जब श्वेजर इलस्ट्रेटे ने यह आरोप लगाया कि सोनिया गांधी ने राजीव गांधी द्वारा घूस में लिए गए पैसे को राहुल गांधी के खाते में रखा है तो मां-बेटे में से किसी ने न तो विरोध किया और न ही इस पत्रिका के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की।
राजनीति में राजीव गांधी ने सबसे खतरनाक गलती क्या की थी? यह बताने में दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं पड़ना चाहिए कि उनकी सबसे बड़ी गलती खुद ईमानदार होने का दावा करते हुए अपने को मिस्टर क्लीन के तौर पर पेश करना थी। यह उनके लिए घातक साबित हुआ। इंदिरा गांधी उनसे अलग थीं। जब उनसे उनकी सरकार के भ्रष्टाचार के बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि यह तो पूरी दुनिया में चल रहा है। यह बात 1983 की है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने इसके बाद यह कहा था कि जब इतने उच्च पद पर बैठने वाला इसे तर्कसंगत बता रहा है तो ऐसे में आखिर भ्रष्टाचार पर काबू कैसे पाया जाएगा। इन बातों का नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी पर कभी किसी ने भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगाया। क्योंकि उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि वह ईमानदार हैं। पर इसके उलट राजीव गांधी ने अपनी ईमानदारी के दावे कर खुद को कड़ी निगरानी में ला दिया। राजीव गांधी की ईमानदारी की पोल 1989 में बोफोर्स मामले पर खुल गई और जनता ने इसकी सजा देते हुए उन्हें और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। सियासी लोगों के लिए इस घटना ने यह सीख दी कि अगर आप ईमानदार नहीं हैं तो कभी ईमानदारी के दावे मत कीजिए। पर यह सीख खुद गांधी परिवार को याद नहीं है। इस मामले में सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी के सुरक्षित रास्ते को न चुनकर राजीव गांधी के घातक रास्ते पर चलने का फैसला किया है। इसके नतीजे भी उनके लिए दुखदायी होने की ही उम्मीद है। तो क्या 1987 से 1989 के बीच की राजनीति का एक बार फिर दुहराव होने वाला है?
इंदिरा को भूलकर राजीव की राह चलने वाली सोनिया गांधी ने 2010 के नवंबर में इलाहाबाद में हुई पार्टी की एक रैली में भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने यानि जीरो टालरेंस की बात कही थी। इसके कुछ दिनों बाद ही जब दिल्ली में कांग्रेस अधिवेशन हुआ तो सोनिया गांधी ने फिर यही बात दोहराई। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी ने कभी भी भ्रष्ट लोगों को नहीं बख्शा है क्योंकि भ्रष्टाचार से विकास बाधित होता है। इसी तरह का भाषण राजीव गांधी ने 25 साल पहले मुंबई अधिवेशन में दिया था। इस मसले पर राजीव दो मामलों में सोनिया से अलग थे। जब राजीव गांधी ने खुद को मिस्टर क्लीन कहा था उस वक्त ऐसा कोई घोटाला नहीं था जिसकी वजह से उन्हें रक्षात्मक होना पड़े। पर सोनिया ने तो राष्ट्रमंडल, आदर्श और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बीच ईमानदार होने का दावा किया है। दूसरी बात यह कि राजीव ने बिल्कुल शून्य से शुरुआत की थी और उनकी मिस्टर क्लीन की छवि को खत्म करने का काम तो बोफोर्स घोटले ने किया था। इसके विपरीत सोनिया गांधी के खिलाफ घूसखोरी के तौर पर अरबों डालर लेकर स्विस बैंक खातों में जमा करने की बात पहले ही सामने आ चुकी है। इसमें बोफोर्स सौदे में क्वात्रोचि से मिले लाखों डॉलर शामिल नहीं हैं। स्विट्जरलैंड की एक प्रतिष्ठित पत्रिका और रूस के एक खोजी पत्रकार ने सोनिया गांधी के परिवार पर घूसखोरी में लिप्त होने के कई सबूत जुटाकर सबके सामने रखा है। इस बात के दो दशक बीत जाने के बाद भी सोनिया ने आरोपों का न तो खंडन किया है और न ही खुलासा करने वालों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की है। इसकी पृष्ठभूमि में सोनिया गांधी की वह बात ढकोसला मालूम पड़ती है जिसमें उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की बात कही है। दरअसल, कहानी कुछ इस प्रकार है।
2.2 अरब डॉलर से 11 अरब डॉलर!
स्विस बैंक में सोनिया गांधी के अरबों डालर जमा होने की बात खुद स्विट्जरलैंड में ही उजागर हुई। यही वह देश है जहां दुनिया भर के भ्रष्टाचारी लूट का धन रखते हैं। स्विट्जरलैंड की सबसे लोकप्रिय पत्रिका श्वेजर इलस्ट्रेटे ने अपने 19 नवंबर, 1991 के एक अंक में एक खास रिपोर्ट प्रकाशित की। इसमें विकासशील देशों के ऐसे 13 नेताओं का नाम था जिन्होंने भ्रष्ट तरीके से अर्जित किए पैसे को स्विस बैंक में जमा कर रखा था। इसमें राजीव गांधी का नाम भी था। श्वेजर इलस्ट्रेटे कोई छोटी पत्रिका नहीं है बल्कि इसकी 2.15 लाख प्रतियां बिकती हैं और इसके पाठकों की संख्या 9.17 लाख है। यह संख्या स्विट्जरलैंड की कुल वयस्क आबादी का छठा हिस्सा है। केजीबी के रिकार्ड्स का हवाला देते हुए पत्रिका ने लिखा, ”पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विधवा सोनिया गांधी अपने नाबालिग बेटे के नाम पर एक गुप्त खाते का संचालन कर रही हैं जिसमें ढाई अरब स्विस प्रफैंक यानि 2.2 अरब डालर हैं।” राहुल गांधी 1988 के जून में बालिग हुए थे। इसलिए यह खाता निश्चित तौर पर इसके पहले ही खुला होगा। अगर इस रकम को आज के रुपए में बदला जाए तो यह 10,000 करोड़ रुपये के बराबर बैठती है। स्विस बैंक अपने ग्राहकों के पैसे को दबा कर नहीं रखता है, बल्कि इसका निवेश करता है। सुरक्षित दीर्घ अवधि वाली योजनाओं में निवेश करने पर यह रकम 2009 तक बढ़कर 9.41 अरब डालर यानी 42,345 करोड़ रुपये हो जाती है। अगर इसे अमेरिकी शेयर बाजार में लगाया गया होगा तो यह 58,365 करोड़ रुपए हो गई होगी। यदि घूस की इस रकम को आधा दीर्घावधि निवेश योजनाओं में और आधा शेयर बाजार में लगाया गया होगा, जिसकी पूरी संभावना है, तो यह रकम 50,355 करोड़ रुपए हो जाती है। अगर इस पैसे को शेयर बाजार में लगाया गया होता तो 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी से पहले यह रकम 83,900 करोड़ रुपए होती। किसी भी तरह से हिसाब लगाने पर 2.2 अरब डालर की वह रकम आज 43,000 करोड़ रुपए से 84,000 करोड़ रुपए के बीच ठहरती है।
केजीबी दस्तावेज
सोनिया गांधी के खिलाफ कहीं ज्यादा गंभीर तरीके से मामले को उजागर किया रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी ने। एजेंसी के दस्तावेजों में यह दर्ज है कि गांधी परिवार ने केजीबी से घूस के तौर पर पैसे लिए। प्रख्यात खोजी पत्रकार येवगेनिया अलबतस ने अपनी किताब ‘दि स्टेट विदिन ए स्टेट: दि केजीबी एंड इट्स होल्ड ऑन रसिया-पास्ट, प्रजेंट एंड फ्यूचर’ में लिखा है, ”एंद्रोपोव की जगह लेने वाले नए केजीबी प्रमुख विक्टर चेब्रीकोव के दस्तखत वाले 1982 के एक पत्र में लिखा है- ‘यूएसएसआर केजीबी ने भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेटे से संबंध बना रखे हैं। आर गांधी ने इस बात पर आभार जताया है कि सोवियत कारोबारी संगठनों के सहयोग से वह जो कंपनी चला रहे हैं, उसके कारोबारी सौदों का लाभ प्रधानमंत्री के परिवार को मिल रहा है। आर. गांधी ने बताया है कि इस चैनल के जरिए प्राप्त होने वाले पैसे का एक बड़ा हिस्सा आर गांधी की पार्टी की मदद के लिए खर्च किया जा रहा है।” (पृष्ठ 223)। अलबतस ने यह भी उजागर किया है कि दिसंबर, 2005 में केजीबी प्रमुख विक्टर चेब्रीकोव ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति से राजीव गांधी के परिवार को अमेरिकी डालर में भुगतान करने की अनुमति मांगी थी। राजीव गांधी के परिवार के तौर पर उन्होंने सोनिया गांधी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी की मां पाओला मैनो का नाम दिया था। अलबतस की किताब आने से पहले ही रूस की मीडिया ने पैसे के लेनदेन के मामले को उजागर कर दिया था। इसके आधार पर 4 जुलाई 1992 को दि हिंदू में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें कहा गया, ”रूस की विदेशी खुफिया सेवा इस संभावना को स्वीकार करती है कि राजीव गांधी के नियंत्रण वाली कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए केजीबी ने उन्हें सोवियत संघ से लाभ वाले ठेके दिलवाए हों।’
भारतीय मीडिया
राजीव गांधी की हत्या की वजह से उस वक्त भारतीय मीडिया में स्विट्जरलैंड और रूस के खुलासों की चर्चा नहीं हो पाई। पर जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली तो भारतीय मीडिया की दिलचस्पी इस मामले में बढ़ गई। जाने-माने स्तंभकार एजी नूरानी ने इन दोनों खुलासों के आधार पर 31 दिसंबर 1998 को स्टेट्समैन में लिखा था। सुब्रमण्यम स्वामी ने श्वेजर इलस्ट्रेटे और अलबतस की किताब के पन्नों को स्कैन कर अपनी जनता पार्टी की वेबसाइट पर डाला है। इसमें पत्रिका का वह ई-मेल भी शामिल है जिसमें इस बात की पुष्टि है कि पत्रिका ने 1991 के नवंबर अंक में राजीव गांधी के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। जब सोनिया गांधी ने 27 अप्रैल, 2009 को मैंगलोर में यह कहा कि स्विस बैंक में जमा भारतीय काले धन को वापस लाने के लिए कांग्रेस कदम उठा रही है तब मैंने 29 अप्रैल, 2009 को इन तथ्यों को शामिल करते हुए एक लेख न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा। काला धन वापस लाने के सोनिया गांधी के दावे के संदर्भ में इस लेख में उनके परिवार के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाया गया। जाने-माने पत्रकार राजिंदर पुरी ने 15 अगस्त 2006 को केजीबी के खुलासों पर एक लेख लिखा था। इंडिया टुडे के 27 दिसंबर, 2010 के अंक में राम जेठमलानी ने स्विट्जरलैंड में हुए खुलासे की बात कहते हुए यह सवाल उठाया कि वह पैसा अब कहां है? साफ है कि भारतीय मीडिया ने इन दोनों खुलासों पर बीच-बीच में लेख प्रकाशित किया। माकपा सांसद अमल दत्ता ने 7 दिसंबर, 1991 को 2.2 अरब डालर के मसले को संसद में उठाया था, लेकिन उस वक्त लोकसभा के अध्यक्ष रहे शिवराज पाटिल ने राजीव गांधी का नाम कार्यवाही से निकलवा दिया था।
संदेह का घेरा
सवाल यह उठता है कि इन दोनों खुलासों पर सोनिया गांधी और 1988 में बालिग हुए राहुल गांधी ने क्या जवाब दिया? जवाब है कुछ नहीं। सच कहा जाए तो इन खुलासों से ज्यादा गांधी परिवार की चुप्पी ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाने का काम किया है। जब श्वेजर इलस्ट्रेटे ने यह आरोप लगाया कि सोनिया गांधी ने राजीव गांधी द्वारा घूस में लिए गए पैसे को राहुल गांधी के खाते में रखा है, तो मां-बेटे में से किसी ने न तो इसका विरोध किया और न ही इस पत्रिका के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की। मां-बेटे ने न ही 1998 में इस मामले पर लेख लिखने वाले एजी नूरानी के खिलाफ कोई कदम उठाया और न ही संबंधित दस्तावेज 2002 में अपनी वेबसाइट पर डालने वाले सुब्रमण्यम स्वामी के खिलाफ कुछ किया। न ही उन्होंने मेरे या एक्सप्रेस के खिलाफ 2009 के अप्रैल में इन तथ्यों पर आधारित लेख छापने के लिए कोई कानूनी कार्रवाई की। जब 1992 में रूस में केजीबी से संबंधित खुलासे की खबर दि हिंदू और टाइम्स आफ इंडिया ने प्रकाशित की, उस वक्त भी किसी गांधी ने कोई शिकायत नहीं की। न ही किसी गांधी ने येवगेनिया अलबतस के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की जिन्होंने 1994 में केजीबी और राजीव गांधी के बीच पैसे के लेनदेन के बारे में लिखा। न ही इन लोगों ने 15 अगस्त, 2006 को ऐसा लेख लिखने वाले राजिंदर पुरी के खिलाफ कोई कदम उठाया। हालांकि, 2007 में सोनिया के कुछ वफादार लोगों ने उनकी प्रतिष्ठा बचाने के लिए अमेरिका में बड़े अनमने ढंग से एक मुकद्दमा जरूर दर्ज कराया था। ऐसा तब हुआ जब वहां के कुछ प्रवासी भारतीयों ने अलबतस के खुलासों के आधार पर पूरे पन्ने का विज्ञापन न्यूयार्क टाइम्स में छपवाया। वे सोनिया गांधी की सच्चाई को अमेरिका वालों के सामने रखना चाहते थे। अमेरिकी अदालत ने इस मुकद्दमे को तुरंत खारिज कर दिया क्योंकि सोनिया गांधी खुद अपने नाम से मुकद्दमा दर्ज कराने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। आश्चर्य की बात यह है कि इस मुकद्दमें में भी स्विस बैंक में 2.2 अरब डालर होने की बात को चुनौती नहीं दी गई थी।
अगर मान लिया जाए कि ये दोनों खुलासे आधारहीन हैं और गांधी परिवार ईमानदार है तो ऐसे में उनकी ओर से कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी? ईमानदार आदमी की प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी मोरारजी देसाई ने दी थी। जब पुलित्जर पुरस्कार विजेता खोजी पत्रकार सेमोर हेर्स ने अपनी किताब में यह आरोप लगाया कि भारतीय कैबिनेट में मोरारजी सीआईए एजेंट थे तो 87 साल के बूढ़े और रिटायर्ड मोरारजी देसाई ने न सिर्फ गुस्से का इजहार किया बल्कि एक मानहानि का मुकद्दमा भी दर्ज कराया। मोरारजी देसाई के मरने के पांच साल बाद अमेरिकन स्पेक्टेटर में रेल जेन आइजैक ने लिखा कि हेर्स चरित्र हनन करने में माहिर थे और हेनरी किसिंजर को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने मोरारजी को निशाना बना लिया। जब मोरारजी के मानहानि मुकद्दमे पर सुनवाई शुरू हुई तो 93 साल की उम्र वाले मोरारजी अमेरिका जाने में सक्षम नहीं थे और उनकी जगह पर किसिंजर ने जाकर हेर्स के दावों को खारिज किया। कहने का मतलब है कि अगर कोई ईमादार होता है तो अपनी उम्र का ख्याल न करते हुए खुद पर लगाए जा रहे आरोपों पर प्रतिक्रिया देता है। संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अब तक इस मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह तब जब वे पूरी तरह से सक्रिय हैं, न कि मोरारजी देसाई की तरह सेवानिवृत्त और बुजुर्ग। जब स्विस पत्रिका में यह मामला उजागर हुआ था तो उनकी उम्र महज 41 साल थी। अगर सोनिया और राहुल के बजाए इन दोनों खुलासों में भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी का नाम होता तो भारतीय मीडिया और सोनिया गांधी की सरकार उन्हें सलाखों के पीछे भेजने के लिए क्या नहीं करती।
20.80 लाख करोड़ रुपए की लूट
स्विस बैंक में गांधी परिवार के अरबों रुपए का मामला विदेशी गुमनाम खातों में जमा भारतीय पैसे को वापस लाने से जुड़ा हुआ है। भारत को छोड़कर दुनिया के सभी देशों ने स्विस बैंक और इसकी तरह अन्य बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी दिखाई है। पर भारत ने इस काम में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। आखिर ऐसा क्यों?
2009 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने यह कहा था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो विदेशों में जमा काले धन को वापस लाएंगे। विदेशों में भारत का 500 अरब डालर से लेकर 1400 अरब डालर के बीच काला धन जमा होने का अनुमान है। कांग्रेस ने इतनी रकम होने की बात को शुरुआत में नकार दिया था। पर जब यह मामला तूल पकड़ने लगा तो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने भी यह कहा कि वे इस काले धन को वापस लाएंगे। वैश्विक स्तर पर काले धन के मसले पर काम करने वाली संस्था ग्लोबल फायनैंशियल इंटीग्रिटी (जीएफआई) ने भारत में हुई लूट के बारे में कहा है, ”1948 से लेकर 2008 के बीच भारत ने 213 अरब डालर काले धन के रूप में गंवाए हैं। यह कर चोरी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और आपराधिक गतिविधियों के जरिए किया गया है।” ऐसे में क्या किसी को यह बताने में बहुत मुश्किल होगी कि आखिर कैसे सोनिया के परिवार के गुप्त खाते में 2.2 अरब डॉलर आए? जीएफआई के आंकड़े में 2जी और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के नाम पर हुई लूट तो शामिल ही नहीं है। अब ऐसे में इस बात पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि सोनिया गांधी के गुप्त खाते की वजह से भारत का विदेशों में जमा काला धन वापस लाने की कोशिशों पर किस तरह का असर पड़ेगा?
लूटने वाले सुरक्षित
कुछ उदाहरणों से यह बात साफ हो जाएगी कि भारत सरकार किस तरह विदेशों में जमा भारत के काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है। 2008 के फरवरी में जर्मनी के सरकारी अधिकारियों ने यह जानकारी जुटाई की लिशेंस्टीन बैंक में दुनिया के कई देशों के नागरिकों ने कितना काला धन जमा किया है। जर्मनी के वित्त मंत्री ने उस वक्त कहा कि अगर दुनिया की कोई और सरकार काला धन जमा करने वाले अपने नागरिकों का नाम जानना चाहती है तो वे उसे ये नाम दे देंगे। मीडिया में कुछ ऐसी खबरें आईं जिनमें कहा गया कि लिशेंस्टीन बैंक से जिन खाताधारियों के नाम मिले हैं उनमें 250 भारतीय भी हैं। जर्मनी के खुले प्रस्ताव के बावजूद संप्रग सरकार ने इन नामों को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। टाइम्स आफ इंडिया में भी उस समय एक खबर प्रकाशित हुई जिसमें बताया गया कि वित्त मंत्रालय और प्रधनमंत्री कार्यालय लिशेंस्टीन के खाताधारियों के नाम जानने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। इस बीच दबाव बढ़ने पर भारत सरकार ने नाम के लिए अनुरोध तो किया लेकिन खुले प्रस्ताव के बजाए जर्मनी के साथ हुए कर समझौते के तहत। आखिर दोनों में फर्क क्या है? फर्क यह है कि कर समझौते के तहत मिलने वाले नामों को गोपनीय रखा जाता है लेकिन खुले प्रस्ताव के तहत मिलने वाले नाम को सार्वजनिक किया जा सकता है। इससे साफ हो जाता है कि सरकार वैसे लोगों का नाम नहीं उजागर करना चाहती है जिन्होंने काला धन विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है।
दूसरा सनसनीखेज मामला है हसन अली का। पुणे के इस कारोबारी के बारे में यह पाया गया कि वह 1.5 लाख करोड़ रुपए के स्विस खाते का संचालन कर रहा था। आयकर विभाग ने उस पर भारत का पैसा गलत ढंग से विदेशी खाते में रखने के लिए 71,848 करोड़ रुपए का कर लगाया। इस मामले में जानकारी हासिल करने के लिए स्विस सरकार को जो अनुरोध भेजा गया उसे इस तरह से तैयार किया गया कि सूचनाएं नहीं मिल सकें। हसन अली के साथ कई बड़े नामों के जुड़े होने की बात की जा रही है। सरकार आखिर क्यों नहीं इस मामले की गहराई से जांच करना चाहती है। हसन अली जैसे लोग ही भारत के भ्रष्ट लोगों का पैसा विदेशों में हवाला के जरिए पहुंचाते हैं। अगर हसन अली से जुड़ी सच्चाई सामने आ जाती है तो कई भ्रष्ट लोग नंगे हो जाएंगे। हमें यह भी समझना होगा कि सोनिया गांधी के अरबों डालर स्विस बैंक में होते हुए भारत के 462 अरब डालर की लूट की स्वतंत्र जांच नहीं हो सकती। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने चुनाव लड़ते वक्त जो हलफनामा दिया था उसके मुताबिक दोनों की संयुक्त संपत्ति सिर्फ 363 लाख रुपए है। सोनिया के पास कोई कार नहीं है। 19 नवंबर 2010 को सोनिया ने कहा कि भ्रष्टाचार और लोभ भारत में बढ़ रहा है। 19 दिसंबर 2010 को राहुल गांधी ने कहा कि भ्रष्ट लोगों को कठोर सजा दी जानी चाहिए। आमीन!
राजनीति में राजीव गांधी ने सबसे खतरनाक गलती क्या की थी? यह बताने में दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं पड़ना चाहिए कि उनकी सबसे बड़ी गलती खुद ईमानदार होने का दावा करते हुए अपने को मिस्टर क्लीन के तौर पर पेश करना थी। यह उनके लिए घातक साबित हुआ। इंदिरा गांधी उनसे अलग थीं। जब उनसे उनकी सरकार के भ्रष्टाचार के बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि यह तो पूरी दुनिया में चल रहा है। यह बात 1983 की है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने इसके बाद यह कहा था कि जब इतने उच्च पद पर बैठने वाला इसे तर्कसंगत बता रहा है तो ऐसे में आखिर भ्रष्टाचार पर काबू कैसे पाया जाएगा। इन बातों का नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी पर कभी किसी ने भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगाया। क्योंकि उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि वह ईमानदार हैं। पर इसके उलट राजीव गांधी ने अपनी ईमानदारी के दावे कर खुद को कड़ी निगरानी में ला दिया। राजीव गांधी की ईमानदारी की पोल 1989 में बोफोर्स मामले पर खुल गई और जनता ने इसकी सजा देते हुए उन्हें और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। सियासी लोगों के लिए इस घटना ने यह सीख दी कि अगर आप ईमानदार नहीं हैं तो कभी ईमानदारी के दावे मत कीजिए। पर यह सीख खुद गांधी परिवार को याद नहीं है। इस मामले में सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी के सुरक्षित रास्ते को न चुनकर राजीव गांधी के घातक रास्ते पर चलने का फैसला किया है। इसके नतीजे भी उनके लिए दुखदायी होने की ही उम्मीद है। तो क्या 1987 से 1989 के बीच की राजनीति का एक बार फिर दुहराव होने वाला है?
इंदिरा को भूलकर राजीव की राह चलने वाली सोनिया गांधी ने 2010 के नवंबर में इलाहाबाद में हुई पार्टी की एक रैली में भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने यानि जीरो टालरेंस की बात कही थी। इसके कुछ दिनों बाद ही जब दिल्ली में कांग्रेस अधिवेशन हुआ तो सोनिया गांधी ने फिर यही बात दोहराई। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी ने कभी भी भ्रष्ट लोगों को नहीं बख्शा है क्योंकि भ्रष्टाचार से विकास बाधित होता है। इसी तरह का भाषण राजीव गांधी ने 25 साल पहले मुंबई अधिवेशन में दिया था। इस मसले पर राजीव दो मामलों में सोनिया से अलग थे। जब राजीव गांधी ने खुद को मिस्टर क्लीन कहा था उस वक्त ऐसा कोई घोटाला नहीं था जिसकी वजह से उन्हें रक्षात्मक होना पड़े। पर सोनिया ने तो राष्ट्रमंडल, आदर्श और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बीच ईमानदार होने का दावा किया है। दूसरी बात यह कि राजीव ने बिल्कुल शून्य से शुरुआत की थी और उनकी मिस्टर क्लीन की छवि को खत्म करने का काम तो बोफोर्स घोटले ने किया था। इसके विपरीत सोनिया गांधी के खिलाफ घूसखोरी के तौर पर अरबों डालर लेकर स्विस बैंक खातों में जमा करने की बात पहले ही सामने आ चुकी है। इसमें बोफोर्स सौदे में क्वात्रोचि से मिले लाखों डॉलर शामिल नहीं हैं। स्विट्जरलैंड की एक प्रतिष्ठित पत्रिका और रूस के एक खोजी पत्रकार ने सोनिया गांधी के परिवार पर घूसखोरी में लिप्त होने के कई सबूत जुटाकर सबके सामने रखा है। इस बात के दो दशक बीत जाने के बाद भी सोनिया ने आरोपों का न तो खंडन किया है और न ही खुलासा करने वालों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की है। इसकी पृष्ठभूमि में सोनिया गांधी की वह बात ढकोसला मालूम पड़ती है जिसमें उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने की बात कही है। दरअसल, कहानी कुछ इस प्रकार है।
2.2 अरब डॉलर से 11 अरब डॉलर!
स्विस बैंक में सोनिया गांधी के अरबों डालर जमा होने की बात खुद स्विट्जरलैंड में ही उजागर हुई। यही वह देश है जहां दुनिया भर के भ्रष्टाचारी लूट का धन रखते हैं। स्विट्जरलैंड की सबसे लोकप्रिय पत्रिका श्वेजर इलस्ट्रेटे ने अपने 19 नवंबर, 1991 के एक अंक में एक खास रिपोर्ट प्रकाशित की। इसमें विकासशील देशों के ऐसे 13 नेताओं का नाम था जिन्होंने भ्रष्ट तरीके से अर्जित किए पैसे को स्विस बैंक में जमा कर रखा था। इसमें राजीव गांधी का नाम भी था। श्वेजर इलस्ट्रेटे कोई छोटी पत्रिका नहीं है बल्कि इसकी 2.15 लाख प्रतियां बिकती हैं और इसके पाठकों की संख्या 9.17 लाख है। यह संख्या स्विट्जरलैंड की कुल वयस्क आबादी का छठा हिस्सा है। केजीबी के रिकार्ड्स का हवाला देते हुए पत्रिका ने लिखा, ”पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विधवा सोनिया गांधी अपने नाबालिग बेटे के नाम पर एक गुप्त खाते का संचालन कर रही हैं जिसमें ढाई अरब स्विस प्रफैंक यानि 2.2 अरब डालर हैं।” राहुल गांधी 1988 के जून में बालिग हुए थे। इसलिए यह खाता निश्चित तौर पर इसके पहले ही खुला होगा। अगर इस रकम को आज के रुपए में बदला जाए तो यह 10,000 करोड़ रुपये के बराबर बैठती है। स्विस बैंक अपने ग्राहकों के पैसे को दबा कर नहीं रखता है, बल्कि इसका निवेश करता है। सुरक्षित दीर्घ अवधि वाली योजनाओं में निवेश करने पर यह रकम 2009 तक बढ़कर 9.41 अरब डालर यानी 42,345 करोड़ रुपये हो जाती है। अगर इसे अमेरिकी शेयर बाजार में लगाया गया होगा तो यह 58,365 करोड़ रुपए हो गई होगी। यदि घूस की इस रकम को आधा दीर्घावधि निवेश योजनाओं में और आधा शेयर बाजार में लगाया गया होगा, जिसकी पूरी संभावना है, तो यह रकम 50,355 करोड़ रुपए हो जाती है। अगर इस पैसे को शेयर बाजार में लगाया गया होता तो 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी से पहले यह रकम 83,900 करोड़ रुपए होती। किसी भी तरह से हिसाब लगाने पर 2.2 अरब डालर की वह रकम आज 43,000 करोड़ रुपए से 84,000 करोड़ रुपए के बीच ठहरती है।
केजीबी दस्तावेज
सोनिया गांधी के खिलाफ कहीं ज्यादा गंभीर तरीके से मामले को उजागर किया रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी ने। एजेंसी के दस्तावेजों में यह दर्ज है कि गांधी परिवार ने केजीबी से घूस के तौर पर पैसे लिए। प्रख्यात खोजी पत्रकार येवगेनिया अलबतस ने अपनी किताब ‘दि स्टेट विदिन ए स्टेट: दि केजीबी एंड इट्स होल्ड ऑन रसिया-पास्ट, प्रजेंट एंड फ्यूचर’ में लिखा है, ”एंद्रोपोव की जगह लेने वाले नए केजीबी प्रमुख विक्टर चेब्रीकोव के दस्तखत वाले 1982 के एक पत्र में लिखा है- ‘यूएसएसआर केजीबी ने भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेटे से संबंध बना रखे हैं। आर गांधी ने इस बात पर आभार जताया है कि सोवियत कारोबारी संगठनों के सहयोग से वह जो कंपनी चला रहे हैं, उसके कारोबारी सौदों का लाभ प्रधानमंत्री के परिवार को मिल रहा है। आर. गांधी ने बताया है कि इस चैनल के जरिए प्राप्त होने वाले पैसे का एक बड़ा हिस्सा आर गांधी की पार्टी की मदद के लिए खर्च किया जा रहा है।” (पृष्ठ 223)। अलबतस ने यह भी उजागर किया है कि दिसंबर, 2005 में केजीबी प्रमुख विक्टर चेब्रीकोव ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति से राजीव गांधी के परिवार को अमेरिकी डालर में भुगतान करने की अनुमति मांगी थी। राजीव गांधी के परिवार के तौर पर उन्होंने सोनिया गांधी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी की मां पाओला मैनो का नाम दिया था। अलबतस की किताब आने से पहले ही रूस की मीडिया ने पैसे के लेनदेन के मामले को उजागर कर दिया था। इसके आधार पर 4 जुलाई 1992 को दि हिंदू में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें कहा गया, ”रूस की विदेशी खुफिया सेवा इस संभावना को स्वीकार करती है कि राजीव गांधी के नियंत्रण वाली कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए केजीबी ने उन्हें सोवियत संघ से लाभ वाले ठेके दिलवाए हों।’
भारतीय मीडिया
राजीव गांधी की हत्या की वजह से उस वक्त भारतीय मीडिया में स्विट्जरलैंड और रूस के खुलासों की चर्चा नहीं हो पाई। पर जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली तो भारतीय मीडिया की दिलचस्पी इस मामले में बढ़ गई। जाने-माने स्तंभकार एजी नूरानी ने इन दोनों खुलासों के आधार पर 31 दिसंबर 1998 को स्टेट्समैन में लिखा था। सुब्रमण्यम स्वामी ने श्वेजर इलस्ट्रेटे और अलबतस की किताब के पन्नों को स्कैन कर अपनी जनता पार्टी की वेबसाइट पर डाला है। इसमें पत्रिका का वह ई-मेल भी शामिल है जिसमें इस बात की पुष्टि है कि पत्रिका ने 1991 के नवंबर अंक में राजीव गांधी के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। जब सोनिया गांधी ने 27 अप्रैल, 2009 को मैंगलोर में यह कहा कि स्विस बैंक में जमा भारतीय काले धन को वापस लाने के लिए कांग्रेस कदम उठा रही है तब मैंने 29 अप्रैल, 2009 को इन तथ्यों को शामिल करते हुए एक लेख न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा। काला धन वापस लाने के सोनिया गांधी के दावे के संदर्भ में इस लेख में उनके परिवार के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाया गया। जाने-माने पत्रकार राजिंदर पुरी ने 15 अगस्त 2006 को केजीबी के खुलासों पर एक लेख लिखा था। इंडिया टुडे के 27 दिसंबर, 2010 के अंक में राम जेठमलानी ने स्विट्जरलैंड में हुए खुलासे की बात कहते हुए यह सवाल उठाया कि वह पैसा अब कहां है? साफ है कि भारतीय मीडिया ने इन दोनों खुलासों पर बीच-बीच में लेख प्रकाशित किया। माकपा सांसद अमल दत्ता ने 7 दिसंबर, 1991 को 2.2 अरब डालर के मसले को संसद में उठाया था, लेकिन उस वक्त लोकसभा के अध्यक्ष रहे शिवराज पाटिल ने राजीव गांधी का नाम कार्यवाही से निकलवा दिया था।
संदेह का घेरा
सवाल यह उठता है कि इन दोनों खुलासों पर सोनिया गांधी और 1988 में बालिग हुए राहुल गांधी ने क्या जवाब दिया? जवाब है कुछ नहीं। सच कहा जाए तो इन खुलासों से ज्यादा गांधी परिवार की चुप्पी ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाने का काम किया है। जब श्वेजर इलस्ट्रेटे ने यह आरोप लगाया कि सोनिया गांधी ने राजीव गांधी द्वारा घूस में लिए गए पैसे को राहुल गांधी के खाते में रखा है, तो मां-बेटे में से किसी ने न तो इसका विरोध किया और न ही इस पत्रिका के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की। मां-बेटे ने न ही 1998 में इस मामले पर लेख लिखने वाले एजी नूरानी के खिलाफ कोई कदम उठाया और न ही संबंधित दस्तावेज 2002 में अपनी वेबसाइट पर डालने वाले सुब्रमण्यम स्वामी के खिलाफ कुछ किया। न ही उन्होंने मेरे या एक्सप्रेस के खिलाफ 2009 के अप्रैल में इन तथ्यों पर आधारित लेख छापने के लिए कोई कानूनी कार्रवाई की। जब 1992 में रूस में केजीबी से संबंधित खुलासे की खबर दि हिंदू और टाइम्स आफ इंडिया ने प्रकाशित की, उस वक्त भी किसी गांधी ने कोई शिकायत नहीं की। न ही किसी गांधी ने येवगेनिया अलबतस के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की जिन्होंने 1994 में केजीबी और राजीव गांधी के बीच पैसे के लेनदेन के बारे में लिखा। न ही इन लोगों ने 15 अगस्त, 2006 को ऐसा लेख लिखने वाले राजिंदर पुरी के खिलाफ कोई कदम उठाया। हालांकि, 2007 में सोनिया के कुछ वफादार लोगों ने उनकी प्रतिष्ठा बचाने के लिए अमेरिका में बड़े अनमने ढंग से एक मुकद्दमा जरूर दर्ज कराया था। ऐसा तब हुआ जब वहां के कुछ प्रवासी भारतीयों ने अलबतस के खुलासों के आधार पर पूरे पन्ने का विज्ञापन न्यूयार्क टाइम्स में छपवाया। वे सोनिया गांधी की सच्चाई को अमेरिका वालों के सामने रखना चाहते थे। अमेरिकी अदालत ने इस मुकद्दमे को तुरंत खारिज कर दिया क्योंकि सोनिया गांधी खुद अपने नाम से मुकद्दमा दर्ज कराने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। आश्चर्य की बात यह है कि इस मुकद्दमें में भी स्विस बैंक में 2.2 अरब डालर होने की बात को चुनौती नहीं दी गई थी।
अगर मान लिया जाए कि ये दोनों खुलासे आधारहीन हैं और गांधी परिवार ईमानदार है तो ऐसे में उनकी ओर से कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी? ईमानदार आदमी की प्रतिक्रिया वैसी ही होती है जैसी मोरारजी देसाई ने दी थी। जब पुलित्जर पुरस्कार विजेता खोजी पत्रकार सेमोर हेर्स ने अपनी किताब में यह आरोप लगाया कि भारतीय कैबिनेट में मोरारजी सीआईए एजेंट थे तो 87 साल के बूढ़े और रिटायर्ड मोरारजी देसाई ने न सिर्फ गुस्से का इजहार किया बल्कि एक मानहानि का मुकद्दमा भी दर्ज कराया। मोरारजी देसाई के मरने के पांच साल बाद अमेरिकन स्पेक्टेटर में रेल जेन आइजैक ने लिखा कि हेर्स चरित्र हनन करने में माहिर थे और हेनरी किसिंजर को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने मोरारजी को निशाना बना लिया। जब मोरारजी के मानहानि मुकद्दमे पर सुनवाई शुरू हुई तो 93 साल की उम्र वाले मोरारजी अमेरिका जाने में सक्षम नहीं थे और उनकी जगह पर किसिंजर ने जाकर हेर्स के दावों को खारिज किया। कहने का मतलब है कि अगर कोई ईमादार होता है तो अपनी उम्र का ख्याल न करते हुए खुद पर लगाए जा रहे आरोपों पर प्रतिक्रिया देता है। संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अब तक इस मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह तब जब वे पूरी तरह से सक्रिय हैं, न कि मोरारजी देसाई की तरह सेवानिवृत्त और बुजुर्ग। जब स्विस पत्रिका में यह मामला उजागर हुआ था तो उनकी उम्र महज 41 साल थी। अगर सोनिया और राहुल के बजाए इन दोनों खुलासों में भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी का नाम होता तो भारतीय मीडिया और सोनिया गांधी की सरकार उन्हें सलाखों के पीछे भेजने के लिए क्या नहीं करती।
20.80 लाख करोड़ रुपए की लूट
स्विस बैंक में गांधी परिवार के अरबों रुपए का मामला विदेशी गुमनाम खातों में जमा भारतीय पैसे को वापस लाने से जुड़ा हुआ है। भारत को छोड़कर दुनिया के सभी देशों ने स्विस बैंक और इसकी तरह अन्य बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी दिखाई है। पर भारत ने इस काम में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। आखिर ऐसा क्यों?
2009 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने यह कहा था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो विदेशों में जमा काले धन को वापस लाएंगे। विदेशों में भारत का 500 अरब डालर से लेकर 1400 अरब डालर के बीच काला धन जमा होने का अनुमान है। कांग्रेस ने इतनी रकम होने की बात को शुरुआत में नकार दिया था। पर जब यह मामला तूल पकड़ने लगा तो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने भी यह कहा कि वे इस काले धन को वापस लाएंगे। वैश्विक स्तर पर काले धन के मसले पर काम करने वाली संस्था ग्लोबल फायनैंशियल इंटीग्रिटी (जीएफआई) ने भारत में हुई लूट के बारे में कहा है, ”1948 से लेकर 2008 के बीच भारत ने 213 अरब डालर काले धन के रूप में गंवाए हैं। यह कर चोरी, भ्रष्टाचार, घूसखोरी और आपराधिक गतिविधियों के जरिए किया गया है।” ऐसे में क्या किसी को यह बताने में बहुत मुश्किल होगी कि आखिर कैसे सोनिया के परिवार के गुप्त खाते में 2.2 अरब डॉलर आए? जीएफआई के आंकड़े में 2जी और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के नाम पर हुई लूट तो शामिल ही नहीं है। अब ऐसे में इस बात पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि सोनिया गांधी के गुप्त खाते की वजह से भारत का विदेशों में जमा काला धन वापस लाने की कोशिशों पर किस तरह का असर पड़ेगा?
लूटने वाले सुरक्षित
कुछ उदाहरणों से यह बात साफ हो जाएगी कि भारत सरकार किस तरह विदेशों में जमा भारत के काले धन को वापस लाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है। 2008 के फरवरी में जर्मनी के सरकारी अधिकारियों ने यह जानकारी जुटाई की लिशेंस्टीन बैंक में दुनिया के कई देशों के नागरिकों ने कितना काला धन जमा किया है। जर्मनी के वित्त मंत्री ने उस वक्त कहा कि अगर दुनिया की कोई और सरकार काला धन जमा करने वाले अपने नागरिकों का नाम जानना चाहती है तो वे उसे ये नाम दे देंगे। मीडिया में कुछ ऐसी खबरें आईं जिनमें कहा गया कि लिशेंस्टीन बैंक से जिन खाताधारियों के नाम मिले हैं उनमें 250 भारतीय भी हैं। जर्मनी के खुले प्रस्ताव के बावजूद संप्रग सरकार ने इन नामों को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। टाइम्स आफ इंडिया में भी उस समय एक खबर प्रकाशित हुई जिसमें बताया गया कि वित्त मंत्रालय और प्रधनमंत्री कार्यालय लिशेंस्टीन के खाताधारियों के नाम जानने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। इस बीच दबाव बढ़ने पर भारत सरकार ने नाम के लिए अनुरोध तो किया लेकिन खुले प्रस्ताव के बजाए जर्मनी के साथ हुए कर समझौते के तहत। आखिर दोनों में फर्क क्या है? फर्क यह है कि कर समझौते के तहत मिलने वाले नामों को गोपनीय रखा जाता है लेकिन खुले प्रस्ताव के तहत मिलने वाले नाम को सार्वजनिक किया जा सकता है। इससे साफ हो जाता है कि सरकार वैसे लोगों का नाम नहीं उजागर करना चाहती है जिन्होंने काला धन विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है।
दूसरा सनसनीखेज मामला है हसन अली का। पुणे के इस कारोबारी के बारे में यह पाया गया कि वह 1.5 लाख करोड़ रुपए के स्विस खाते का संचालन कर रहा था। आयकर विभाग ने उस पर भारत का पैसा गलत ढंग से विदेशी खाते में रखने के लिए 71,848 करोड़ रुपए का कर लगाया। इस मामले में जानकारी हासिल करने के लिए स्विस सरकार को जो अनुरोध भेजा गया उसे इस तरह से तैयार किया गया कि सूचनाएं नहीं मिल सकें। हसन अली के साथ कई बड़े नामों के जुड़े होने की बात की जा रही है। सरकार आखिर क्यों नहीं इस मामले की गहराई से जांच करना चाहती है। हसन अली जैसे लोग ही भारत के भ्रष्ट लोगों का पैसा विदेशों में हवाला के जरिए पहुंचाते हैं। अगर हसन अली से जुड़ी सच्चाई सामने आ जाती है तो कई भ्रष्ट लोग नंगे हो जाएंगे। हमें यह भी समझना होगा कि सोनिया गांधी के अरबों डालर स्विस बैंक में होते हुए भारत के 462 अरब डालर की लूट की स्वतंत्र जांच नहीं हो सकती। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने चुनाव लड़ते वक्त जो हलफनामा दिया था उसके मुताबिक दोनों की संयुक्त संपत्ति सिर्फ 363 लाख रुपए है। सोनिया के पास कोई कार नहीं है। 19 नवंबर 2010 को सोनिया ने कहा कि भ्रष्टाचार और लोभ भारत में बढ़ रहा है। 19 दिसंबर 2010 को राहुल गांधी ने कहा कि भ्रष्ट लोगों को कठोर सजा दी जानी चाहिए। आमीन!
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