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नया धमाका

11/24/2010

वार्ताओं से कुछ नहीं होगा

कश्मीर के संदर्भ में वर्तमान सत्ता-प्रतिष्ठान के व्यवहार को देखकर आतंकवादियों को आश्वस्ति मिल सकती है-
जरा धीरज रखो हर ख्वाब की ताबीर दे देंगे,
तुम्हारे हाथ में कुल कौम की तकदीर दे देंगे।
फरिश्ता अम्न की दिखने की जिद है राजपुरुषों को
ये खुद ही प्लेट में रखकर तुम्हें कश्मीर दे देंगे!
कश्मीर के मुख्यमंत्री का बयान (मैंने जानबूझकर यहां जम्मू-कश्मीर शब्द का प्रयोग नहीं किया है क्योंकि वर्तमान मुख्यमंत्री विखण्डनवादी घाटी के प्रतिनिधि हो सकते हैं, राष्ट्रवादी जम्मू और लद्दाख के नहीं!), राजधानी में राष्ट्रविरोधियों की निर्भय संगोष्ठी और उसमें कही गई विषाक्त बातों के सन्दर्भ में गृह मंत्रालय की शर्मनाक चुप्पी, केन्द्र के द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की उत्तरदायित्वहीन टिप्पणियां और तमाम राष्ट्रद्रोही गतिविधियों को लोकतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अंग्रेजी मीडिया के द्वारा दी जाने वाली शह- ये सब मिलकर उपर्युक्त पंक्तियों की व्यंग्यमयी व्यञ्जना को आज वस्तुत: सपाट अभिधा में बदल रहे हैं! चित्त में आक्रोश जागता है-
तुष्टीकरण की नीति का संहार चाहिए
सीने में आग कण्ठ में हुंकार चाहिए,
नेतृत्व धारदार हो-यह पहली शर्त है
इस मुल्क को सरदार का किरदार चाहिए।
हर राष्ट्रानुरागी के चित्त में आज देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल के लौह व्यक्तित्व की स्मृति जगमगाती है और उनके अक्षम उत्तराधिकारियों के प्रति विक्षोभ जाग उठता है।
अभी एक अंग्रेजी पत्रिका में गिलानी का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। दिल्ली में आयोजित गोष्ठी में अपनी विष-बुझी टिप्पणियों पर तथाकथित बुद्धिजावियों की करतल ध्वनि से उत्साहित और पहले नक्सली तथा अब कश्मीरी आतंकवादियों की मुखर पैरोकार बनी एक महिला साहित्यकार की राष्ट्रविरोधी भंगिमा तथा गोष्ठी में उच्छल सहभागिता से पुलकित गिलानी स्वयं को कश्मीर के भावी स्वरूप का संस्कारक मानने की खुशफहमी में जी रहे हैं। उनका मानना है कि कश्मीर एक आदर्श इस्लामी राज्य के रूप में विकसित होगा। उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि पाकिस्तान में रह रहे कश्मीर आन्दोलन के समर्थकों तथा भारत में स्थित उसके हिमायती साहित्यकारों और पत्रकारों को सादर जम्मू में बसाया जाएगा।
यह हमारे लोकतंत्र की विडम्बना है कि इसमें एक राष्ट्रद्रोही संगठन (सिमी) और एक राष्ट्रवादी संगठन (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) को एक ही पलड़े पर रखने की हिमाकत की जाती है और तुष्टीकरण की नीति को सत्ता-प्राप्ति की सहज राह मानने वाली सियासत से विरोध के प्रखर स्वर नहीं उठते! आतंकवाद और अलगाव की मानसिकता का सामना करने वाला हमारा वर्तमान शासन-तंत्र किसी तरह संसद में बहुमत तो बनाए हुए है किन्तु नैतिक मूल्य, राष्ट्रचिन्ता और आत्मगौरव को पहले ही तिलाञ्जलि दे चुका है! जिनके पास दृष्टि है, उन्हें लगता है कि घाव के नासूर बन जाने के बाद उस पर मरहम लगाना एक व्यर्थ की कवायद है, उस पर नश्तर लगाने की हिम्मत होनी चाहिए! कश्मीर के सन्दर्भ में एक बार पुन: सत्ता के शीर्ष पुरुषों से कहना चाहूंगा-
वज्रबधिरों की बस्तियां हैं वहां,
वार्ताओं से कुछ नहीं होगा।
हौसला है तो फैसले करिए,
प्रार्थनाओं से कुछ नहीं होगा।
(साभार पांचजंय)

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