पर्वों, उत्सवों तथा मेलों की राष्ट्रीय जागरण में भी अहम भूमिका रही है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के आह्वान पर महाराष्ट्र में 1893 ई. में गणपति महोत्सव को व्यापक रूप दिया गया था। पुणे, नासिक तथा अन्य नगरों में जब गणपति बप्पा मोरया, पुढच्या वर्षी लवकरया (अर्थात् हे गणेश बाबा, आप जल्दी ही अगले वर्ष फिर से आइये!) के उद्घोष कर जब गणेशजी की मूर्तियों की शोभायात्रा निकाली जाती तो युवा शक्ति में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार होने लगता था।
लंदन के टाइम्स पत्र में तब प्रकाशित सर वेलन्टाइन चिरोल नामक गई संवाददाता की रपट में आशंका व्यक्त की गई थी कि तिलक जी ने धार्मिक समारोह की आड़ में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की अग्नि भडक़ाने के लिए यह नया अभियान शुरू किया है।
सन् 1896 में रायगढ़ दुर्ग में शिवाजी महोत्सव के नाम से विख्यात हिन्दू संगम मेले का आयोजन किया गया। अंग्रेजों ने शिवाजी महोत्सव को राष्ट्रद्रोह बताकर उसका विरोध शुरू किया। कुछ भारतीयों ने भी इस आयोजन से हिन्दू-मुस्लिम के बीच विद्वेष पैदा होने की शंका व्यक्त की। पं. मदनमोहन मालवीय तथा सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने रायगढ़ के ऐतिहासिक दुर्ग को भव्य रूप दिये जाने की मांग की। दुर्ग में लगे चार दिनों के इस भव्य व विशाल मेले में भाग लेकर लाखों लोगों में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ।
22 जून 1897 को पुणे में रानी विक्टोरिया के राजतिलक समारोह से लौटते समय चाफेकर बन्धुओं ने रैण्ड तथा लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की हत्या कर दी। इन हत्याओं का दोष तिलक जी पर लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। रपट में लिखा गया कि गणेशोत्सव व शिवाजी महोत्सव की आड़ में युवकों में हिंसा की भावना पनपाई गई थी।
तब 17 वर्षीय विनायक दामोदर सावरकर ने चाफेकर और रानडे जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान से प्रेरित होकर 1 जनवरी सन् 1900 को नासिक में मित्र मेला नामक संस्था की स्थापना की थी। राष्ट्रभक्त समूह के अनेक तेजस्वी युवक इस समारोह में शामिल हुए थे। मित्र मेला के मंच से सावरकर जी ने घोषणा की कि स्वदेश की सर्वांगीण उन्नति के लिए हम प्राणोत्सर्ग करने में भी नहीं हिचकिचाएंगे। मित्र मेला के तत्वावधान में ही नासिक में मेले के रूप में शिवाजी उत्सव का आयोजन कर आह्वान किया गया-
परतंत्र मातृभूमि को शिवाजी के दिखाए रास्ते से स्वतंत्र कराने के लिए हम सबको संघर्षरत रहना होगा। सावरकर जी के इस आह्वान से नासिक के अंग्रेज अधिकारी एक बार तो कांप उठे थे। मित्र मेला के तत्वावधान में विशाल मेले के रूप में गणेश महोत्सव मनाया गया।
इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया की 1902 में मृत्यु हुई तो अंग्रेजों और उनके चाटुकारों की तरफ से पूरे हिन्दुस्थान में शोक सभाओं का आयोजन किया गया। साथियों ने सावरकर जी को सुझाव दिया कि मृत्यु के बाद शत्रुता का भाव त्यागकर मित्र मेला की ओर से भी एक शोकसभा की जानी चाहिए। सावरकर जी ने निर्भीकता से कहा, वह अंग्रेजों की अर्थात हमारे शत्रु की रानी थीं। हमारे राष्ट्र को लूटने वाले डकैतों की सरदार (मुखिया) थीं। इसके लिए हम शोक प्रकट कर राजनिष्ठा का ढोंग क्यों करें। सावरकर द्वारा स्थापित मित्र मेला की गतिविधियों ने ब्रिटिश शासन को एकबार तो हिला डाला था।
रक्षा बंधन महोत्सव का चमत्कार महाराष्ट्र के बाद बंगाल में भी व्रत-महोत्सवों व गंगा मेलों का राष्ट्रीय जागरण के लिए उपयोग किया गया। बंगाल में सन् 1906 में काली माता की प्रेरणा से दुर्गा महोत्सव शुरू किया गया। युगांतर पत्र ने लिखा- काली के उपासको, तुम्हारे धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में है। अहिंसा एवं शांति की मृग मरीचिका में न फंसकर इस बार अरिमुंडों से माता का अभिषेक करने का संकल्प लो। इस लेख के छपते ही कोहराम मच गया था। कोलकाता में व्रती समिति तथा वंदेमारतम् सम्प्रदाय का गठन कर राष्ट्रीय भाव जगाया गया।
बंगाल में हिन्दू मेला की स्थापना की गई। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के आह्वान पर 26 अक्तूबर 1905 को बंग-भंग के विरोध में रक्षाबंधन महोत्सव मनाया गया। राष्ट्रभक्तों की टोलियां गंगातट पर लगने वाले विशाल मेले में पहुंचीं तथा मेले को वंदेमातरम् के उद्घोषों से गुंजा दिया। गंगा स्नान के बाद केसरिया धागों की राखियां बांधकर विदेशी-विधर्मी अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने के संकल्प के महोत्सव ने पूरे बंगाल में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का वातावरण बनाने में सफलता पाई। जगह-जगह विदेशी वस्त्रों की होली जली। बंगाल में कई स्थानों पर तो चर्मकार बंधुओं ने अंग्रेजी जूतों की मरम्मत करने से इनकार कर दिया, रसोइयों ने मांस न पकाने का संकल्प लिया, धोबियों ने विदेशी वस्त्र-धोने से इनकार कर दिया। इस प्रकार व्रत-महोत्सवों व मेलों का राष्ट्रीय जागरण में अनूठा योगदान रहा है।
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