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यह तथ्य सर्वविदित है कि मानव जीवन पूर्ण रूप से पृथ्वी पर ही अवलम्बित है। पृथ्वी केवल रहने के लिए स्थान प्रदान नहीं करती अपितु मानव के जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति भी पृथ्वी से ही होती है। अन्न, जल, वायु, प्रकाश के अतिरिक्त जीवनोपयोगी हर वस्तु किसी न किसी रूप में पृथ्वी से ही प्राप्त होती है। सम्भवत: इसीलिए पृथ्वी को 'रत्नगर्भा' भी कहा गया है। मानव जीवन की प्रारम्भ से ही हर आवश्यकता की वस्तु पृथ्वी से निर्बाध रूप से प्राप्त होती है परन्तु कुछ वर्षों से यह पूर्ति अवरुद्ध हो रही है। न केवल जीवनोपयोगी वस्तुएं कम हो रही हैं, अपितु उनमें दोष निर्माण होने के कारण वे मानव जीवन के लिए घातक सिद्ध होती जा रही हैं। विश्व के सभी चिंतक हमारी रत्नगर्भा पृथ्वी में उत्पन्न हुए इस असंतुलन के कारण मानव जीवन के अस्तित्व के लिये एक खतरा देख रहे हैं और इन खतरों से बचने के उपाय खोजने के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। जिन खतरों से मानवता को जूझना पड़ रहा है, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं - 1. वैश्विक ताप GLOBAL WARMING - क्योटो से लेकर कोपनहेगन तक इस समस्या पर गम्भीर चर्चा होती रही है। पिछले 200 सालों के सबसे गर्म 20 दिनों में से 19 दिन पिछले तीस सालों में आये हैं। गर्मी के मौसम की कालावधि व तीक्ष्णता बढ़ी है। इसके परिणामस्वरूप हिमखण्ड (ग्लेशियर) पिघल रहे हैं, सदानीरा नदियां बरसाती नाला बन गयी हैं। जहां बर्फ तेजी से पिघलने के कारण बाढ़ का प्रकोप बढ़ रहा है वहीं समुद्र भी फैल रहा है। ऐसा अनुमान है कि आने वाले 30 सालों में कई तटीय शहर समुद्र में समा जाएंगे और 25 करोड़ व्यक्ति बेघरबार हो जाएंगे। बफर्प्तीले व चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ती जा रही है तथा पृथ्वी के सुरक्षा चक्र (ओजोन परत) में छेद बढऩे के कारण मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है।
2. जल संकट - पृथ्वी से प्राप्त होने वाले शुद्ध पेयजल के अभाव का सामना अब सम्पूर्ण विश्व कर रहा है। इस समय विश्व के एक तिहाई देशों में पेयजल की कमी है। एक अध्ययन के अनुसार सन् 2025 तक दो तिहाई देश इस संकट का सामना कर रहे होंगे। वैश्विक स्तर से लेकर वैयक्तिक स्तर तक पेयजल के अभाव के कारण विभिन्न प्रकार के तनाव दिखाई दे रहे हैं। इसीलिए कुछ विद्वानों का कहना है कि तृतीय विश्वयुद्ध जल के कारण हो सकता है।
अत्यधिक दोहन के कारण जमीन का पानी औसतन प्रतिवर्ष 3 फुट नीचे जा रहा है। औद्योगिक कचरे का बहाव, रासायनिक खेती के बढ़ते चलन व कुछ अन्य कारणों से उपलब्ध जल भी विषैला होता जा रहा है।
3. खाद्यान्न की कमी- पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी मानवों को आज आवश्यक मात्रा में खाद्यान्न नहीं मिल पा रहा है। कुल आवश्यकता के केवल 60 प्रतिशत की पूर्ति ही हो पा रही है। विश्व में लगभग एक करोड़ व्यक्ति प्रतिवर्ष भूख के कारण मरते हैं। कृषि योग्य धरती की कमी होने के कारण यह संकट और विकराल रूप धारण कर सकता है।
4. वायु प्रदूषण - जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक शुद्ध वायु आज बहुत कम स्थानों पर उपलब्ध हो रही है। जीवन की आधार वायु में कई विषैले तत्वों की मात्रा बढ़ती जा रही है। इसके कारण कई प्रकार की बीमारियां बढ़ रही हैं। तेजाबी बारिश की बढ़ती हुई घटनाएं भी इसी का दुष्परिणाम हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिवर्ष 30 लाख व्यक्ति वायु प्रदूषण के कारण मरते हैं।
5. ऊर्जा के स्त्रोतों का क्षय- आज भी आवश्यकतानुसार ऊर्जा नहीं मिल रही है। सन् 2030 में हमें 60 प्रतिशत ज्यादा ऊर्जा चाहिये जबकि विश्व में तेल का भण्डार केवल 40 साल का है। वैकल्पिक ऊर्जा के स्त्रोत जैसे कोयला, जल आदि भी खत्म होते जा रहे हैं।
उपरोक्त संकटों के अलावा कई अन्य प्रकार के खतरे मानवता के सामने मुंह बाये खड़े हैं। जीवों की लगभग 1200 प्रजातियां आज समाप्ति की कगार पर हैं जो प्रकृति का संतुलन बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। रेगिस्तान बढ़ रहे हैं। इस समय पृथ्वी का एक तिहाई हिस्सा बंजर बन चुकी है। कई खनिजों के भण्डार भी खत्म होते जा रहे हैं।
निर्धारित प्रलय कब आएगी कोई नहीं जानता। परन्तु कैसे आएगी इसका अनुभव आज किया जा रहा है। कई चिंतकों ने इस अवश्यम्भावी व सन्निकट विनाश के यह कारण बताये हैं- असंतुलित औद्योगिकीकरण, जंगलों का अंधाधुंध कटाव कर शहरों की बस्तियों का निर्माण, वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या, तेल शोधन कारखाने, रासायनिक कारखानों की बढ़ती हुई संख्या तथा शहरों का कूड़ा-कचरा आदि। परन्तु ये सब सतही कारण हैं। ये मूल रोग के लक्ष्ण मात्र है। लाक्षणिक इलाज स्थायी रूप से उपयोगी नहीं हो सकता। इस समस्या की जड़ को पहचानने की कोशिश आंशिक रूप से कोपेनहेगन में की गई है परन्तु वहां भी कारणों पर गहन चिंतन करने के स्थान पर एक-दूसरे पर दोष थोपने की कसरत ज्यादा की गई।
वास्तव में इस भयावह स्वरूप का मूल कारण पश्चिम का भोगवादी चिंतन है। वे पृथ्वी को भोग्या मानते हैं और असीमित उपयोग की क्षमता को अपना सामर्थ्य। भौतिकतावाद की अंधाधुंध दौड़ के कारण पृथ्वी व उसके साधनों का निर्मम शोषण किया जा रहा है। प्रकृति द्वारा निर्मित प्राकृतिक संसाधनों के अद्भुत संतुलन को समाप्त किया जा रहा है। प्रकृति के प्रति अपने दायित्वों के स्थान पर अपनी शक्ति के अनुसार अधिकार जमाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसीलिए सभी सम्मेलनों की विफलता का मुख्य कारण यही रहा है कि सामर्थ्यशाली देश अपने अंधाधुंध विकास के कारण उपजी समस्याओं के निदान का दायित्व कमजोर देशों पर डालने की कोशिश करते रहे हैं।
इन विकट परिस्थितियों के मूल में पश्चिम के भोगवादी चिंतन की ओर संकेत करते हुए हिन्दू दर्शन के माध्यम से इस समस्या का समाधान खोजने की चर्चा कोपेनहेगन में हुई थी, चाहे वह आंशिक रूप से ही हो पायी। आज विश्व के प्रमुख चिंतक यह स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि यदि हम पृथ्वी को बचाना चाहते हैं तो उसका मार्ग केवल हिन्दू चिंतन है। इसीलिए स्वामी त्रिपुरारी जी ने कहा कि ष्हमारा आज का पर्यावरण संकट वास्तव में एक आध्यात्मिक संकट है। हिन्दू जीवन दृष्टि के अनुसार जिससे भी हमें कुछ प्राप्त होता है उसे हम देवता मानते हैं और देवता मानते ही हमारी दृष्टि में उसके प्रति सम्मान भाव का निर्माण हो जाता है। पृथ्वी तो हमारे जीवन का आधार है। हमें सब कुछ इसी पृथ्वी से प्राप्त होता है इसीलिये इसे भोगने का अधिकार प्राप्त करने की जगह इसके संरक्षण का दायित्व हमें स्वीकार करना पड़ेगा। पृथ्वी के सम्बंध में हिन्दू जीवन दृष्टि हमारे धर्म ग्रंथों से स्पष्ट होती है-
1. माता भूमिरू पुत्रोऽहं पृथिव्या:। (अथर्ववेद)
2. द्योवर्रू पिता पृथवी माता। (ऋग्वेद)
3. मे माता पृथिवी महीयं। (ऋग्वेद)
इन धर्म ग्रंथों में प्रदान की गई दृष्टि को हिन्दू ने अपनी जीवन-दृष्टि के रूप में अपनाया है। इसलिए वह पृथ्वी को अपनी माता कहकर उसके प्रति अपने दायित्व-बोध को स्वीकार करता है न कि उसको भोग्या मानकर उसके असीमित शोषण में आनंद लेने के अधिकार को। इस दृष्टि की विशेषता माता तथा भोग्या नारी के अंतर के आधार पर समझी जा सकता है। इसलिए हिन्दू को अपना जीवनयापन करने के लिये धरती पर अगर अपने पैर भी रखने पड़ते हैं तो वह प्रात:काल उठते ही इसके लिए क्षमा मांगता है।
समुद्रवसने देवी पर्वतस्तन मण्डले।
विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।
मां कहते ही दृष्टि बदल जाती है। जिस प्रकार मां अपने बालक की सब आवश्यकताओं को पूरा करने का सामर्थ्य रखती है उसी प्रकार पृथ्वी भी अपनी संतानों की सब आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, परन्तु वासनाओं को नहीं। इसी मां-पुत्र के सम्बंध के कारण निर्मित हर हिन्दू की जीवन दृष्टि में पृथ्वी के संकट के समाधान का एकमात्र मार्ग दिखाई देता है। पृथ्वी के साथ केवल मां-पुत्र का सम्बंध ही महत्वपूर्ण नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि के चर-अचर के साथ एकात्मभाव का निर्माण इसी सम्बंध की परिप्तिणति है।
ईशावास्यमिदं सर्वं यधत्कच जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुंजीथारू मा गृधरू कस्यस्विधनम्। (ईशोपनिषद्)
जब हिन्दू यह कहता है कि हम जो कुछ भी देखते हैं सबमें ईश्वर व्याप्त है तो सृष्टि की सब वस्तुओं के असीमित उपभोग का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसका स्वाभाविक परिणाम होगा कि जितना आपके विकास के लिये आवश्यक हो उतना ही उपयोग करो। 'त्यागपूर्ण उपभोग' की यह अवधारणा हिंदू जीवन-दृष्टि की विशिष्टता है। यदि सबमें ईश्वर व्याप्त है तो उसमें छोटे-बड़े की भावना नहीं होगी। किसी भी वस्तु को असीम रूप से भोगने का अधिकार प्राप्त नहीं होगा। प्रकृति के प्रति अधिकार का स्थान दायित्व ले लेगा और लक्ष्य उपभोग का नहीं संरक्षण का होगा। सर्वभूत हिते रत: मानव को प्रत्येक के हित की चिंता होगी। इसी को गांधी जी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धात कहा है। यही हिन्दू जीवन दर्शन है जो विनाश की ओर जा रही सृष्टि को बचाने का एकमात्र मार्ग है।
निश्चित रूप से भारतीय ज्ञान और दर्शन तो सारी सभ्यता के लिए पथ प्रदर्शक है किंतु आज तक किसी ने भी इस दृष्टि से सोचा ही नहीं।
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