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नया धमाका

11/11/2010

मैदान में जीत कर टेबल पर हारी 1971 की जंग!


तीन दिसंबर, 1971 की सर्द शाम। पंजाब के सीमांत जिला फिरोजपुर के अन्तर्गत आती अंतरराष्ट्रीय सीमा चौकी जे.सी.पी (ज्वायंट चैक पोस्ट) हुसैनी वाला। परंपरागत रिट्रीट (झंडा उतारने की रस्म) हो रही थी जिसमें भारत की तरफ से सीमा सुरक्षा बल व पाकिस्तान की तरफ से सतलुज पाक रेंजर्स संयुक्त रुप से अपने-अपने देश का झंडा उतार रहे थे। ...अचानक पाकिस्तान ने हमला कर दिया। हालांकि अंतर राष्ट्रीय कानून के अनुसार रिट्रीट के समय हमला नहीं किया जाना चाहिए। पर पाकिस्तानी सेना टैंक लेकर जे.सी.पी. तक आ पहुंची। गोलियां चलने लगीं। रिट्रीट देख रहे दर्शकों में भगदड़ मच गई। झंडा उतरने की रस्म चूंकि हो रही थी इसलिए सीमा सुरक्षा बल के जवान तिरंगा उतारने की रस्म जारी रखे हुऐ थे। तब तिरंगा उतार कर सही सलामत वापिस लाने के लिए सीमा सुरक्षा बल के तीन जवानों ने प्राणों की आहूति दी। झंडा वापिस लेकर बेस कैंप तक पहुंचे एक जवान की सांसें उखड़ रहीं थी। उसने अधिकारी के हाथों में तिरंगा दिया,अपने लहू से भीगा हुआ तिरंगा। चेहरे पर संतोष के भाव आए। आंखें बंद की और...उसकी गर्दन लुढक़ गई। वतन का वो परवाना मानों हाथों में तिरंगा लिए पूरी शान से स्वर्गपुरी में प्रवेश कर गया। यह हादसा 1971 में पाकिस्तान द्वारा भारत पर किए गए हमले का एक हिस्सा था, पंजाब की सीमाओं पर खोले गए फ्रंट का पहला दृष्य। इसके ठीक  बारह दिन बाद... ढाका में पूर्वी  पाकिस्तान की फौज के कमांडर लैफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी ने भारतीय सेना प्रमुख को लड़ाई बंद करने की अपील की। भारतीय सेना प्रमुख जनरल मानेकशा का जवाब था,'कल सवेरे नौ बजे तक हथियार छोड़ दे पाकिस्तानी सेना। और भारत की सनातन नेकनीयत की उदाहरण पेश करते हुए जनरल मानेकशा ने उसी दिन शाम पांच बजे ढाका पर की जा रही हवाई कार्रवाई को रोक दिया। तेहरवां  दिन...16 दिसंबर की हल्की धूप  वाली दोपहर को पाकिस्तानी सेना के  उसी अधिकारी नियाज़ी ने अपनी कमान  के 95 हजार सैनिकों समेत भारतीय सेना की पूर्वी कमान के प्रमुख लै. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया था। यह संयोग था कि बचपन के दो दोस्त श्री अरोड़ा व नियाज़ी बड़ी विचित्र हालात में आमने सामने थे। जबकि हकीकतन नियाज़ी उस पाकिस्तान के तानाशाह सैनिक शासन में ज़ोन बी के मार्शल ला प्रशासक थे जिसकी जिद व अहंकार ने भारत पर यह युद्ध थोपा था। जिस फौज़ी शासन ने धक्कड़शाही अंदाज से हुसैनीवाला में रिट्रीट के मैके पर भी टैंकों से हमला कर कायरता का प्रमाण दिया था। उसी शासन के  95 हजार सैनिकों ने जब हथियार फेंके  थे तब उनकी नमोशी का यह आलम था कि बड़े अधिकारियों ने अपने हथियारों के अलावा अपनी छाती व कंधों पर लगे बैज व मैडल तक उतार कर ढेर कर दिए थे। जो भाषा पाकिस्तान के सैनिकों के आत्मसमर्पण को समय लिखी गई जिस पर लै. जनरल अरोड़ा व नियाज़ी के हस्ताक्षर हुए उस एतिहासिक दस्तावेज को पाकिस्तान के शासक को जरुर पढऩा चाहिए। पाकिस्तान  की पूर्वी कमान इस बात पर सहमत है कि समस्त पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाएं (जिनमें जल, थल, वायू व अर्धसैनिक बल भी शामिल हैं) भारत एवं बांग्लादेश सेना के प्रमुख लै. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दे...... लै. जनरल अरोड़ा का फैसला अंतिम होगा.....समर्पण का अर्थ समर्पण ही है जिसकी और कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। हमारे बहादुर जवानों की शहादतों के सदके लड़ी व जीती गई इस जंग का पटाक्षेप 3 जुलाई 1972 में शिमला में हुआ जब भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी व पाकिस्तान प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो में इस जंग का समझौता हुआ जिसे शिमला समझौते के तहत याद किया जाता है। इस समझौते के बाद पाकिस्तान की तरफ से आत्मसमर्पण करने वाले 90,368 युद्धबंदियों की रिहाई हुई। जिनमें पाकिस्तानी थल सेना के 54,154 सैनिक, जल सेना के 1381, वायूसेना के 833, अर्धसैनिक बल व सिविल पुलिस के 22,000 व 12,000 सिविल नागरिक शामिल थे। पर उस युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना के हाथ लगे हमारे कई वीर सैनिक आज तक पाकिस्तानी जेलों में सड़ रहे बताए जाते हैं जिनके प्रमाण देने के बाद भी पाकिस्तान के शासक हमेशा इन्कार में ही सिर हिला दिया करते रहे हैं। क्या शिमला समझौते में लिखे गए सभी बिंदुओं पर अमल हो सका है? फिर कश्मीर, पंजाब में आतंकवाद में पाकिस्तान की जो भूमिका रही, कारगिल जैसा दुस्साहस दिखाया गया उस पाकिस्तान के साथ इस प्रकार के समझौते को याद करते हुए आज के दिन जहां अपने वीर सैनिकों की कुर्बानी को याद करके आंखें नम हो जाती हैं वहीं मैदान में जीती गई इस जंग को टेबल पर बैठ कर हार देने का इतिहास भी हमें खून का घूंट पी कर याद रखना पड़ता है। काश देश में कुछ ऐसी व्यवस्था होती कि हर राजनेता को अपनी आधी संतानें सेना में भर्ती करवाने के लिए बाधित किया जाता, फिर उन्हें पता चलता कि गोली कितनी भयानक होती है और उससे मिले जख्मों से कितनी पीड़ा गोली खाने वाले को होती है व कितनी गोली खाने वाले के परिवार को। फिर शायद राजनेता इस प्रकार के फैसले करके वतन के लिए शहीद होने वालों की शहादत को महज़ एक घटना मान कर समझौते नहीं करते। रही पाकिस्तान की बात, तो आज जिस  प्रकार के हालात वहां पर चल रहे हैं उसके चलते उस मुल्क के  अवाम पर तो रहम ही किया जा सकता है। भारतीय विजय दिवस पर पाकिस्तान के आवाम को भी ये बात याद रखनी चाहिए कि जिस मुल्क के बशिंदे कोरिया से आई चायपत्ती से चाय पीते हों, चार सौ रुपए किलो अदरक खरीदते हों, पांच हजार में जिन्हें साइकिल की सवारी नसीब होती हो, सोलह रुपए की अखबार व पिच्चासी रुपए में पत्रिका खरीदते हों, सोचना उन्हें चाहिए कि भारत से दोस्ती का कितना फायदा हो सकता है।

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