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नया धमाका

1/10/2011

कांग्रेस खेमे में टूटा "नेतृत्व" का तिलिस्म

वर्ष 2010 केन्द्र की संप्रग सरकार और कांग्रेस पर जो बोझा लादकर जा रहा है उसके सन् 2011 में कम होने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों के आचरण की आंच प्रधानमंत्री तक पहुंच गई है तथा उनकी क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। वर्ष 2011 में चार राज्य विधानसभाओं-असम, प. बंगाल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र-के चुनाव होने वाले हैं। कांग्रेस प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु में द्रमुक की पुंछल्ला पार्टी के रूप में स्थापित है। ममता बनर्जी के तेवर देखते हुए यह कठिन लगता है कि कांग्रेस को वह विशेष तरजीह देंगी। जहां तक तमिलनाडु का सवाल है, द्रमुक डूब रही है इसलिए उसके सहारे कांग्रेस का उद्धार हो सकेगा इसकी संभावना बहुत कम है। तमिलनाडु कांग्रेस का बड़ा वर्ग जयललिता के साथ जाने का पक्षधर है। यह खिचड़ी पकती है या नहीं, अभी यह कहना कठिन है। कांग्रेस पिछले दो लोकसभा चुनाव अपने "नेतृत्व" के नाम पर जीतती रही है। लेकिन बिहार के चुनाव परिणामों ने परिवार (गांधी परिवार) के "चमत्कार" पर पानी फेर दिया। एक के बाद एक घोटाले, संसद का न चलना और प्रधानमंत्री का
जहां तमिलनाडु और बंगाल में कांग्रेस की स्थिति दयनीय है, वहीं असम और महाराष्ट्र में भी यह अच्छी नहीं कही जा सकती। असम में तरुण गोगोई की सरकार अपनी साख खो चुकी है और महाराष्ट्र में घोटालों में उलझी कांग्रेस और महंगाई बढ़ाने वाले शरद पवार के बयानों ने मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। आंध्र प्रदेश में तेलंगाना आंदोलन और जगनमोहन रेड्डी के विद्रोह ने न केवल मुख्यमंत्री बदलने पर विवश किया बल्कि नये सिरे से गुटबाजी का दौर शुरू हो गया है। सत्ताधारी मंत्रियों के बीच तालमेल का अभाव और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश का एक दूसरे को सार्वजनिक रूप से बहस के लिये ललकारना सत्ताधारी पक्ष में सामंजस्य के अभाव को उजागर करता है। नीरा राडिया के टेप के खुलासे ने यह बात भी स्पष्ट कर दी है कि सत्ताधारी चाहे मंत्री हो या प्रशासनिक अधिकारी, उन पर कारपोरेट जगत का बहुत प्रभाव है। शायद इसी का परिणाम है कि पिछले एक दशक में हमारे देश के कई उद्योगपति दुनिया के धनवानों की सूची में प्राथमिकता पा गये हैं।
इस माहौल से उबरने के लिये कांग्रेस ने "हिंदू आतंकवाद" का जो हौव्वा खड़ा किया है उसने आम आदमी के मन में यह धारणा उत्पन्न की है कि वास्तविक समस्याओं से जूझने और आम आदमी को राहत पहुंचाने वाले कार्यों को प्राथमिकता देने की बजाय सत्ताधारी पक्ष भयादोहन की दिशा पकड़ चुका है। यद्यपि कांग्रेस ने बड़े जोर-शोर से वह हौव्वा खड़ा किया था, लेकिन अधिवेशन के दूसरे ही दिन मुंबई और अमदाबाद में लश्करे तोएबा के आतंकवादियों की घुसपैठ हो जाने के समाचार ने किसी के भी मन में यह संदेह नहीं रहने दिया कि आतंकवाद की जड़ कहां है। कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट लेने के चक्कर में जिस प्रकार अनर्गल दुष्प्रचार पर उतारू है वह उसके लिये ही घातक साबित होगा। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने बिहार के चुनाव से कोई सबक नहीं सीखा है। देश का माहौल नकारात्मकता से अधिक सकारात्मक दिशा अपनाने की ओर बढ़ रहा है, ऐसे में सकारात्मक सोच और आचरण के प्रति लोगों की आस्था का संज्ञान लेने की बजाय कांग्रेस ने जो दिशा पकड़ी है उससे ऐसा लगता है कि उसमें विचारवान लोगों का अभाव है। इसलिए 2010 की समाप्ति पर उसकी साख संभवत: सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। 2011 में वह इससे उबरने का कोई संकेत नहीं दे पा रही है।

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