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नया धमाका

1/09/2011

बीज बचाइये, पौरुष बचेगा


बीजों के भीमकाय सौदे को समझने के लिए हमें पहले बीज के रहस्य को समझना होगा. धरती के गिने जाने लायक कोई तीन लाख पौधों में से अब तक बस 30,000 का सरसरी तौर पर अध्ययन हुआ है. इनमें से कोई तीन हजार पौधों पर ज्यादा काम हुआ है. हमारी थाली पत्तल में जो कुछ भी परोसा जाता है उसका 90 फीसदी बस केवल तीस पौधों से ही आता है. इनमें भी केवल तीन पौधे- गेहूं, चावल, मक्का हमारे भोजन का 75 फीसदी भाग जुटाते हैं. लेकिन प्रागैतिहासिक लोग स्वाद के मामले में इतने गरीब नहीं थे. बीजों के जानकार बताते हैं कि हमारे पूर्वज कोई 1500 से 2000 पौधों से अपना भोजन चुनते थे. लेकिन लगातार आधुनिक खोजों ने खेती के साथ-साथ पौधों की भी विविधता समाप्त कर दी. कुल मिलाकर खेती का इतिहास तरह-तरह के स्वाद के कंजूसी का भी इतिहास भी बन गया.
खाना जुटानेवाले पौधों के प्रकार जरूर सिकुड़ते चले गये लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में इन सीमित फसलों में भी गजब की विविधता कायम रही. यह बहुत जरूरी थी. एक ही किस्म का धान, गेहूं या दाल मौसम के बदलते रूप, कीड़ों के हमले या अगमारी जैसे फसलों के रोगों के आगे टिक नहीं सकते थे. इसलिए पिछले 9000 सालों में तीसरी दुनिया के किसानों ने आज की गिनी-चुनी फसलों की हजारों किस्में खोजी थी. उनको पाला था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनको आगे बढ़ाया था. अब यह बात भी सब लोग जानने लगे हैं कि आज गरीब मानेजाने वाले देश बीजों की किस्मों के मामले में बहुत ही अमीर रहे हैं. आज के अमीर देशों की प्लेटों में परोसा जानेवाला भोजन इन्हीं बीज अमीर देशों से चलकर पहुंचा है. अमीर देशों में आज बोये जा रहे बीजों के इतिहास में झांकें तो हम भारत, बर्मा, मलेशिया, जावा, चीन, अफगानिस्तान, पेरू और ग्वाटेमाला व मैक्सिको के खेतों तक चले आयेंगे.

पर आज बीज अमीर देश खतरे में हैं. अब तक हर खेत में फैली बीजों की विलक्षण विविधता हरित क्रांति के लिए रास्ता बनाने में गायब हो चली है. आज से कोई 90 साल पहले भारत में केवल धान की ही 30,000 किस्में बोयी जाती थीं. यानी हर दसवें-बारहवें खेत में धान की किस्म बदल जाती थी. साथ में उनके स्वाद और पौध क्षमता में भी स्वाभाविक बदलाव होता था. लेकिन अगले 15 साल में हमारे पास धान की केवल 15 किस्में ही बच पायेंगी. सैकड़ों साल से अपनी तरह के प्याज के लिए प्रसिद्ध मिश्र में अब केवल एक ही किस्म बाकी रह गयी है – उन्नत गीजा-6. सऊदी अरब ने तेल जरूर पा लिया है पर पिछले 30 सालों में उसने जौ की 70 प्रतिशत किस्में खो दी हैं. हरित क्रांति के महावत से दोस्ती करने के चक्कर में इन सभी देशों ने पीढ़ियों से सुरक्षित बीज किलों की मजबूत दिवारें ढहा दी हैं.

अब बीज अमीर देशों के किस्सों में घुन लग गया है. जिन बीज गरीब देशों के कारण यह घुन लगा है अब उन्हीं देशों की सरकारें और दादा कंपनियां इन देशी बीजों को बचाने की आवाज लगाने लगी हैं. इसके पीछे भी उनकी नीयत अच्छी नहीं है. उनके यहां से बनी उन्नत किस्म की प्रजातियां भी उन्हीं की कीटनाशक दवाओं के बावजूद नये तरह के कीड़ों के सामने गच्चा खा जाती हैं. ऐसे में उन्नत बीज के दबदबे को बनाये रखने और कृषि विज्ञान का बिजूका गाड़े रखने के लिए उन्हें फिर से किसी पुराने मजबूत देशी बीज के संकर बीज बनाने की जरूरत आ पड़ती है. इसलिए देशी बीजों का भंडार बनाने का काम शुरू हो गया है.

दुनिया भर में 11 केन्द्रों में भारी सुरक्षा और भारी तामझाम के बीच देशी बीजों के बैंक बने हैं. इनमें से कुछ तो सीधे-सीधे दादा कंपनियों के बैंक हैं जो कुछ संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य कार्यक्रम आदि जैसे संदेह से परे संगठनों के भंडार हैं. उनके भी अनुदान के इतिहास में जाएं तो दो तीन दानवीर दादा कंपनियां सामने आती हैं. संवर्धन की नीयत दो उदाहरणों से साफ हो जाती है. अमीर देशों में फलों का धंधा करनेवाली यूनाईटेड फूड कंपनी ने पिछले दौर में केले की लुप्त हो रही किस्मों के संवर्धन का झंडा उठाया था. कंपनी ने केलों के तीन चौथाई किस्मों की रज जमा कर ली. इनके साथ जो कुछ नये प्रयोग करने थे कर लिये और फिर एकाएक कह दिया कि वह केलों के रज का संवर्धन बंद कर रही है. इसी तरह रबर टायर आदि का धंधा करनेवाली फायरस्टोन कंपनी ने एशिया ब्राजील और श्रीलंका से रबर की लुप्त हो रही 700 किस्मों की रज जमा की और फिर बहुत दुख के साथ घोषणा की कि कुछ अपरिहार्य कारणों से रबर रज पर शोध बंद किया जा रहा है. ये दो उदाहरण हंडी के दो चावल हैं, बीजों के सौदागरों की पूरी हंडी ऐसे ही चावलों से भरी पड़ी है.

बीजों के रज पर कब्जे का मतलब है आपके खेत में बोये जाने से लेकर काटे जाने तक के हर फैसले पर किसी और का नियंत्रण. रज हथिया लो सब कुछ हाथ में आ जाएगा क्योंकि बीजों के रज में छिपी है विराट सत्ता और अथाह संपत्ति. लेकिन यह ऐसे ही नहीं मिलेगी. उसका भी इंतजाम किया जा रहा है. ये सब दादा कंपनियां अपने-अपने इलाके में कानून पास करवा रही हैं. इससे उनके हाथों में किसी भी विशिष्ट किस्म के बीजों का एकाधिकार आ जाएगा. पौधों की आनुवांशिकता पर उनका हक हो जाएगा.

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