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नया धमाका

12/13/2010

चीन से ज्यादा जरूरी था लोकतंत्र का साथ देना

अतीत में अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर अलोकतांत्रिक फैसले कर चुका भारत इस बार सही कतार में खड़ा था- लोकतंत्र और मानवाधिकारों के समर्थकों की कतार में। अगर हम चीन के पक्ष में खड़े होते तो वह सिद्धांतों और भारतीय परंपरा के विपरीत तो होता ही, उस देश में लोकतंत्र लाने के लिए बलिदान देने वाले सैंकड़ों लोगों और जुल्म सहने वाले लाखों लोगों के प्रति अन्याय भी होता।
चीन के लोकतंत्र समर्थक नेता लियू शियाओबो को नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान करने के लिए आयोजित समारोह में हिस्सा लेकर भारत ने अरसे बाद चीन के संदर्भ में सही कदम उठाया है। भारत का फैसला इस वजह से और भी महत्वपूर्ण हो गया है कि यह चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की आसन्न भारत यात्रा से पहले किया गया। इस बारे में देश पर दोनों तरफ से दबाव था लेकिन यह देखकर सुकून होता है कि अतीत में अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर अलोकतांत्रिक फैसले कर चुका भारत इस बार सही कतार में खड़ा था- लोकतंत्र और मानवाधिकारों के समर्थकों की कतार में। अगर हम चीन के पक्ष में खड़े होते तो वह सिद्धांतों और भारतीय परंपरा के विपरीत तो होता ही, उस देश में लोकतंत्र लाने के लिए बलिदान देने वाले सैंकड़ों लोगों और जुल्म सहने वाले लाखों लोगों के प्रति अन्याय भी होता।
चीन ने नोबेल शांति पुरस्कार समारोह में जाने या न जाने को बड़ा अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था। उसने इसे अपने मित्रों और शत्रुओं को आंकने की कसौटी में बदल दिया। समारोह में निमंत्रित देशों को संदेश भेजकर आग्रह किया गया कि वे इसमें न जाएं क्योंकि शियाओबो एक ‘अपराधी‘ हैं और उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार सिर्फ चीन को परेशान करने के लिए दिया गया है। शियाओबो के नोबेल को मुद्दा बनाने का उसका दांव उल्टा पड़ा और इसे हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन की सबसे बड़ी ‘राजनैतिक, राजनयिक तथा पीआर पराजय‘ माना जाएगा। सिर्फ सोलह देश समारोह से दूर रहे और वे भी ऐसे जो चीन पर राजनैतिक या आर्थिक कारणों से बहुत ज्यादा निर्भर हैं। भारत के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी और शायद होती तब भी लोकतंत्र के विरुद्ध और चीन के साथ खड़े होना उसे रास नहीं आता।
अंततः नोबेल शांति पुरस्कार सम्पन्न हो गया और उसी भव्यता के साथ, जिसकी उससे अपेक्षा थी। चीन ने इसे मुद्दा बनाकर दुनिया भर के मीडिया को ओस्लो (नार्वे) पहुंचने पर मजबूर कर दिया था। उसने इसे अमेरिका और यूरोप के साथ टकराव का बिंदु बनाकर विश्व राजनय को दो भागों में बांटने की कोशिश की थी। लियू शियाओबो तो लंबे समय से जेल में हैं ही, उनके परिवार को भी नजरबंद कर दिया गया और नोबेल पुरस्कार प्रदान किए जाते समय चीन में टेलीविजन चैनलों का प्रसारण प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन इन सब घटनाओं ने समारोह को और भी ज्यादा महत्वपूर्ण और चर्चित बना दिया। शियाओबो भले ही समारोह में मौजूद नहीं थे लेकिन उनकी प्रतीकात्मक उपस्थिति उनकी वास्तविक उपस्थिति से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई थी। दुनिया भर से आए लोगों ने खड़े होकर उनके प्रति सम्मान का प्रदर्शन किया और मौन घोषणा की कि दुनिया चीनी दमन के खिलाफ तथा लोकतंत्र के निहत्थे सिपाहियों के साथ खड़ी है। चीनी नेतृत्व को इस बात का आकलन करने की जरूरत है कि अपनी आक्रामक मुहिम से उसे क्या हासिल हुआ।
जिन्होंने चीन का साथ दिया

दलाई लामा को नोबेल शांति पुरस्कार मिलते समय भी चीन कुछ इसी तरह का बर्ताव कर चुका है। नोबेल पुरस्कार समारोह को चुपचाप निकल जाने देना शायद एक बेहतर कूटनीति होती। कम से कम वह अंतरराष्ट्रीय राजनीति का प्रहसन बनने से तो बच जाता। ईरान को देखिए। उसने शीरीन इबादी को मिले नोबेल पुरस्कार पर खूब हायतौबा मचाई लेकिन पुरस्कार समारोह का बायकाट नहीं किया। चीन ने तो वह किया जो नाज़ी जर्मनी, अतीत के सोवियत संघ, मार्शल लॉ के अधीन पोलैंड और सैनिक शासकों के अधीन म्यांमार ने किया था। उसने दिखा दिया है कि वह अपने को किस श्रेणी में मानता है। समारोह का बायकॉट करने वाले देशों की सूची भी दिलचस्प है। कुछ तो ऐसे देश जो अपने आक्रामक पड़ोसी के साथ बिगाड़ मोल नहीं लेना चाहते, जैसे रूस, अफगानिस्तान, वियतनाम, कजाखिस्तान आदि, कुछ छोटे देश जो चीनी आर्थिक मदद को खोने का खतरा मोल नहीं ले सकते, जैसे श्रीलंका, अफगानिस्तान, ट्यूनीशिया, कुछ ऐसे देश जो धुर अमेरिका विरोधी हैं, जैसे वेनेजुएला और क्यूबा समारोह से दूर रहने वालों में शामिल थे। लेकिन जिन अन्य देशों ने चीन का साथ देना जरूरी समझा वे ऐसे हैं जो लोकतंत्र के दमन, मानवाधिकार हनन और गैर-जिम्मेदाराना आचरण के मामले में चीन से उन्नीस नहीं हैं। इनमें से कुछ आतंकवाद को प्रोत्साहन देने वाले हैं तो कुछ कट्टरपंथ के हिमायती। चीन के ये मित्र थे- पाकिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, इराक, सूडान और अल्जीरिया। अगर उत्तर कोरिया को भी समारोह में बुलाया गया होता तो वह भी नहीं जाता। चीन को इस तरह का ‘गौरवशाली साथ‘ मुबारक हो, भारत के लिए तो ऐसे राष्ट्रों के साथ खड़े होना जायज नहीं हो सकता था।
चीनी दबाव की उपेक्षा कर स्वतंत्र फैसला करना भारत ने हाल ही में शुरू किया है। शायद अपनी आर्थिक, राजनैतिक और सैन्य शक्ति में उसका विश्वास जम रहा है। उसने चीन के प्रतिद्वंद्वी समझे जाने वाले जापान, दक्षिण कोरिया जैसे राष्ट्रों तथा आसियान संगठन के साथ संबंध मजबूत किए हैं। हाल ही में दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय द्वारा दलाई लामा को मानद उपाधि देने को केंद्र सरकार ने मंजूरी दी है और नोबेल पुरस्कार समारोह में हिस्सा लिया है। हालांकि अतीत में हम मौके-बेमौके चीन को नाराज न करने के लिए अनुचित कदम भी उठाते रहे हैं, जैसे पेईचिंग ओलंपिक खेलों के दौरान तिब्बती शरणार्थियों का दमन। तिब्बती लोगों ने अपने जायज संघर्ष की ओर ध्यान खींचने के लिए दुनिया भर में प्रदर्शन किए लेकिन अपने ‘दूसरे घर‘ भारत में ऐसा नहीं कर पाए। हमने लोकतंत्र और आजादी की भावना के विरुद्ध कदम उठाया। लेकिन बदले में क्या मिला? परमाणु सौदे के समय चीन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के विरुद्ध जबरदस्त लाबिंग की, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के विचार का बार-बार विरोध किया और कश्मीरी नागरिकों के लिए स्टेपल किए गए वीजा जारी करना शुरू कर दिया। लेफ्टिनेंट जनरल बीएस जसवाल को वीजा देने से इंकार कर दिया और अभी-अभी विकीलीक्स ने रहस्योद्घाटन किया है कि उसने पाकिस्तान के इशारे पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा हाफिज मोहम्मद सईद के विरुद्ध प्रतिबंध लगाए जाने की प्रक्रिया को रोक दिया। भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत राबर्ट ब्लैकविल कह ही चुके हैं कि चीन भारत की तरक्की की रफ्तार रोकने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में अगर आप चीन को खुश करने के लिए नोबेल पुरस्कार समारोह का बायकाट कर भी देते तो बदले में क्या मिलने वाला था?
हम भी करें आत्मनिरीक्षण

अच्छा किया। हालांकि हम दूसरे देशों के संदर्भ में भी ऐसा ही करते तो शायद ज्यादा बेहतर होता। लेकिन मौजूदा विश्व राजनीति के समीकरण और निजी सुरक्षा ऐसे फैसलों के पीछे एक बड़ा पहलू बन जाता है। मिसाल के तौर पर म्यांमार का उदाहरण लीजिए जहां लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की के सबसे बड़े समर्थकों में माना जाने वाला भारत कुछ साल पहले अचानक चीनी सामरिक नीतियों के जवाब में वहां के सैनिक शासकों के साथ संबंध मजबूत बनाने पर मजबूर हुआ। जिस तरह चीन भारत के पड़ोसियों के बीच अपना प्रभाव फैला रहा था उसे देखते हुए जवाबी कदम उठाना जरूरी था और म्यांमार में यही हुआ। भारत को इसके रणनीतिक लाभ जरूर मिले हैं। हालांकि सू की के बरक्स सैन्य शासकों का साथ देना एक ऐसी फांस है जो भारतीय नेताओं और जनमानस को सालती रहेगी। पाकिस्तान का उदाहरण लीजिए। जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार का तख्ता पलट किया तो दुनिया भर में उसकी भर्त्सना हुई और पाकिस्तान को राष्ट्रमंडल से बाहर भी निकाला गया। विश्व में (चीन को छोड़कर) कहीं पाकिस्तानी हुकूमत को वहां की वैध सरकार के रूप में मान्यता नहीं दी जा रही थी और अधिकांश देश पाकिस्तान के साथ राजनैतिक संबंधों को फ्रीज़ कर चुके थे। कई महीनों तक भारत ने भी यही किया लेकिन फिर तत्कालीन राजग सरकार ने परवेज मुशर्रफ की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया और पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू हो गई। हमारे बाद ही धीरे-धीरे दुनिया ने मुशर्रफ सरकार के साथ संपर्क बनाना शुरू किया क्योंकि जब भारत को ही आपत्ति नहीं रही तो फिर दूसरों को भला क्या तकलीफ थी?
नोबेल पुरस्कार समारोह से दूर रहने वाले ज्यादातर देशों से भारत को फर्क नहीं पड़ता। लेकिन रूस, अफगानिस्तान और श्रीलंका का चीन के पक्ष में जाना हमारे नीति निर्धारकों की पेशानियों पर बल पैदा करेगा। इधर श्रीलंका में चीन का प्रभाव बढ़ा है। पाकिस्तान के साथ भी उसके रक्षा संबंध मजबूत हो रहे हैं। भारत को देखना होगा कि कहीं स्थितियां नेपाल की तरह हाथ से न निकलने लगें जहां भारत के पारंपरिक प्रभाव में चीन ने अच्छी खासी सेंध लगा ली है। यही बात अफगानिस्तान पर लागू होती है। उधर रूस भारत का स्वाभाविक और ऐतिहासिक मित्र रहा है इसलिए चीन के साथ उसका करीब आना भी चिंता पैदा करता है। हालांकि भारत, चीन और रूस ने भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक ब्लॉक बनाया हुआ है जो प्रभावी भले ही न हो, सांकेतिक महत्व जरूर रखता है।

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