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नया धमाका

11/30/2010

बीसवीं सदी में भारत के इतिहास के 6 काले पन्ने (भाग 4)

तीसरा काला पन्ना

भारत की सेना अजेय है। समय आने पर इसके सैनिक अधिकारी सैन्य विशेषज्ञों के गणित को नकारते हुए विजयश्री का वरण करते है। कारगिल की लड़ाई में जब दुनिया कह रही थी कि यह कई महीनों की लड़ाई है, बत भारतीय सेना ने कुछ ही दिनों में पाकिस्तानियों का हर चोटी से सफाया करके युद्ध जीत लिया। लेकिन क्या कारण है कि 1962 के युद्ध में भारत ने चीन के हाथों से करारी हार देखी!
भारत के सैनिक मोर्चो से पीछे हटते हिमालय की वादियों में नंगे पैर, बिना भोजन और दवा के कई-कई किमी. भटकते रहे। दिशाहीन और बदहवास भटकते हजारों सैनिक मौत की नींद सो गए! 15 साल की आजादी देख रहा देश जिन बंदुकों से लड़ रहा था, उसका बैरल 25-50 राउंड फायर करने के बाद इतना गरम हो जाता था कि उसे चलाना तो क्या पकड़ना भी संभव नहीं होता था। बर्फ से आच्छादित हिमालय में पहनने के जूते नहीं, गरम कपड़े नही और र्प्याप्त प्रशिक्षण भी नही!
युद्ध शुरू होने के लम्बे समय बाद हिन्दी-चीनी भाई-भाई जैसे नारों के जन्मदाता व प्रवर्तक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, नारा छोड़कर देश के लिए लड़ों-मरो के भाषण देने लगे। ऐसे खोखले भाषणों से कभी कोई सेना लड़ी है क्या! अपने आपको विश्व की महान हस्ती बनाने की कूटनीतिक गलतियां करते चले गए। कबूतरों को उड़ाकर देश की वायु सीमाओं को सुरक्षित समझते रहे। गुलाब का प्रयोग उन्हे दुश्मन देशों को परास्त करने में गोना-बारूद नजर आता रहा। 1950 में भारत से दूर कोरिया पर चीन ने आक्रमण किया तो नेहरू विश्व में घूम-घूम कर उस पर चिन्ता व्यक्त करते रहे। ठीक इसी वर्ष 1950 में चीन ने तिब्बत पर भी हमला किया, जो सामरिक दृष्टि से भारत के लिए अत्यंत खतरनाक था। लेकिन इस सम्बंध में न तो नेहरू बोले, न कृष्ण मेनन, न सरकार का कोई अधिकारी। सब चुप रहे!!

1950 से 1960 के 10 सालों में चीन ने तिब्बत से हिमालय की अग्रिम चौकियों तक सड़क मार्ग बना डाले। यातायात के अच्छे संसाधन खड़े कर लिए। हिमालय की सीमा तक वह सेना के साथ बढ़ता चला आया। नेहरू आंखे बंद कर खामोश रहे। प्रायोजित भीड़ के बीच हाथ हिला-हिलाकर हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा लगाते रहे। दिल्ली की राजनीतिक पार्टियों में चीनीयों के साथ सामूहिक फोटो खिंचाकर पंचशील का मंत्र जपा जाता रहा। चीन के राजनेता और कूटनीतिज्ञ खुश थे- नेहरू और उसके साथियों के इस आत्मघाती, आत्ममुग्ध व्यवहार पर। हिमालय की सुरक्षा के सम्बंध में हमारी क्या रणनीति है, यह आज जितनी कमजोर है, उससे 45 साल पूर्व की कल्पना पाठक सहज ही कर सकते है। चीन अधिकृत हिमालय में उसकी सीमा के अंदर अंतिम छोर पर चीन ने पक्की सड़के बना ली है। भारी गोला बारूद और रसद ले जाने के लिए उनके पास अग्रिम मोर्चे तक पक्की सड़के है। दूसरी ओर भारत की ओर से सीमा पर पंहुचने के जो मार्ग है, उनमें कई स्थानों पर पक्की सड़क के अंतिम बिंदु से सीमा चौकियों तक पंहुचने का माध्यम तब भी खच्चर था और आज भी खच्चर है। आज भी बेस कैम्प से अग्रिम सीमा चौकी तक जाने में कहीं-कहीं तीन से चार दिन का समय लगता है। आज भी भारतीय सेना और आईटीबीपी अपने शस्त्र व रसद खच्चरों पर ढ़ोकर सीमा पर ले जाती है। सोचिये, 1962 में जब चीन ने हमला किया था तब क्या स्थिति रही होगी। पराजय की भीषणता का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस पूरी पराजय, दुरावस्था और अपमान के लिए अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार है तो वे है तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू। 1962 की शर्मनाक पराजय के बाद अपने मंत्री से त्यागपत्र मांगने की बजाय नेहरू स्वयं इस्तीफा देते तो सरहद पर शहीद हुए सैनिक तो नहीं लौट सकते थे, पराजय विजय में तो नहीं बदल सकती थी, लेकिन गलती पर थोड़ा प्श्चाताप जनमानस के अवसाद और दर्द को तो कम कर ही सकता था। लेकिन हमारे नेहरूजी...... लता मंगेशकर के एक गीत पर चंद आंसू बहाकर सैनिकों को श्रद्धांजलि दे फिर से प्रधानमंत्री बने रहने में व्यस्त हो गए। चीन के हाथों हुई हमारी हार और चीन के कब्जे वाला भारत का वह भू-भाग भारत के मुहं पर एक ऐसा तमाचा है, जिसे कम से कम आने वाली एक सदी तक तो नहीं भूला जा सकता। यहां फिर प्रश्न पैदा होता है कि सुभाषचन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर से बलात् न हटाया गया होता, वे विदेश ना जाते, देश में रहकर अंग्रेजों से लड़ते रहते तो स्वतंत्र भारत में वे क्या होते! अपनी श्रेष्ठता के कारण वे निश्चित ही भारत के प्रधानमंत्री होते। वे होते तो भारत की कूटनीति और विदेश नीति फूलों और पक्षियों से नहीं समझाते, बल्कि ''तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे विजयश्री दूंगा'' जैसे नारों से जनता को बताते। सुभाष के रहते चीन के हाथों भारत की पराजय सपने में भी संभव नहीं थी। तब चीन ने भारत पर हमला तो दूर तिब्बत पर भी हमला करने से पूर्व हजारों बार सोचना था, लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ। यहां फिर सवाल नेहरू का नहीं सवाल है सुभाष। उनके ठीक स्थान पर ठीक समय नहीं होने का है। हमें समझ लेना होगा कि मक्खन को छोड़ छाछ उबालने से घी नहीं बनता।

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