन दोनों राज्यों में आवंटित खाद्य का तीन-चौथाई हिस्सा दुकानदारों, आपूर्ति अधिकारियों और दलालों ने खा-पी लिया। सीधी सी बात है कि सिर्फ खाद्य आपूर्ति मंत्रालय में अरबों रुपयों का काला धन पैदा हुआ।
अफसर-नेता-व्यापारी की यह तिकड़ी सिर्फ खाद्यान्न पचाकर नहीं अघाई। सरकारी हिसाब बताते हैं कि वर्ष 2002-04 में भारतीय खाद्य निगम को ढुलाई के दौरान 556 करोड़ रूपए का नुकसान हुआ। निगम ने अपना भंडारण नुकसान 842 करोड़ रुपयों का बताया। गरीबों का माल अमीरों और ठगों का नेटवर्क किस सफाई से पचाता है यह समझने के लिए सरकार द्वारा अप्रैल 2008 में लोकसभा में की गई एक स्वीकारोक्ति ही काफी है। सरकार ने स्वीकारा था कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के नाम पर फर्जी लाल राशन कार्ड पूरे देश में 3.7 करोड़ पाए गए। यानी कुल जारी राशन कार्डों में लगभग 35 फीसदी कार्ड फर्जी पाए गए। योजना आयोग जिस वर्ष 6.52 करोड़ परिवारों को गरीबी रेखा के नीचे मानता है, उसी वर्ष सरकार का खाद्य आपूर्ति मंत्रालय 10.28 करोड़ लाल राशन कार्ड बांटता है। सीधा मतलब है कि सरकार में बैठे लोग ऊपर से नीचे तक अवैध कमाई करने में जुटे होते हैं। इस सच्चाई को भी नहीं नकारा जा सकता कि इस देश में लाखों सचमुच के गरीबों को लाल राशन कार्ड नहीं मिलता।
इंदिरा गांधी सत्तर के दशक में गरीबी हटाओ का नारा दे रही थीं। 40 साल बाद गरीबी को हट जाना चाहिए था। कहां हटी गरीबी। अब दस में 8 लोग गरीब हों तो दमकते भारत की बात करना भी बेमानी है। बालीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन स्लमडाग करोड़पति को मिली प्रतिष्ठा पर नाराज हुए। उन्हें मुंबई की झुग्गी में जिंदगी बितानेवालों की दास्तां बयान करने वाली फिल्म शाइनिंग इंडिया की बदनामी करने वाली लगी। जिस देश की अधिकांश आबादी गरीबी रेखा के नीचे बसर कर रही हो तो दुनिया उसकी गरीबी को बगल कर अमीरी देख कैसे पाएगी?
हमारे अर्थवेत्ता पश्चिम की ओर मुंह बाए खड़े हैं कि उनकी कृपादृष्टि होगी तो हमारी गरीबी दूर होगी। वे सच्चाई को समझने के लिए तैयार नहीं कि उपभोक्तावाद की नाव पर सवार होकर अमेरिका जिस बाजारवाद की दरिया पार कर रहा था। आज वह खुद उस बाजार की मंदी के मगर का ग्रास बना पड़ा है। वर्षों तक अपने कोढ़ को छुपाते आए अमेरिका को आखिर स्वीकार करना पड़ा है कि वह खुद गहरे आर्थिक संकट में दबा पड़ा है। अमेरिका के फंसने से विश्व ग्राम बनने में सिकुड़ चुकी पृथ्वी भी सकते में आ चुकी है। अमेरिका दुनिया की आर्थिक भूख को ढेर सारा ईंधन देते आया है। अमेरिका के बैंकों और निवेशकों ने दुनिया भर में अपने निवेश फंसा रखे हैं। अमेरिकी बैंक और निवेशक जिस तरह से डूबे हैं, स्पष्ट है उसका विश्वव्यापी असर पड़ा है। अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। वह दुनिया से तमाम उत्पाद खरीदता रहा है। अमेरिका के बैठते ही दुनिया को झटका लगना स्वाभाविक है। इसलिए अमेरिका मंदी से बाहर आए यह चिंता पूरी दुनिया की है।
अखिल विश्व की संयुक्त अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने के लिए 12 बिलियन डालर का स्टिमूलस पैकेज दिया जा चुका है। फिर भी मंदी बरकरार है। अमेरिका के दर्जनों बैंक ढह चुके हैं। मार्च के पहले सप्ताह में चीनी प्रधानमंत्री ने एक सार्वजनिक वक्तव्य दिया कि उन्हें फिक्र है कि अमेरिकी सरकार की वित्तीय प्रतिभूतियों में फंसे 1 ट्रिलियन डालर की राशि कहीं डूब न जाए। अमेरिकी राष्ट्रपति को तत्काल बयान जारी करना पड़ता है कि उनकी प्रतिभूतियां अभी भी बेहद पुख्ता हैं। चीन के इस पैंतरे के बाद अमेरिका काले धन के खिलाफ अपनी मुहिम तेज कर देता है। जीएफआई का अधययन बताता है कि सन 2006 में विकासशील देशों से 858.6 बिलियन डालर से 1.06 ट्रिलियन डालर की राशि बाहर गई है। इस हिसाब से यदि काला धन बाहर आ जाए तभी मंदी से पार पाया जा सकता है। भारत सरकार को मंदी के साथ-साथ काला धन देश में लाकर गरीबी के स्थायी इलाज का भी प्रबंध सोचना चाहिए।
स्विस बैंकों में जाम काले धन को वापिस लाने का मुद्दा योग गुरू बाबा रामदेव, विधिवेत्ता राम जेठमलानी, भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और कई प्रबुद्ध नागरिको नंे उठाया था। राम जेठमलानी और कुछ नागरिकों  ने तो जनहित याचिका भी लगाई थी जिसमें कहा गया था कि न्यायालय सरकार को यह आदेश दे कि विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापिस लाया जाये। सरकार की ओर से शपथ पत्र देकर कहा गया था कि स्विस बैंक अब भारतीयोें के खातो के बारे में जानकारी देने को तैयार हो गया है, इसके लिए आवश्यक औपचारिकताएं पूर्ण की जानी है।
इस समानान्तर रक्त मुद्रा अर्थव्यवस्था के कुछ पिपासुओं से इस मुद्रा को वापिस ला पाना आसान नहीं होगा क्योंकि भ्रष्टाचार से कमाए गए इस धन को विदेशी बैंको में जमा करवाने के पीछे दोहरे कराधान से बचना है।
जर्मन बैंकों ने भी वहां जमा भारतीयों के धन के बारे में सशर्त सुचनाएं उपलब्ध करवाई है कि इन सूचनाओं को गोपनीय रखा जायेगा। जानकारी मिलना अलग बात है, उस धन को वापस भारत लाने की प्रक्रिया काफी जटिल है क्योंकि जिन शातिर लोगो ने उन विदेशी बैंकों में काला धन जाम करवाया है जो उन्हे दोहरे कराधान की मार से बचाते है ऐसे में भारत सरकार को इस बड़ी धनराशि को वापस पाने के लिए भागीरथ प्रयास करने की आवश्यकता है।

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