लोकतंत्र में यदि तंत्र की भाषा लोक से भिन्न हो जाए तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है. संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली ‘सिविल सेवा परीक्षा’ में भाषाई आधार पर भेदभाव के जो आरोप सामने आ रहे हैं उसने अंग्रेज़ी मानसिकता की वर्चस्ववादी नीति और भारतीय भाषाओँ की दुर्दशा पर एक बार पुनः विचार करने की चेतावनी दी है. लोक की सेवा किस भाषा में की जाए यदि यह बताने के लिए इस देश के युवाओं को आमरण अनशन पर बैठना पड़े तो देश के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? पिछले दिनों दिल्ली, इलाहाबाद, बनारस, गुवाहाटी, तमिलनाडू, आदि राज्यों में छात्र जब अपनी भाषा में रोज़गार के हक़ के लिए सड़कों पर प्रदर्शन करते नज़र आये तो व्यापक बहस छिड़ी कि भारतीय संविधान में उल्लिखित भाषाओँ की असल स्थिति आखिर है क्या? क्या प्रशासन की भाषा अंग्रेज़ी होना अनिवार्य है? सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओँ की अनदेखी पर जिस तरह देश भर में प्रदर्शन हुए उसने अंग्रेज़ी की अनिवार्यता से भारतीय भाषाओं पर उपजे संकट को चंद रोज़ में उजागर कर दिया.
डॉ दौलत सिंह कोठारी की अनुशंसाओं के आधार पर वर्ष 1979 में सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं में भी उत्त र देने की छूट दी गई थी। लेकिन 2011 से लागू नई परीक्षा पद्धति के बाद भारतीय भाषाएँ अंग्रेज़ी के वर्चस्व से हाशिये पर आ गई. नई प्रणाली में प्रारंभिक परीक्षा के अंतर्गत एक पेपर सामान्य अध्ययन और दूसरा सिविल सर्विसिज़ एप्टिट्यूड टेस्ट यानी सी-सैट का होता है. हिंदी माध्यम छात्रों के लिए यही दूसरा पेपर परेशानी का सबब बना हुआ है. 2011 से पहले हिंदी सहित भारतीय भाषाओँ में प्रारंभिक परीक्षा पास कर मुख्य परीक्षा लिखने वाले छात्रों की संख्या जहां लगभग पचास प्रतिशत हुआ करती थी वह सी सैट आने के बाद घटकर मात्र पन्द्रह से बीस प्रतिशत रह गई है. यदि अंतिम चयनित अभ्यर्थियों की संख्या देखें तो 2011 से पूर्व अंतिम चयनित सूची में भारतीय भाषाओँ के उम्मीदवारों की हिस्सेदारी पंद्रह से बीस फ़ीसदी हुआ करती थी जो अब केवल 2 से 3 प्रतिशत ही बची है. इस वर्ष के घोषित परिणामों में 1122 छात्रों में हिंदी माध्यम के केवल 26 और अन्य भारतीय भाषाओँ को मिला लिया जाए तो भी यह संख्या सौ का आँकड़ा नहीं छूती. यदि पिछले तीन वर्षों के परिणामों को तीनों चरणों में अलग अलग देखा जाए तो भारतीय भाषाओँ से आए उम्मीदवारों की चयन संख्या में अविश्वसनीय ह्रास देखने को मिलता है. यह आंकड़े प्रमाणित करते हैं कि नई परीक्षा पद्धति भारतीय भाषाओँ पर भारी पड़ रही है.
अब आइये ज़रा इस नई प्रणाली के दूसरे पेपर ‘सी-सैट’ पर नज़र डालते हैं जिससे यह स्थिति और साफ़ हो जाएगी. इस दूसरे पेपर में परिच्छेद यानी कॉम्प्रिहेंशन, निर्णयन क्षमता, समस्या समाधान, रीज़निंग, गणित आदि के 80 सवाल होते हैं और प्रत्येक प्रश्न ढाई अंक का होता है. छात्रों की परेशानी मूल रूप से इस प्रश्नपत्र में पूछे जाने वाले गद्यांश के प्रश्नों से है जिनकी संख्या चालीस से अधिक होती है. इन चालीस-बयालीस प्रश्नों में आठ से नौ अंग्रेज़ी के अनिवार्य प्रश्न हैं जिनका अंकभार बीस से बाईस होता है. वहीँ गद्यांश के बाक़ी बचे प्रश्न मूल रूप से अंग्रेज़ी में बनाये जाते हैं जिनका अनुवाद हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए किया जाता है. यदि यह अनुवाद सरल हिंदी में होता तो किसी को आपत्ति नहीं होती लेकिन यह अनुवाद इतना जटिल और संस्कृतनिष्ठ शब्दों से भरा होता है कि इसे पढ़ना और समझना किसी अन्य लोक के प्राणी होने का आभास दिलाता है. नमूने के तौर पर यह प्रश्न देखिये- ‘संगठनात्मक प्रबंधन और प्रतिकार के माध्यम से कर्मचारियों द्वारा ऊपरिमुखी प्रभाव प्रयास के माध्यम से अनुसरण किए जा रहे मनोवैज्ञानिक संविदा की क्या प्रकृति होती है?’
दावे के साथ कह सकते है कि हिंदी के विद्वान भी जब ऐसी अनूदित हिंदी पढेंगे तो कई बार पढ़ना पर भी इस अबूझ दुनिया को समझ सकेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं. फिर कैसे हिंदी माध्यम का छात्र दो घंटे के निश्चित समय में ऐसे ‘दिव्य’ अनूदित गद्यांश पढ़कर इन प्रश्नों संग अन्य प्रश्नों के भी उत्तर दे सकता है? चूंकि यह गंद्यांश मूल रूप से अंग्रेज़ी में होते हैं इसलिए किसी भी अंग्रेज़ी भाषी छात्र के लिए इन्हें समझना आसान होता है. यहाँ तक कि उत्तर भी अंग्रेज़ी प्रश्नों के अनुरूप ही जांचे जाते है. अब फर्ज़ कीजिए यदि हिंदी में अनुवाद ग़लत हो जाए और परीक्षार्थी उसी अनुवाद के अनुसार उत्तर दे तो न केवल उसका उत्तर ग़लत माना जायेगा बल्कि ऋणात्मक अंक कटौती भी होगी. इतना बड़ा खेल ग़ैर अंग्रेज़ी भाषियों के साथ ही क्यों? क्या यूपीएससी की नज़र में अंग्रेज़ी छोड़ किसी भाषा में ऐसा कुछ नहीं लिखा जाता जिसे मूलरूप से प्रश्नपत्र में शामिल किया जा सके? क्या भारतीय भाषाओँ का अस्तित्व केवल अनुवाद पर ही टिका है? और यदि अनुवाद होता भी है तो इतना तकनीकी और घोर अनुवाद ही क्यों जिसमें न्यूक्लीयर प्लांट को नाभिकीय पौधा लिखा जाए. आयोग की सुषुप्तावस्था का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि पिछले तीन वर्षों से ऐसे अबूझ अनुवादों से लैस प्रश्नपत्रों में उसे कुछ ग़लत नज़र नहीं आया.
दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है अंग्रेज़ी की अनिवार्यता. इस पेपर के पाठ्यक्रम में कहा गया कि 8 से 9 प्रश्न यानी बीस से बाईस अंकों के प्रश्न दसवीं तक की अंग्रेज़ी के होंगे. सवाल है कि यह कैसे तय होगा और क्या प्रमाण है कि दिया गया परिच्छेद दसवीं तक की अंग्रेज़ी का ही है? और यदि है तो क्या अंग्रेज़ी माध्यम के लिए यह बीस अंक मुफ़्त में बांटने जैसा नहीं? वहीँ ग्रामीण परिवेश का छात्र इन अंकों के लिए संघर्ष करता है. ग़ैर अंग्रेज़ी भाषी छात्र इसके लिए संघर्ष करने को तैयार भी हैं लेकिन यह संघर्ष एक तरफ़ा ही क्यों? क्या सिविल सेवक बनने के लिए केवल अंग्रेज़ी भाषा का परिचय देना अनिवार्य है? यदि नहीं तो अंग्रेज़ी की तरह अंग्रेज़ी भाषियों के लिए क्यों हिंदी या अन्य भारतीय भाषा की परिचयात्मक जांच अनिवार्य प्रश्नों के साथ नहीं की जाती? छात्रों का विरोध अंग्रेज़ी भाषा से कभी नहीं रहा. यदि ऐसा होता तो मुख्य परीक्षा में अंग्रेज़ी के तीन सौ नंबर के अनिवार्य पेपर को हटाने के लिए भी आन्दोलन हुए होते जिसमें अनुत्तीर्ण होने पर मुख्य परीक्षा की कॉपियां की जांच तक नहीं होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसका कारण इसका क्वालिफाइंग होना है और यह अनिवार्यता अंग्रेज़ी, ग़ैर अंग्रेज़ी सभी माध्यम के छात्रों के लिए है कि उन्हें अंग्रेज़ी संग किसी एक भारतीय भाषा में क्वालीफाई करना होगा. प्रारंभिक परीक्षा में इसके विरोध का मुख्य आधार मेरिट में इसके नम्बर जुड़ना है, जो एक बड़ा अंतर पैदा करता है. और फिर अभ्यर्थियों को जब भाषा का परिचय मुख्य परीक्षा में देना ही है तो प्रारंभिक चरण में इसकी अनिवार्यता क्यों?
यह बड़ी आश्चर्यजनक स्थिति है कि संघ लोक सेवा आयोग जैसी संवैधानिक संस्था ग्लोबल बनने के लिए अपनी भाषाओँ से समझौता करने को तैयार है. यह सही है कि वर्तमान दौर में अंग्रेज़ी का ज्ञान होना आवश्यक है लेकिन यूपीएससी की वर्तमान प्रणाली कामचलाऊ जानकारी की जगह अंग्रेज़ी में सिद्धस्त होने की मांग पर ज़ोर दे रही है जिससे भारतीय भाषाओँ में रोज़गार पाना कठिन हो चला है.
यह बड़ी आश्चर्यजनक स्थिति है कि संघ लोक सेवा आयोग जैसी संवैधानिक संस्था ग्लोबल बनने के लिए अपनी भाषाओँ से समझौता करने को तैयार है. यह सही है कि वर्तमान दौर में अंग्रेज़ी का ज्ञान होना आवश्यक है लेकिन यूपीएससी की वर्तमान प्रणाली कामचलाऊ जानकारी की जगह अंग्रेज़ी में सिद्धस्त होने की मांग पर ज़ोर दे रही है जिससे भारतीय भाषाओँ में रोज़गार पाना कठिन हो चला है.
जिस देश के पिछड़े इलाकों के विद्यालयों में शिक्षक की योग्यता ही सवालों के घेरे में हो, जहाँ ग़रीब तबका अपने बच्चों को महंगी अंग्रेज़ी शिक्षा दिला सकने सक्षम नहीं है, वहां छात्रों से अंग्रेज़ी की अनिवार्य मांग कैसे की जा सकती है? 2012 में यूपीएससी की ही निगवेकर समिति ने इस बात को रेखांकित किया था कि यह नई परीक्षा प्रणाली में ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों के लिए उपयुक्त नहीं है. यह परीक्षा शहरी क्षेत्र के अंग्रेज़ी माध्यम के छात्रों को फायदा पहुंचती है. लेकिन इसके बावजूद आयोग ने इस प्रणाली की ख़ामियों पर विचार नहीं किया. क्या प्रतिष्ठित सेवाओं के लिए ऐसा प्रारूप आवश्यक नहीं जिसे अपने देश की शिक्षा प्रणाली को ध्यान में रखकर तैयार किया जाए? छात्रों की स्पष्ट मांग भी यही है. लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता को यह कहकर सही ठहराया जाता है कि यदि आपकी पोस्टिंग ग़ैर हिंदी भाषी राज्य में होती है तब आप क्या करेंगे? भाषा के सन्दर्भ में कोई भी व्यक्ति यह बता सकता है कि भाषा कोई अनुवांशिकी या जैविक प्रक्रिया नहीं है बल्कि इसका अर्जन और सर्जन एक सामाजिक प्रक्रिया है. जब किसी दक्षिण भारतीय अधिकारी का तबादला हिंदी भाषी क्षेत्र में होता है तो कुछ ही समय में उसकी मित्रता हिंदी से हो जाती है और भाषा संग वह खेलने लगता है. ठीक यही बात हिंदी भाषी व्यक्ति के दक्षिण जाने पर भी लागू होती है फिर क्यों परीक्षा में अंग्रेज़ी का ख़ाका विशेष रूप से खींच दिया गया है कि उसका ज्ञान पहले से आवश्यक है.
दिल्ली के मुखर्जी नगर से उठे इस आन्दोलन ने सिविल सेवा के माध्यम से, देश को यह सोचने पर बाध्य किया है कि अधिकारी की संवाद भाषा और लिखित भाषा क्या हो? काग़ज़ पर नोटिंग किस भाषा में हो यह उतना ही महतवपूर्ण है जितना वंचित तबके से उसकी भाषा में संवाद स्थापित करना. क्या कलम कि भाषा बोलचाल की भाषा से अलग होनी चाहिए या केवल नोटिंग की भाषा ज़्यादा अहमियत रखती है? आयोग को अब इस पर विचार करना होगा. साथ ही भाषा और रोज़गार का सम्बन्ध क्या हो यह भी एक बड़ा प्रश्न सामने आया है. क्या हमारी भाषाओँ में इतना सामर्थ्य है या उन्हें इतनी ताक़त सौंपी गई है कि उनमें अपना भविष्य सुरक्षित रखा जा सके? कोई भी भाषा केवल अपने साहित्य के दम पर ज़िन्दा नहीं रह सकती, न ही चंद पुरस्कार शुरू कर युवाओं को उनकी ओर आकृष्ट किया जा सकता है, इनकी दीर्घायु के लिए इन्हें रोज़गार की भाषा बनाना आवश्यक है. सिविल सेवा अभ्यर्थी भले ही सी-सैट को लेकर विरोध कर रहे हों लेकिन सी-सैट के आलोक में भाषाई संकट की ओर जो इशारा हो रहा है उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. इस देश की सरकार को अब यह समझना होगा कि जो भाषा रोज़गार की भाषा, तकनीक की भाषा, बाज़ार की भाषा नहीं बनेगी तो उसका मरना निश्चित है. फिर चाहे उसमें कितने ही महाकाव्य लिखे हों, कितनी ही पत्रिकाएँ निकली हों, सरकारी विभाग बने हो, आप उसे भाषाई सप्ताह मनाकर और जोहानेसबर्ग या मॉरिशस में सम्मलेन कराके बचा नहीं सकते.