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नया धमाका

11/21/2010

दुधारू पशुओं का मांस निर्यात करने पर 30 प्रतिशत का अनुदान

भारत सरकार को इस बात पर गर्व है कि उसकी तिजोरी विदेशी मुद्रा से छलक रही है। मंदी का नाम आते ही केन्द्र सरकार की त्योरियों पर बल पड़ जाता है। कोई यह कहे कि भारत भी आर्थिक संकट से घिर सकता है तो न केवल सरकार बल्कि उसके साथ जुड़ी अन्य वित्तीय संस्थाएं इसे सरकार की आलोचना और प्रधानमंत्री पर हमला समझकर उसके खंडन के लिए बाहर निकल आती हैं। फिर उसका इतना जोर शोर से प्रचार होता है कि असली मुद्दा गायब हो जाता है। यदि सरकार के पास विदेशी मुद्रा का अभाव नहीं है तो फिर देश का पशुधन निर्यात करने की क्या आवश्यकता है? किसी की जान तो उसी समय ली जाती है जब भूख मिटाने का कोई साधन शेष नहीं रह जाता।
सरकार इस हद तक पशु भक्षी हो चुकी है कि किसी पशु का जन्मा एक दिन का बच्चा भी उसे बर्दाश्त नहीं होता। उसे कत्ल करके अपनी पैसों की भूख सरकार किस हद तक मिटा सकी है? यह कहानी उस भैंस के बच्चे की है जो धरती पर आते ही ऊंची रकम में विदेशियों के हाथों बेच दिया जाता है। उस नवजात बच्चे के मांस का सेंडविच बनाकर खाना वे अपनी अमीरी का प्रतीक मानते हैं। उसकी रकम इतनी मोटी होती है कि सरकार और पशु का व्यापार करने वाले अपनी घृणित लालसा को रोक नहीं पाते। जब बच्चे ही नहीं रहेंगे तो फिर पशुधन की तादाद किस प्रकार बढ़ सकेगी? उसके मांस का आनंद कुछ लपलपाती जीभें अवश्य ले सकेंगी किंतु कितने किलकारियां भरते बच्चे और बीमार दूध से वंचित हो जाएंगे, इसकी चिंता उन्हें तनिक भी नहीं होगी। यदि यह सिलसिला नहीं रुका तो एक दिन भारत में दूध और पेट्रोल एक ही भाव बिकते हुए दिखलाई पड़ेंगे।
गाय के मामले में जागरूकता आने के कारण सरकार पर शिकंजा कसता जा रहा है। बावजूद इसके गाय, बैल और बछड़े आज भी कटते हैं। जिन राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबंध है, वहां के व्यापारी अपना गोधन उन प्रदेशों के व्यापारियों को बेच देते हैं, जहां गोहत्या पर प्रतिबंध नहीं है। एक समय ऐसा आता है कि बेचा गया गोवंश बांगलादेश चला जाता है, नहीं तो उसे काटकर भैंस के मांस के नाम पर निर्यात कर दिया जाता है।
भारत में दूध प्राप्ति का स्त्रोत गाय, भैंस, बकरी और भेड़ हैं। सामान्यत: गाय के दूध की ही मांग होती है। लेकिन न मिलने पर भैंस दूध का सबसे बड़ा रुाोत माना जाता है। दूध भारतीयों के लिए आवश्यक पेय है। इसलिए गाय के दूध के उपरांत भैंस और बकरी का दूध भी बड़े पैमाने पर उपयोग में लाया जाता है।
लेकिन अब भारत में भैंसों के दूध में भी कमी आती जा रही है क्योंकि भैंसों को कत्लखानों में भेज दिया जाता है। मांस के निर्यात के आंकड़े देखें तो उनमें भैंस के मांस के आंकड़े चौंका देने वाले हैं। सरकारी जानकारी के अनुसार वर्ष 2005 में 200 करोड़ रुपये का भैंस का मांस निर्यात किया गया। 08 में यह आंकड़ा बढ़कर 500 करोड़ रुपये हो गया। इस सिलसिले के कारण अच्छी नस्ल के दुधारू पशुओं की संख्या में भारी कमी होती जा रही है। भारत जब आजाद हुआ था उस समय दुधारू पशुओं की संख्या 155.25 मिलियन थी जो वर्ष 1992 तक बढ़कर 204.6 मिलियन तक पहुंच गई। लेकिन इसके पश्चात सरकार की नीति और नीयत बदल गई। दुधारू जानवरों को काटकर मांस का व्यापार किया जाने लगा। 1997 में यह संख्या 198 मिलियन रह गई। 03 में 185 मिलियन और 08 में तो 103.2 मिलियन ही रह गई। भैंसों को काटने के लिए सरकार ने बूचड़खानों को नई मशीनरी आयात करने के लिए करोड़ों रूपये का लोन दिया।
भैंसों को मारते समय यह प्रचार किया जाता है कि इसका दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसलिए अमरीका ने तो अपने यहां से बहुत पहले ही भैंसों का सफाया कर दिया है। लेकिन इस प्रकार का ओछा प्रचार करने से पहले इन हत्यारों को यह जान लेना चाहिए कि अमरीका में जन्मी भैंस और भारत में पैदा होने वाली भैंस में जमीन आसमान का अंतर होता है। भैंसों के कत्लेआम की कल्पना इस बात से की जा सकती है कि भारत सरकार मांस निर्यात करने वालों को भैंस के मांस पर 30 प्रतिशत का अनुदान देती है। अहिंसा और करुणा के देश भारत में पशुओं को काटने पर अनुदान दिया जाए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है?
दुधारू पशुओं की संख्या में कमी होने के जो कारण सामने आ रहे हैं, उसमें असामयिक वध सबसे प्रमुख हैं। गाय और भैंस अपने जीवन काल में 10 से 12 बार गर्भ धारण करती है। इस दृष्टि से वह 12 वर्ष तक दूध देती हैं। एक भैंस अपने जीवन काल में लगभग 21 हजार 600 तथा एक गाय 36000 लीटर दूध देती है। इतना ही नहीं अब तो कनाडा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया एवं स्केनडेवेनियन देशों से दूध आयात किया जाता है।
जब तक दुधारू पशुओं को अच्छा दाना और चारा नहीं खिलाया जाता तब तक पशुओं में दूध देने की क्षमता नहीं बढ़ सकती। मूंगफली, तिल और सोया में से तेल निकाल लेने के पश्चात जो कुछ बचता है वह इन दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है। पशुओं के लिए तैयार की जाने वाली खली का कुल 90 प्रतिशत चीन को निर्यात कर दिया जाता है। भारत में परंपरा से इन पशुओं के लिए चरने की भूमि थी लेकिन अब वे चारागाह लुप्त होते जा रहे हैं। मध्य प्रदेश में 12 प्रतिशत जमीन पशुओं की चराई के लिए थी लेकिन समय-समय पर राज्य सरकारों ने इन जमीनों को बेचकर इन बिन बोले पशुओं के मुंह का निवाला छीन लिया। मुम्बई की विनियोग परिवार संस्था सूचना के अधिकार के अंतर्गत कुल चराई भूमि कितनी थी इसकी खोजबीन कर रही है। भारत सरकार ने पिछले दस वर्ष से इस प्रकार की चराई के लिए सुरक्षित भूमि के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए हैं।
पिछले दिनों लंदन से प्रकाशित डेली टेलीग्राफ ने एक चौंका देने वाली रपट प्रकाशित की है। वैज्ञानिकों की एक टीम ने इस प्रकार की खोज की है कि जो गायें समूह में रखी जाती हैं जिनके लिए रेवड़ शब्द का उपयोग किया जाता है उनकी तुलना में वे गायें जो रेवड से अलग रखी जाती हैं और जिनके मालिक उन्हें किसी नाम- देवी, गौरी, सारा अथवा लाड़ली से सम्बोधित करके उन्हें भरपूर प्यार देते हैं, वे गायें रेवड़ की गायों की तुलना में अधिक दूध देती हैं। प्रयोग करने वाले वैज्ञानिकों ने कहा कि उन गायों ने औसतन 258 लीटर दूध अधिक दिया। प्रेम दर्शाने पर पशु भी अपना हो जाता है, जब कोई उसे खींचकर कत्लखाने ले जाएगा तो भला वे क्या दे सकते हैं? वैज्ञानिकों का प्रयोग एक ही संदेश देता है उन्हें अपने भोजन का निवाला न बनाओ। वे सेवा देकर तुम्हारे परिवार को आशीर्वाद देते रहेंगे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. वास्तव में आज भारत का पशुधन बड़ी तेजी से समाप्त हो रहा है। हमारी सरकार के साथ-साथ जनता भी इसमें बराबर की भागीदार है।

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  2. भारत के गौवंश को बचाने की आवश्यकता है, सुना है कि गुलाम मण्डल खेलों में गौ मांस परोसा गया था

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