पांचवां काला पन्ना
सदी का पांचवां काला पन्ना लिखा नेहरू-गांधी खानदान के उत्तराधिकारी व भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने। उन दिनों श्रीलंका गृहयुद्ध से जूझ रहा था। लिट्टे और श्रीलंका सेना के बीच संघर्ष जोरो पर था। लिट्टे अपने लिए स्वतंत्र देश तमिल ईलम की मांग कर रहा था। भारत के प्रांत तमिलनाडू में तमिल संख्या कह बहुलता होने के कारण लिट्टे का प्रभाव था। यू तो 1983 से भारत की श्रीलंका पर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष दृष्टि थी। राजीव गांधी ने अपने पड़ोसियों से सम्बंध सुधारने के नाम पर इन्टरनेशनल स्तर पर अपने नेतृत्व की धाक स्थापित करने की इच्छा से जून 1987 में यह कदम उठाया। प्रसिद्धि की चमक और ताकत की धमक के कारण उन्होने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए भारतीय सेना को दांव पर लगा दिया। किसी युद्ध में भारत को ऐसी सैन्य हानि नहीं हुई, जितनी शांति सेना को श्रीलंका में भेजकर देश को चुकानी पड़ी। भारत भूमि की रक्षा के लिए हमारा सैनिक हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे देता है, सैनिक का परिवार और समाज उसे शहीद के रूप में बरसों तक पूजता रहता है। पर श्रीलंका में शांति सेना के सैनिकों के बलिदान का उद्देश्य तब भी समझ से परे था और आज भी है। लड़ते हुए सैनिक शायद ही समझ पाये हो कि वे क्यों लड़ रहे है। शांति के लिए युद्ध राजीव गांधी में भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को ख्याति देने की महत्वाकांक्षा ठीक वैसी ही थी जैसी कभी नेहरू के मन में समाई थी। शायद इसी के चलते उन्होने भारत की सुरक्षा और भावना दोनो को बलात तो में रखकर शांति सेना श्रीलंका में भेज दी।
श्री राजीव गांधी का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना महारथ दिखाने का प्रयास अपरिपक्व राजनीति और अदूरदर्शी कूटनीति से भरा था। यह निर्णय हमारी सेना की हानि के साथ-साथ आने वाले कई सालों तक दो देशों की जनता के बीच अलगाव के बीज बो गया। तात्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की बात दोहराये तो राजीव के इस निर्णय से हमारे अमूल्य 1100 सैनिकों के प्राण और भारत की जनता की गाढ़ी कमाई के लगभग 2000 करोड़ रूपयें गंवाए है। राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से यह निर्णय भारत के पक्ष में नहीं था, यह जानकर वी.पी. सिंह ने सेना को श्रीलंका से वापिस बुला लिया। 24 मार्च 1990 को अंतिम बेड़ा श्रीलंका की धरती को छोड़कर भारत की ओर चला आया।
श्रीलंका का संकट समाप्ति के नाम पर भेजे गए व्यक्तियों का, वापसी के बाद कहना था कि हमारा उद्देश्य मानवीय दृष्टिकोण से श्रीलंका की मदद करना था। शांति सेना के जवानों का कहना था कि हम तो शांति सेना में थे, पर अचानक हम बिना किसी स्पष्ट आदेश के एक युद्ध के बीच में पंहुच गए। हमारे पास अपने संसाधन और यंत्र भी नहीं थे। हमें ऐसा महसूस हो रहा था कि हम अपने ही लोगो को मार रहे हो।
श्रीलंका की जनता के बीच शांति सेना के विरूद्ध तीव्र आक्रोश था। इसी के चलते शांति सेना के सैनिकों को लिट्टे के सैनिक और जनता दोनो ओर से मार सहनी पड़ी। श्रीलंका की सेना अपने राष्ट्रीय गौरव के मान से भारत की भेजी शांति सेना के विरूद्ध थी और उसने दुनियाभर में यह प्रचार कर दिया कि भारतीय शांति सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही है। दुनियाभर में शांति सेना के विरूद्ध हत्या, बलात्कार, लूट, महिलाओं एवं बच्चों के साथ गलत व्यवहार के समाचार मनगढन्त तरीके से प्रचारित किए गए। शायद यह पहला मौका था कि जब दुनिया में भारत जैसे देश की महान सेना इस कदर बदनाम हो रही थी और सच यह था कि उसी सेना के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा था। इन सबके पीछे एक मात्र कारण राजीव गांधी की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और कूटनीतिक अपरिपक्वता थी। उनके चाटुकार यहां तक मानते व कहते थे कि ऐसा करने से उन्हे शांति का नोबल पुरस्कार भी मिल सकता है।
भारत की करीब-करीब सभी राजनैतिक पार्टियों ने राजीव गांधी के इस निर्णय का विरोध किया। बड़ी राजनैतिक पार्टियों ने अपना विरोध संसद के अंदर और बाहर भी प्रकट किया। क्षेत्रीय पार्टिया भी तमिलनाडु की डीएमके के नेतृत्व में लामबन्द हो गई। भारत में ऐसा पहली बार हो रहा था कि भारत की संना का विरोध भारत की जनता या राजनीतिक पार्टिया कर रहे थे। तमिलनाडु में अक्टूबर- नवम्बर 1987 में आंदोलन हुआ, तो उसके पूर्व 22 अक्टूबर 1987 को प्रदेशव्यापी रेल रोको आंदोलन हुआ। इससे पूर्व 22 अक्टूबर 1987 को ही एक विशाल जनसभा का आयोजन डीएमके के नेतृत्व में हुआ जिसमें एक ही आवाज उठ रही थी कि शांति सेना को वापिस बुलाओं। इस सभा में आन्ध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव, अकाली दल के सांसद आहलुवालिया, कांग्रेस आई के सांसद के.पी. उन्नीकृष्णन, लोकदल नेता अजित सिंह एवं सुब्रमण्यम स्वामी और टीडीपी के सांसद पी. उपेन्द्र भी शामिल हुए। पूरे देश की आवाज शांति सेना को वापस बुलाने में एक साथ थी।
वहीं दूसरी ओर राजीव गांधी का राजनैतिक खेल चल रहा था। वह एक ओर शांति सेना को श्रीलंका में भेजकर लिट्टे के विरूद्ध संघर्ष की बात कर रहे थे तो दूसरी ओर लिट्टे को वित्तीय मदद देने के आरोप भी राजीव पर लग रहे थे। पूरे खेल में बाजी भारत हार रहा था। मर रहे थे भारतीय सैनिक और खो रही थी भारत की जनता अपना अमूल्य धन। जब 2 जनवरी 1989 को राणासिंघे प्रेमदासा श्रीलंका के राष्ट्रपति बने तो उन्होने 1989 में शांति सेना को 3 माह के भीतर श्रीलंका छोड़ने की बात कही। प्रेमदासा को उस दौरान श्रीलंका की जनता का 95 प्रतिशत समर्थन मिल रहा था। परन्तु राजीव गांधी का मानना था कि लिट्टे और श्रीलंका सरकार के मध्य समझौता होने पर ही शांति सेना की वापसी हो। दिसम्बर 1989 में भारत में चुनाव हुए और वी.पी. सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने। वीपी सिंह के निर्णय पर शांति सेना की वापसी सुनिश्चित हुई। केवल नेहरू- इंदिरा वंश में जन्म लेने के कारण अचानक देश की राजनीति में सर्वोच्च पद पर पंहुचे राजीव गांधी ने न भारत की सरकार को समझा न भारत के जन के मन को। राजीव गांधी के असफल प्रयास का अंत देश के जन व धन की अपार हानि से पूरा हुआ, भारत ने सब कुछ खोया- स्वाभिमान खोया, गौरव खोया और अंत में अपना युवा पूर्व प्रधानमंत्री भी खो दिया। (क्रमशः)
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