कालक्रम में किसी व्यक्ति के जीवन में तीस साल कैरियर शुरू करने की उम्र होती है. यानी नये सिरे से जिन्दगी में आगे बढ़ने की उम्र. लेकिन अगर यही उम्र का असर किसी राजनीतिक दल पर लागू करें तो क्या कहेंगे? भारतीय जनता पार्टी ने 6 अप्रेल को तीस साल पूरा कर लिया. उसके तीस साल पूरा होने के मौके पर अगर हम इस राजनीतिक दल की यात्रा का आंकलन करें तो पायेंगे कि भाजपा तीस साल की उम्र में ही बूढ़ी हो चली है.
याद कीजिए 1996 को...1989 में मंडल आयोग के बहाने लगी आग से देश की राजनीति में नए तरह के युग की शुरूआत हो रही थी। तब समाज का एक तबका जहां उस दौर की राजनीति से नाराज था तो दूसरा तबका नई ताकत हासिल कर रहा था। इसी दौर में रूबिया सईद का अपहरण हुआ और जिन खूंखार पाकिस्तानी आतंकवादियों को गिरफ्तार करने में हमारे जवानों को खून बहाना पड़ा था, उन्हें छोड़ना पड़ा था। वे पाकिस्तानी सीमा में जाकर खून की होली का जो अभियान चला रहे हैं, उसे आज भी देश को भुगतना पड़ रहा है। अर्थव्यवस्था की हालत ऐसी हो गई थी कि चंद्रशेखर सरकार को देश का कीमती सोना अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास गिरवी रखना पड़ा था। यानी उस दौर में देश आर्थिक रूप से बेहाली की ओर बढ़ रहा था तो सामाजिक विभाजन की स्पष्ट रेखा खिंच गई थी। सुरक्षा हालत की बदहाली को इसी बात से समझा जा सकता है कि आज भी कश्मीर घाटी रोजाना खून से रंगी रहती है। हजारों कश्मीरी पंडित आज भी दिल्ली में नारकीय शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हैं। ऐसे हालात के बाद देश की जनता को तब महज दस साल की उम्र वाली बीजेपी पर भरोसा बढ़ता जा रहा था। 1991 के चुनावों में बीजेपी को भले ही सफलता नहीं मिली, लेकिन इसी साल उसने लोकसभा की सौ से ज्यादा सीटें अपने कब्जे में कर लीं। नरसिंह राव सरकार अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में कामयाब भले ही हुई, लेकिन संचार घोटाले ने उसकी विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिए थे। उस दौर में देश को सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही भरोसा नजर आ रहा था।
हमें याद है कि दिल्ली में पत्रकारों के मक्का समझे जाने वाले आईएनएस बिल्डिंग के कमरों के अंदर और बाहर होने वाली चर्चाओं में सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी पर ही भरोसा जताया जाने लगा था। देश का भरोसा भले ही भारतीय जनता पार्टी पर था, लेकिन उसे यह भी पता था कि भारतीय जनता पार्टी खुद के बलबूते लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी। अलबत्ता बड़ा राजनीतिक दल जरूर बन सकती है। इसीलिए तब के अखबारों ने पहले से ही बहस शुरू कर दी थी कि अगर भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ा दल बन कर उभरती है तो उसे सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति को बुलाना ही पड़ेगा। अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थन में किस तरह की हवा बन गई थी, इसे देखने के लिए उसी साल राजकमल से प्रकाशित हुए रामशरण जोशी की किताब देखिए, जिसमें उन्होंने अपने सर्वे के बल पर कहा था कि प्रधानमंत्री के लिए अटल जी के नाम पर भरोसा ज्यादा है। साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में तब के सचिव इंद्रनाथ चौधरी ने वाजपेयी को बतौर कवि बुलाया और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के हॉल में उनका परिचय भारत के भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देखा गया। बहरहाल संयोग देखिए कि हुआ भी ऐसा....1996 के चुनावों वाजपेयी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा की 162 सीटों पर कब्जा जमाया। तब के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें सरकार बनाने के लिए बुलाया। लेकिन संसद में वह सरकार विश्वासमत हासिल नहीं कर पाई। लेकिन उस दौरान विश्वासमत पेश करते हुए वाजपेयी ने जो धाराप्रवाह भाषण दिया था, उसे लोग आज भी याद करते हैं। पहली बार दूरदर्शन पर लाइव दिखाई गई संसद की इस कार्यवाही के बाद मानों बीजेपी की लोकप्रियता में ही चारचांद लग गए। यह सरकार भले ही तेरह दिन तक चली, लेकिन वैचारिकता के दामन के सहारे एक नई सरकार होने का अहसास जरूर करा गई। इस अहसास ने भारतीय जनता पार्टी को देश की सर्वोच्च सत्ता पर आसीन कराने की पूर्वपीठिका बनाई। जिसकी परिणति 1998 में दिखी।
किसी राजनीतिक दल के बुढ़ापे के संकेत बहुत साफ होते हैं. वैचारिक अस्पष्टता, कार्यकर्ताओं की कलह और दिशाहीनता दिखे तो समझना चाहिए कि राजनीतिक दल बूढ़ा हो चला है और अब इसमें नेतृत्व देने की क्षमता क्षीजने लगी है. भारतीय जनता पार्टी अपनी प्रखरता को लगातार खोती नजर आ रही है। हाल के वर्षों तक देश का चाल-चरित्र और चेहरा बदलने का दावा करने वाली बीजेपी का अपना चाल, चेहरा और चरित्र पूरी तरह से बदल गया है. वैचारिक पृष्ठभूमि के चलते उसके चेहरे पर जो तेज होना चाहिए वह भी सिरे से नदारद है. बुढ़ापे का इससे स्पष्ट लक्षण और भला क्या हो सकता है?1998 के बाद की भारतीय जनता पार्टी को देखना और उसकी आज की हालत का सूत्र खोजना आज ज्यादा जरूरी जान पड़ता है। पार्टी विद डिफरेंस का दावा करने वाली पार्टी की सरकार जल्द ही विगत की कांग्रेसी और समाजवादी सरकारों की ही तरह नजर आने लगी। उसकी चाल वैसी ही हो गई, चेहरा भी वैसा ही दिखने लगा, जैसी दूसरी पार्टियों की सरकारों का था। जाहिर है 1998 के बाद वाली बीजेपी लगातार दूसरी पार्टियों जैसी ही होती गई। यहां पर याद आता है डॉक्टर राममनोहर लोहिया का एक लेख। अपने उस लेख में उन्होंने कहा था कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं। इस कौम को बदलने का दावा करने वाली सरकारें भी आती हैं। फिर भी ये कौम नहीं बदलती और नई सरकार को भी माला पहनाती नजर आती है। कहना न होगा कि पार्टी विद डिफरेंस का दावा करने वाली बीजेपी के साथ भी ऐसा ही हुआ। चूंकि बीजेपी के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिकता भी है, लिहाजा पुराने सरकारी चरित्र में बीजेपी के ढलने का विरोध भी हुआ। दत्तोपंत ठेंगड़ी और भारतीय मजदूर संघ ने कई मुद्दों पर वाजपेयी सरकार को खुलेआम खरीखोटी भी सुनाई। वैचारिकता से विचलन से संघ की विचारधारा वाला भारतीय मजदूर संघ इतना नाराज हुआ कि उसने वामपंथी ट्रेड यूनियनों के साथ हाथ मिलाने में देर नहीं लगाई। इन पंक्तियों के लेखक को दिल्ली के शालीन विज्ञान भवन में प्रोबिडेंट फंड ऑर्गनाइजेशन का एक कार्यक्रम याद है। जिसमें मंचासीन तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर उनकी मजदूर विरोधी नीतियों के लिए सीपीआई के गुरूदास दास गुप्ता और भारतीय मजदूर संघ के नेताओं ने एक साथ खरीखोटी सुनाई थी। श्रम मंत्री सत्यनारायण जटिया और अधिकारियों के साथ वाजपेयी इसे चुपचाप सुनते रहे थे। संघ के एक निजी कार्यक्रम में तो दत्तोपंत ठेंगड़ी ने प्रमोद महाजन को डांट भी दिया था। संघ परिवार में लोग जानते हैं कि ठेंगड़ी जी प्रमोद की पत्नी रेखा महाजन को अपनी बेटी मानते रहे हैं। वैचारिकता से विचलन को लेकर संघ परिवार में बीजेपी को लेकर इतना विवाद बढ़ा कि कई बार लगता था कि सरकार का जीना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन इस दौर में अपने मातृसंगठन की बीजेपी ने परवाह भी नहीं की। इसकी एक वजह यह भी रही कि खुद वाजपेयी और आडवाणी संघ के काफी वरिष्ठ प्रचारक रहे हैं। इसलिए संघ का आला नेतृत्व भी उनके सामने खुलकर खड़ा होने का साहस नहीं जुटा पाता था।
वैचारिकता से विचलन और प्रतिबद्धता की डोर कमजोर होने के बाद बीजेपी कांग्रेस का ही सुधरा रूप नजर आने लगी थी। इन पंक्तियों के लेखक को भाषा और वार्ता के संस्थापक शरद द्विवेदी के साथ काम करने का मौका मिला है। रिपोर्टिंग की दुनिया में लंबा अरसा गुजार चुके शरद द्विवेदी कहा करते थे कि सत्ता का चरित्र ही ऐसा है कि वह सत्ताधारी पार्टी को कांग्रेस बना देती है। आर्थिक और विदेश नीतियों के मामले में दोनों पार्टियों में कोई विरोध नहीं है। और जब भी इस पर नजर जाती है, शरद द्विवेदी के शब्द याद आने लगते हैं। लेकिन कांग्रेस और बीजेपी में एक फर्क है। आजादी के आंदोलन से निकली इस पार्टी कमोबेश जनता की नब्ज समझने की कोशिश करती रही है। लेकिन बीजेपी और उसके अलंबरदार यहीं पर चूक जाते हैं। 2004 के चुनावों में भी यही हुआ। पूरा देश, तकरीबन समूचा मीडिया इंडिया शाइनिंग की धूम मचाता रहा, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मशीनों से जो आंकड़े निकले, उन्होंने बीजेपी को भूतकाल में ढकेल दिया। पार्टी के नेता जनता को समझ ही नहीं पाए। इसका असर बाद के विधानसभा चुनावों में भी दिखता रहा है। उत्तर प्रदेश, झारखंड और दूसरे राज्यों में जनता का दिल छूने वाले मुद्दों से पार्टी लगातार किनारा करती रही है। जिसका खामियाजा उसे चुनावी राजनीति में पराजय के तौर पर चुकाना पड़ा है।
सत्ता दरअसल चुंबक होती है और उसके जरिए लोगो को बांधना आसान होता है। लेकिन पार्टी के पास अभी वह चुंबक ही नहीं है। यही वजह है कि कुछ एक राज्यों में भले ही पार्टी की सरकार हो लेकिन उसका जनसमर्थन छीज रहा है। जिस कोलकाता में जनसंघ की स्थापना हुई, जो बाद में बीजेपी बना, उस कोलकाता में पार्टी अपनी उपस्थिति नहीं जता पा रही है। दक्षिण के तीन राज्यों में पार्टी का आधार कमजोर है। ऐसा नहीं कि इन राज्यों में काबिल नेता नहीं हैं। लेकिन उन्हें मुख्य भूमिका में लाया ही नहीं जा रहा है। 2009 के चुनावों में हार के बाद सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने नई बीजेपी बनाने का बीड़ा उठा रखा है। उनकी कोशिश बीजेपी को नए दौर के मुताबिक पुरानी वैचारिक खोल में प्रतिबद्धता से लाना है। नितिन गडकरी की ताजपोशी इसीलिए हुई। लेकिन उन्होंने जो टीम बनाई है, उसमें ज्यादातर लोग वही हैं, जिन्हें माला पहनाने वाली कौमों से प्यार रहा है। अपनी ही पार्टी के काबिल लोगों को गडकरी भी आगे लाने में कामयाब नहीं हुए हैं। ऐसे में कैसे मानें कि पार्टी सचमुच अपने चाल-चरित्र और चेहरे से एक बार फिर भारतीय महत्वाकांक्षाओं की शहतीर बन सकेगी।
साभार उमेश चतुर्वेदी
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