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नया धमाका

1/07/2011

कांग्रेस के दोहरे मापदण्ड और संघ

सोनिया के कांग्रेसी आजकल बड़े जोर-शोर से संघ और सम्पूर्ण हिन्दुत्व को आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त दर्शाने की कोशिश में जुटे हैं तथा आत्मप्रशंसा में स्वयं को सवा सौ साल की राजनीतिक परम्परा का वाहक बता रहे हैं।
वैसे, ईमानदारी से विश्लेषण करें तो आतंकवाद के नाम पर हजारों की संख्या में पकड़े गए लोगों में से मात्र 10-12 लोग ही फर्जी या असली तौर पर हिन्दू समुदाय के हैं। उसमें से भी एकाध को कथित तौर पर कभी न कभी संघ से जुड़ा बताया जा रहा है। दिग्विजय सिंह तो आदत से मजबूरी के कारण सोते-जागते, उठते-बैठते हिन्दुत्वविरोधी बयानों को उसी प्रकार से बड़बड़ाने लगते हैं जैसे कोई सन्निपातग्रस्त रोगी अजीबोगरीब बातें बड़बड़ाता रहता है। सौ करोड़ से अधिक के हिन्दू समाज में से अगर 10-12 हिन्दुओं की गतिविधियां कथित तौर पर आतंकवाद में शामिल पायी गयीं भी तो क्या इससे सम्पूर्ण हिन्दू समाज ही आतंकवादी हो जाएगा? अगर नहीं, तो "हिन्दू आतंकवाद" या "भगवा आतंकवाद" का शिगूफा छोड़कर कांग्रेसी देश को कहां ले जाना चाहते हैं? सत्य तो यह है कि आतंकवाद में पकड़े गए 99 प्रतिशत लोग इस्लामपंथी हैं, ऐसी स्थिति में कांग्रेस या दिग्विजय सिंह में क्या
क्या वह कांग्रेसी आतंकवाद नहीं?
हमें याद है कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसियों ने संगठित रूप से हजारों की संख्या में निर्दोष सिखों का कत्लेआम किया था और अपने इस कुकृत्य को वैधानिकता का चोला पहनाने की दृष्टि से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो इस प्रकार का भूचाल आ ही जाता है। किन्तु गोधरा में 58 निर्दोष कारसेवक ट्रेन में जिन्दा जला दिए गए, उसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में कुछ घटनाएं हो गयीं तो कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी को "मौत का सौदागर" तक कहने की हिमाकत की। यदि इसी तर्ज पर कांग्रेस को "सिखों की हत्यारी पार्टी" कहा जाए तो कैसा लगेगा? इटली की गुप्तचर संस्थाओं से साठ-गांठ तथा क्वात्रोची से निकट संबंध देश में किस नेता के हैं, यह भी जगजाहिर हो चुका है। तो क्या उस नेता के नेतृत्व में चलने वाली पार्टी को देशद्रोही या देशविरोधी पार्टी नहीं कहा जाना चाहिए? 2005 कांग्रेस के गुजरात के पूर्वमंत्री मो. सुरती और उनके पांच कांग्रेसी सहयोगी सूरत में हुए बम विस्फोट के मामले में दोषी पाए गए, विस्फोटक सामग्री उनकी लाल बत्ती लगी गाड़ी में भेजने के प्रमाण मिले, ऐसी स्थिति में तो कांग्रेस को "आतंकी पार्टी" घोषित करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए था!
कांग्रेस कोयम्बटूर हमले के मुख्य आरोपी को केरल चुनाव में लाभ लेने के लिए जेल से रिहा करवा सकती है, किन्तु मौलाना बुखारी को न्यायालय का सम्मन तामील करवाने में असफल हो जाती है। अफजल और कसाब को फांसी से बचाने के लिए अनर्गल बयानबाजी करते हुए मुकदमों को कमजोर करने का षड्यंत्र कर सकती है लेकिन साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर मकोका लगाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा सकती है। और तो और दिल्ली की छाती पर चढ़कर भारत विरोधी भाषण देने वाले गिलानी और अरुंधती राय को गिरफ्तार करने में भी कांग्रेस सरकार डर जाती है। देश के सभी प्रमुख मंदिरों पर सरकारी "रिसीवर" बैठाकर उसके चढ़ावे को गैरधार्मिक कार्यों में खर्च करने का कुचक्र रचा जा सकता है किन्तु क्या इस्लामी संस्थाओं (मस्जिदों-मकबरों) से प्राप्त होने वाले दान का हिस्सा भी दूसरे मदों में खर्च करने के लिए सरकारी "रिसीवर" बैठाने का साहस कांग्रेस सरकार के पास है? संघ तो खुली किताब है, उसकी तुलना सिमी से करने में कांग्रेसियों को परहेज नहीं, किन्तु क्या कांग्रेस के पास यह हिम्मत है कि वह सिमी की उस वास्तिवकता को जनता के सामने रखे जिसके कारण उसने सिमी पर प्रतिबंध लगा रखा है?
जैसा बीज, वैसा वृक्ष
वस्तुत: कांग्रेस जिस प्रकार की वंश परम्परा में जन्मी है वहां आदर्श मापदण्ड और मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है। उसके काले कारनामों से देश भ्रष्टाचार में डूब जाए और आम आदमी के लिए महंगाई डायन का रूप ले ले, चाहे तो कश्मीर ही इस देश से कटकर अलग हो जाए या फिर उसके अनर्गल प्रलापों से असली आतंकवादी बच जाएं, परन्तु कांग्रेस अपने से अधिक योग्य दूसरे किसी को मान ही नहीं सकती, क्योंकि उसे घमण्ड है कि उसका इतिहास 125 साल पुराना है।
सत्यता यह है कि कांग्रेस का जन्म ही अंग्रेज पिता के प्रयत्नों से हुआ है। 1857 के प्रथम संगठित स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिवीरों के डर से महिलाओं के परिधान पहनकर भाग जाने वाला इटावा का कमिश्नर ऐलन ऑक्टेवियन ह्रूम (ए.ओ.ह्रूम) कांग्रेस की स्थापना का प्रमुख शिल्पी था। ह्रूम के द्वारा कांग्रेस के महासचिव के रूप में 1905 तक इस पौध को बढ़ाने का प्रयत्न किया गया। इस "पलायन वीर अंग्रेज" ने भारत के तत्कालीन वायसराय डफरिन, डलहौजी, रिपन और जान ब्रााइट जैसे अंग्रेजों के कई "लार्डों" से व्यापक विचार-विमर्श करके 28 दिसम्बर, 1885 को गोकुलदास तेजपाल कालेज, मुम्बई में कांग्रेस की स्थापना की। स्थापना के उद्देश्य तो गुप्त थे फिर भी ह्रूम ने अपनी जीवनी के लेखक वेडर बर्न, जो दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए, से कहा था कि दक्षिण भारत का किसान विद्रोह तथा 1857 की क्रांति की असफलता के बाद क्रांतिकारियों और प्रखर राष्ट्रवादियों की गतिविधियां ज्वालामुखी जैसे भयानक विस्फोट को जन्म दे सकती हैं। इससे बचने और ब्रिाटिश राज को निष्कंटक बनाने के लिए "सेफ्टी वाल्व" की जरूरत है। कांग्रेस की स्थापना करके हम उस जरूरत को पूरा करेंगे, जो देखने में तो भारतीयों की पार्टी होगी किन्तु होगी हमारी शुभचिन्तक। इसीलिए कांग्रेस के पहले अध्यक्ष व्योमेश चंद्र बनर्जी ने कहा था कि मेरे तथा मेरे मित्रों के समान निष्ठावान और समर्पित राजभक्त मिलना असंभव हैं। कांग्रेस की बैठकों में बहुत दिनों तक "गौड सेव द किंग" गीत गाया जाता था। अनेक बार तो महारानी विक्टोरिया की जयकार के नारे लगते थे तथा उनके यशस्वी जीवन की कामना की जाती थी। कई अंग्रेज कांग्रेस के अध्यक्ष बने जिसमें जार्ज म्यूल, ए.बेब, हेनरी काटन तथा वेडर बर्न आदि प्रमुख थे। वस्तुत: जिस कांग्रेस की स्थापना इस पृष्ठभूमि के अन्तर्गत की गयी थी उससे भारत के हित-रक्षा की अपेक्षा करना केवल कपोल कल्पना ही है।
भगवा से चिढ़ इसी कारण 1911 में कांग्रेस ने देश के प्रस्तावित ध्वज में कोने पर यूनियन जैक सहित नौ नीली व लाल पट्टियां बनाने का सुझाव रखा। 1931 में इसी कांग्रेस ने झण्डा कमेटी द्वारा एकमत से स्वीकृत सनातनकालीन भगवाध्वज को आजादी प्राप्त कर लेने पर भी राष्ट्रध्वज नहीं बनने दिया। जबकि इस कमेटी में स्वयं पं. नेहरू, सरदार पटेल, पट्टाभि सीतारमैया. डा. हार्डिकर, काका कालेलकर, मास्टर तारासिंह और मौलाना आजाद थे। जिस कांग्रेस को भगवाध्वज से
1911 में बंग-भंग योजना तो रद्द हो गयी थी किन्तु उसके 36 साल बाद पूरे देश के दो टुकड़े स्वीकार कर लिए गए। 1930 में विभाजन के प्रबल विरोधी रहे पं. नेहरू सत्ताशीर्ष पर बैठने की लालसा से विभाजन पर सहमत हो गए और लेडी माउन्टबेटन का सम्मोहन तथा कृष्णा मेनन द्वारा विभाजन के एजेन्ट के रूप में अपनायी गयी भूमिका ने भारत माता के दो टुकड़े करा दिए।
हताश घोटालेबाज कांग्रेस
कांग्रेस सावरकर को पसन्द नहीं करती, सुभाष, चन्द्रशेखर, भगतसिंह, तिलक, अशफाक उल्ला खां को भी नहीं पसन्द करती। हजारों बलिदानी वीरों का उससे कोई नाता नहीं। आजादी के बाद तो नाता जुड़ा केवल धन्धेबाजों से, घोटालों के सरताजों से। बोफोर्स घोटाला तो राजीव गांधी के गले की हड्डी ही बन गया। देश अगर बीते 63 वर्षों में कांग्रेस द्वारा किए गए अरबों करोड़ रुपए के घोटालों को भूल भी जाए तो भी आदर्श सोसायटी घोटाला, राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला, तथा "टू जी स्पेक्ट्रम" घोटाला-बीते-2-3 महीने में मनमोहन सरकार की विशेष उपलब्धि कैसी भूली जा सकती है, जिससे कई लाख करोड़ रुपए पूरे गिरोह ने मिलकर डकार लिए। क्या कोई कम समझदार आदमी भी मान सकता है कि अकेले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सारा पैसा हजम कर गए, या सुरेश कलमाड़ी सारा पैसा बांध ले गए, या फिर ए.राजा ने अकेले सारा बाजा बजा दिया? वास्तव में इसमें पूरा कांग्रेसी गिरोह शामिल है। 10 जनपथ से 7 रेसकोर्स तक बैठ हुए हर एक व्यक्ति की जांच ही नहीं, "स्क्रीनिंग" भी होनी चाहिए। किन्तु कांग्रेस इस बात को कैसे मान ले, आखिर सवा सौ साल का अनुभव भी तो उसके साथ है। उसे पता है कि जब विपक्ष वाले बिल्कुल न मानें तो देश में आपातकाल लगा दो, सभी नेताओं को जेल में डाल दो लेकिन इस बार कांग्रेस समझ गयी कि विपक्षी दल एकजुट हो गए हैं, संकट ज्यादा गहरा है। इसलिए "चोर मचाये शोर" की तर्ज पर चिल्लाना शुरू कर दिया कि संघ वाले आतंकवाद में संलग्न है,
संघ का प्रभाव
रा.स्व.संघ के बारे में कांग्रेस की दृष्टि अपनी जरूरत के हिसाब से बदलती रहती है। 1947 में जब कश्मीर का मामला फंस गया, तब संघ याद आया। श्री गुरुजी को महाराजा कश्मीर से वार्ता करने के लिए विशेष सरकारी विमान से 18 अक्तूबर, 1947 को नेहरू सरकार ने ही भेजा था। किन्तु बाद में संघ की लोकप्रियता से चिढ़े पं. नेहरू ने गांधी हत्या का आरोप लगाकर 26 फरवरी, 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। श्रीगुरुजी के विरुद्ध मुकदमा कायम हुआ, जिसे 2 दिन बाद ही वापस लेना पड़ा तथा 12 जुलाई, 1949 को प्रतिबंध भी बिना शर्त उठा लिया। चीन के आक्रमण के समय संघ के सहयोग से प्रभावित होकर पं. नेहरू ने अब संघ के स्वयंसेवकों को सम्मानपूर्वक 26 जनवरी, 1963 की परेड में आमंत्रित किया, उसी संघ को जिसे वह देश में भगवा ध्वज फहराने के लिए एक इंच भी भूमि न देने की गर्वोक्ति करते थे। 1965 में पाकिस्तान युद्ध के समय इसी कांग्रेस सरकार ने सरसंघचालक श्री गुरुजी को सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित किया था। किन्तु इंदिरा गांधी को संघ के बढ़ते कदमों से खतरा लगा और उन्होंने 1975 में आपातकाल के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। किन्तु वह प्रतिबंध भी 22 मार्च, 1977 को हटाना पड़ा और सरकार को अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा। अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने के बाद 10 दिसम्बर, 1992 को संघ पर फिर एक बार प्रतिबंध लगा
अगर हम महापुरुषों के कथन को याद करें तो 1928 में कलकत्ता में सुभाष बाबू ने कहा था कि संघ कार्य से ही राष्ट्र का पुनरुद्धार हो सकता है। 1938 में पंजाब के मुख्यमंत्री सिकन्दर हयात खां ने कहा था कि संघ एक दिन भारत की बड़ी ताकत बनेगा। 1939 में डा. अम्बेडकर ने पुणे शिविर में संघ को बिना भेदभाव वाला संगठन बताया था। 1940 में पुणे में वीर सावरकर ने संघ को एकमात्र आशा की किरण कहा था। 16 सितम्बर, 1947 को दिल्ली में महात्मा गांधी ने कहा था कि संघ शक्तिमान हुए बिना नहीं रहेगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा, कोका सुब्बा राव, लोकनायक जय प्रकाश नारायण, अच्युत पटर्वधन समेत ब्रिाटिश प्रधानमंत्री मार्गेट थ्रैचर ने संघ की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वस्तुत: संघ एक प्रखर देशभक्त संगठन है तथा सत्य-पथ का अनुगामी है, इसलिए असत्य के मार्ग पर चलने वाले नए-नए आरोपों से संघ का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। हां, देशभक्ति की प्रखर ज्वाला को बुझाने में अपने हाथ-मुंह झुलसा लेने की गलती कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में दिग्विजय सिंह जैसों के बयान वैसे ही कृत्य हैं जैसे कोई सूर्य पर कीचड़ उछालने की कोशिश करेगा तो उसका चेहरा उसी से गन्दा हो जाएगा।

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